आईटी अधिनियम की रद्द धारा 66ए के तहत मुक़दमे दर्ज किए जाने पर राज्यों को नोटिस

सुप्रीम कोर्ट ने पिछले महीने पांच जुलाई को इस बात पर हैरानी ज़ाहिर की थी कि लोगों के ख़िलाफ़ सूचना प्रौद्योगिकी अधिनियम की धारा 66ए के तहत अब भी मुक़दमे दर्ज हो रहे हैं, जबकि शीर्ष अदालत ने 2015 में ही इस धारा को अपने फैसले के तहत निरस्त कर दिया था.

(फोटो: पीटीआई)

सुप्रीम कोर्ट ने पिछले महीने पांच जुलाई को इस बात पर हैरानी ज़ाहिर की थी कि लोगों के ख़िलाफ़ सूचना प्रौद्योगिकी अधिनियम की धारा 66ए के तहत अब भी मुक़दमे दर्ज हो रहे हैं, जबकि शीर्ष अदालत ने 2015 में ही इस धारा को अपने फैसले के तहत निरस्त कर दिया था.

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नई दिल्ली: सुप्रीम कोर्ट ने सोमवार को एक गैर सरकारी संगठन के उस आवेदन पर राज्यों, केंद्र शासित प्रदेशों और सभी उच्च न्यायालयों को नोटिस जारी किया है, जिसमें कहा गया है कि सूचना प्रौद्योगिकी (आईटी) अधिनियम की रद्द हो चुकी धारा 66ए के तहत अब भी लोगों के खिलाफ मामले दर्ज किए जा रहे हैं.

उच्चतम न्यायालय ने 2015 में एक फैसले में इस धारा को रद्द कर दिया था.

जस्टिस आरएफ नरीमन और जस्टिस बीआर गवई की पीठ ने कहा कि चूंकि पुलिस राज्य का विषय है, इसलिए यह बेहतर होगा कि सभी राज्य सरकारों और केंद्रशासित क्षेत्रों को पक्षकार बनाया जाए तथा ‘हम एक समग्र आदेश जारी कर सकते हैं, जिससे यह मामला हमेशा के लिए सुलझ जाए.’

पीठ ने अपने आदेश में कहा, ‘क्योंकि यह मामला पुलिस और न्यायपालिका से संबंधित है, हम सभी राज्यों, केंद्रशासित क्षेत्रों और सभी उच्च न्यायालयों के रजिस्ट्रारों को नोटिस जारी करते हैं.’

पीठ ने कहा कि इन सभी को चार हफ्ते के अंदर नोटिस का जवाब देना होगा. साथ ही पीठ ने यह निर्देश भी दिया कि नोटिस के साथ सभी पक्षों को याचिका का विवरण भी भेजा जाए.

गैर सरकारी संगठन (एनजीओ) ‘पीपुल्स यूनियन फॉर सिविल लिबर्टीज’ (पीयूसीएल) की तरफ से वरिष्ठ अधिवक्ता संजय पारिख ने कहा कि इस मामले में दो पहलू हैं, पहला पुलिस और दूसरा न्यायपालिका, जहां अब भी ऐसे मामलों पर सुनवाई हो रही है.

पीठ ने कहा कि जहां तक न्यायपालिका का सवाल है तो उसका ध्यान रखा जा सकता है और हम सभी उच्च न्यायालयों को नोटिस जारी करेंगे.

शीर्ष अदालत ने इस मामले में सुनवाई की अगली तारीख चार हफ्ते बाद तय की है.

केंद्र की तरफ से पेश हुए सॉलिसिटर जनरल तुषार मेहता ने शुरुआत में कहा कि उन्हें सरकार के हलफनामे पर पीयूसीएल का प्रत्युत्तर रविवार को ही मिला है और वह इसे पढ़ना चाहेंगे.

उच्चतम न्यायालय ने पिछले महीने पांच जुलाई को इस बात पर ‘हैरानी’ और ‘स्तब्धता’ जाहिर की थी कि लोगों के खिलाफ सूचना प्रौद्योगिकी अधिनियम की धारा 66ए के तहत अब भी मुकदमे दर्ज हो रहे हैं, जबकि शीर्ष अदालत ने 2015 में ही इस धारा को अपने फैसले के तहत निरस्त कर दिया था.

सूचना प्रौद्योगिकी कानून की निरस्त की जा चुकी धारा 66ए के तहत ऑनलाइन भड़काऊ पोस्ट करने पर किसी व्यक्ति को तीन साल तक कैद और जुर्माने की सजा का प्रावधान था.

शीर्ष अदालत ने पीयूसीएल के आवेदन पर केंद्र को नोटिस जारी किया था और एनजीओ के वकील से कहा था, ‘आपको नहीं लगता कि यह हैरान और स्तब्ध करने वाला है? श्रेया सिंघल फैसला 2015 का है. यह वास्तव में स्तब्ध करने वाला है. जो हो रहा है वह भयावह है.’

इस संगठन ने दावा किया कि न्यायालय के 24 मार्च, 2015 के फैसले के प्रति पुलिसकर्मियों को संवेदनशील बनाने के 2019 के स्पष्ट निर्देशों के बावजूद इस धारा के तहत हजारों मामले दर्ज किए गए हैं.

केंद्र की तरफ से अटार्नी जनरल केके वेणुगोपाल ने इससे पहले कहा था कि आईटी अधिनियम को देखने पर यह पता चलता है कि धारा 66ए उसमें नजर आती है, लेकिन फुटनोट (पन्ने के नीचे की तरफ की गई टिप्पणी) में लिखा है कि यह प्रावधान निरस्त कर दिया गया है.

शीर्ष अदालत पीयूसीएल की एक नए आवेदन पर सुनवाई कर रहा था. इसमें कहा गया, ‘हैरानी की बात है कि 15 फरवरी 2019 के आदेश और उसके अनुपालन के लिए उठाए गए कदमों के बावजूद, याचिकाकर्ता ने पाया कि आईटी अधिनियम की धारा 66ए न सिर्फ उपयोग पुलिस थानों में उपयोग में है, बल्कि निचली अदालत के समक्ष चल रहे मामलों में भी.’

आवेदन में केंद्र को यह निर्देश देने की मांग की गई कि ऐसे सभी मामलों के आंकड़े/जानकारी एकत्रित की जाए जहां प्राथमिकी/जांच में धारा 66ए को लागू किया गया और देश भर में ऐसे मामलों की संख्या की जानकारी भी मांगी, जहां 2015 के फैसले का उल्लंघन करते हुए इस धारा के प्रावधानों के तरह कार्यवाही जारी है.

शीर्ष अदालत ने 15 फरवरी 2019 को सभी राज्य सरकारों को निर्देश दिया था कि वे सभी पुलिसकर्मियों को उसके 24 मार्च 2015 के फैसले से अवगत कराए, जिसके तहत आईटी अधिनियम की धारा 66ए को निरस्त कर दिया गया था, जिससे लोगों को अनावश्यक रूप से इस प्रावधान के तहत गिरफ्तार न किया जाए.

न्यायालय ने सभी उच्च न्यायालयों से भी कहा था कि वे उस फैसले की प्रति निचली अदालतों में उपलब्ध कराएं, जिससे निरस्त हो चुके प्रावधान के तहत लोगों के अभियोजन से बचा जा सके.

सुप्रीम कोर्ट के नोटिस के बाद केंद्र सरकार ने एक बार फिर बीते 13 जुलाई को राज्यों से पुलिस को यह निर्देश देने को कहा था कि वे सूचना प्रौद्योगिकी (आईटी) कानून, 2000 की निष्प्रभावी की गई धारा 66ए के तहत मामला दर्ज नहीं करें.

इसने कहा था कि 21 राज्यों ने साल 2019 के जनवरी और अप्रैल के बीच आईटी मंत्रालय को पत्र लिखकर कहा था कि उन्होंने पुलिस विभागों को उपयुक्त निर्देश जारी किए और 2015 के फैसले का अनुपालन किया.

मालूम हो कि इस मामले को लेकर 27 जुलाई को अदालत में दाखिल हलफनामे में केंद्र द्वारा कहा गया था, ‘हम यह बताना चाहते हैं कि भारत के संविधान के तहत पुलिस और सार्वजनिक व्यवस्था राज्य के विषय हैं और अपराधों की रोकथाम, पता लगाने, जांच और अभियोजन और पुलिसकर्मियों की क्षमता निर्माण मुख्य रूप से राज्यों की जिम्मेदारी हैं.’

गृह मंत्रालय और आईटी मंत्रालय के इनपुट के आधार पर केंद्र ने कहा था, ‘कानून प्रवर्तन एजेंसियां साइबर अपराध अपराधियों के खिलाफ कानून के प्रावधानों के अनुसार कानूनी कार्रवाई करती हैं. तदनुसार, (यह) माननीय सर्वोच्च न्यायालय के उक्त निर्णय/आदेश का अनुपालन करने के लिए कानून प्रवर्तन एजेंसियों की समान जिम्मेदारी है.’

यह हलफनामा जस्टिस आरएफ नरीमन की अध्यक्षता वाली पीठ द्वारा इस बात पर सख्त नाराजगी जताने के बाद दायर किया गया था कि असंवैधानिक घोषित किए जाने के बाद भी आईटी एक्ट की धारा 66ए के तहत दर्ज होने वाले मामलों में पांच गुना बढ़ोतरी हुई है.

पीयूसीएल की ओर से दायर आवेदन में पता चला कि जब मार्च 2015 में सुप्रीम कोर्ट ने आईटी एक्ट धारा 66ए को रद्द कर दिया था, तब 11 राज्यों में 229 मामले लंबित थे. हालांकि, कानून रद्द होने के बाद इन राज्यों में पुलिस ने उसी प्रावधान के तहत 1,307 नए मामले दर्ज किए.

(समाचार एजेंसी भाषा से इनपुट के साथ)