शब्द और विचार हर किस्म के कठमुल्लों को बहुत डराते हैं. विचारों से आतंकित लोगों ने अब शब्दों और विचारों के ख़िलाफ़ बंदूक उठा ली है.
Gauri, you are more than a memory
You are a direction
For a world that should not be!
– K P Sasi
1
कुछ लोग जीते जी किवदंती बन जाते हैं. कन्नड़ भाषा के अग्रणी हस्ताक्षर पी लंकेश (जन्म 8 मार्च, 1935) ऐसे ही शख़्सियतों में शुमार किए जा सकते हैं. समाजवादी आंदोलन से ताउम्र सम्बद्ध रहे लंकेश, जो कुछ समय तक अंग्रेज़ी के प्रोफेसर भी रहे.
आज भी उनकी अपनी साप्ताहिक पत्रिका ‘लंकेश पत्रिके’ के लिए याद किए जाते हैं, जो उत्पीड़ितों, दलितों, स्त्रियों और समाज में हाशिये के तबकों का एक मंच बनी थी, जिसने कन्नड़ भाषा में आज सक्रिय कई नाम जोड़े, जो उसूल के तहत विज्ञापन नहीं लेती थी और एक समय था जब उसकी खपत हज़ारों में थी और उसके पाठकों की संख्या लाखों में.
लंकेश के बारे में मालूम है कि 25 जनवरी, 2000 को अपने साप्ताहिक का संपादकीय लिख कर सोने चले गए तो फिर जगे ही नहीं. कर्नाटक का समूचा विचारजगत स्तब्ध था. इसे विचित्र संयोग कहा जाना चाहिए कि दिल का दौरा पड़ने से हुई उनकी मौत के सत्रह साल आठ महीने और दस दिन बाद महज कर्नाटक ही नहीं, पूरे देश का विचारजगत स्तब्ध है, जब उनकी बड़ी बेटी गौरी लंकेश की मौत की ख़बर लोगों ने सुनी है, जो हत्यारों की गोलियों का शिकार हुईं.
कर्नाटक के अलग अलग नगरों में ही नहीं देश के अलग अलग शहरों-नगरों में लोगों ने रैलियों और शोकसभाओं के माध्यम से अपने शोक को प्रगट किया है और उनकी झंझावाती ज़िंदगी को सलाम पेश किया है.
किसी वेबसाइट पर उन स्थानों को भी चिन्हित किया गया है, जहां पर प्रदर्शन हुए हैं, सभाएं हुई हैं, निश्चित ही वह समग्र सूची नहीं है, जहां जहां पर भी ख़बर पहुंच रही है, वहां सभाओं, रैलियों की योजनाएं सोशल नेटवर्क के माध्यम से तैर रही हैं.
गौरी लंकेश की पोस्टमार्टम रिपोर्ट बताती है कि उन पर चार गोलियां चलाई गई थीं जिनमें से तीन उनके शरीर में घुस गईं, चौथी गोली के छर्रे उनकी घर की दीवार पर मिले.
जांचकर्ताओं को उनके मकान के गेट और घर के दरवाज़े के दस फीट के अंतराल में चार कारतूसों के खोखे मिले हैं. पुलिस के मुताबिक एक गोली उनके बाएं कंधे से पीछे से घुसी और दो गोलियां सामने से, जिन्होंने उनके फेफडे़ और दिल को छेद दिया था.
आख़िर पी लंकेश की सबसे बड़ी बेटी गौरी लंकेश- जो अपनी किशोरावस्था में कभी डाॅक्टर बनना चाहती थीं- किसके लिए ख़तरा बनी थीं जिन्होंने पचपन साल की इस क्रशकाय महिला को- जो बंगलुरु में अकेले ही रहती थीं- और संविधान के बुनियादी उसूलों की हिफ़ाजत के लिए अपनी क़लम से और अपनी सरगर्मियों से अंजाम देने में लगी थीं, हमेशा के लिए सुला दिया.
दरअसल वह बहुत कुछ थीं, वह एक बेबाक पत्रकार थीं- जिन्होंने पहले अंग्रेज़ी प्रिंट एवं इलेक्टॉनिक मीडिया के लिए काम किया था, कुछ वक्त़ तक वह एक टीवी चैनल की ब्यूरो प्रमुख बन कर भी राजधानी में रहीं, मगर बाद में अपनी मातृभाषा कन्नड़ में पत्रकारिता पर फोकस किया- जो वैश्विक फ़रेब के इस ज़माने में सच कहने का जोख़िम लगातार उठा रही थीं.
वह मोर्चे पर तैनात एक एक्टिविस्ट भी थीं जिसकी निगाह से शोषितों-पीड़ितों के साथ हो रही ज़्यादतियों का कोई भी मुद्दा छूटता नहीं था, यह अकारण नहीं था कि वह समान विचारधारा के लोगों को एक मंच पर लाने के लिए भी सक्रिय रहती थीं जो वर्गीय गैरबराबरी, जातीय विषमता और धार्मिक पुनरुत्थानवादी ताक़तों के ख़िलाफ़ जागरूक रहते थे.
कम्युनिस्ट क्रांतिकारियों की वह धारा जो हथियारबंद संघर्ष में मुब्तिला है, उनके प्रभाव वाले इलाक़ों में जाकर उनसे सीधे बात करने से ताकि वह मुख्यधारा की राजनीति से जुड़ें, उन्होंने कोई गुरेज नहीं किया. जब साकेथ राजन नामक उनका युवा नेता पुलिस मुठभेड़ में मारा गया तो उसका शव उसके माता पिता तक पहुंचाने के लिए तत्कालीन मुख्यमंत्री धरम सिंह के विरोध में आवाज़ बुलंद करने से वह नहीं चूकीं.
वह आल इंडिया फोरम फाॅर राइट टू एजुकेशन जैसी मुहिम से भी जुड़ी थीं और निजीकरण, फासीवाद के ख़िलाफ़ छात्रों के संघर्ष से हमेशा अपने आप को जोड़ती थीं. और सबसे बढ़ कर सांप्रदायिक ताक़तों की सबसे प्रखर आलोचकों में शुमार थीं. अपनी आख़िरी सांस तक वह सांप्रदायिकता के ख़िलाफ़ संघर्ष में मुब्तिला रहीं और प्रगतिशील एवं वाम ताक़तों के साथ अभिन्न रूप से जुड़ी रहीं.
वह कर्नाटक कौमू सौहारद वेदिके नामक सांप्रदायिक सदभाव के लिए सक्रिय एक अनोखे संगठन की संस्थापक सदस्य थीं, जिसका गठन सूफी संत बाबा बुडनगिरी की मज़ार पर हिंदुत्ववादी संगठनों के क़ब्ज़े की कोशिशों के दौरान हुआ था और आज भी समूचे मुल्क में सांप्रदायिकता के विरोध में सतत सेक्युलर सामाजिक-सांस्कृतिक हस्तक्षेप कैसे हो सकता है, इसकी नज़ीर बना हुआ है.
उन्होंने ऐसी कई किताबों को कन्नड़ में प्रकाशित करवाया जिन्हें अंग्रेज़ी में प्रकाशित करने के लिए प्रकाशक मुश्किल से मिल पाए थे- फिर चाहे किशलय भट्टाचार्य की किताब ‘ब्लड आन माइ हैंड्स: कन्फेशन्स आॅफ स्टेज्ड एनकाउंटर्स’ हो या राना अयूब की बहुचर्चित किताब ‘गुजरात फाइल्स’ हो, जिसे तो अंततः लेखिका को ख़ुद प्रकाशित करवाना पड़ा था.
एक और अहम बात, धारा के ख़िलाफ़ खड़ा होना गोया उनकी फ़ितरत बनी थी और जब जेएनयू के छात्रनेता कन्हैया कुमार को फ़र्ज़ी वीडिओ के आधार पर देशद्रोही कहलाने की साजिश हिंदुत्ववादी जमातों ने रची, जिसमें वह बुरी तरह फेल हुए, तब उन्होंने कन्हैया कुमार को अपना ‘गोद लिया बेटा’ घोषित किया.
ऊना आंदोलन के नेता जिग्नेश मेवाणी ने अपने फेसबुक पोस्ट में भावुक होकर लिखा है कि मैं उनका अच्छा ‘बेटा’ था तो कन्हैया ‘शरारती’ बेटा था.
2.
गली-गली में गोडसे घूम रहा है, हर घर से गौरी निकलनी चाहिए.
आग मुसलसल ज़ेहन में लगी होगी
यूं ही कोई आग में जला नहीं होगा.-अनाम शायर
गौरी लंकेश के सरोकार कितने व्यापक थे या उनकी कलम की मार से किस तरह कोई बच नहीं सकता था, इसे हम कर्नाटक उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश पर लिखे उनके एक लेख में देख सकते हैं जिसका शीर्षक था ‘जब न्याय की आंखें ही पीलियाग्रस्त होती हैं’.
प्रस्तुत लेख तत्कालीन न्यायमूर्ति की पेजावर पीठ की यात्रा (जुलाई, 2016) के बहाने लिखा है जिसमें मठ द्वारा दिए गए पुरस्कार के बाद न्यायाधीश महोदय ने अपने व्याख्यान में कहा था:
…‘यह कहने में हमें गर्व है कि हम हिंदू हैं, मगर हमारे दृष्टिकोण एक जैसे नहीं हैं. क्योंकि हम सभी मोक्ष चाहते हैं फिर हमारे बीच झगड़ा क्यों होना चाहिए? भले हिंदू बहुसंख्यक हैं, इसके बावजूद हमारे लिए यह मुमकिन नहीं हुआ है कि हम एक मंदिर बना सकें और उसमें राम की मूर्ति रख सकें. इसलिए मेरी प्रार्थना है कि सभी हिंदू संतों को एकत्र होकर अयोध्या में मंदिर बनाना चाहिए, सभी हिंदू संतों को एकत्रित होकर हिंदू धर्म की रक्षा करनी चाहिए.’…
लेख में वह सवाल उठाती हैं कि आख़िर ऐसी मानसिकता वाला व्यक्ति संविधानप्रदत्त सिद्धांतों, मूल्यों की हिफ़ाज़त कैसे कर सकता है?
अपनी पत्रिका ‘गौरी लंकेश पत्रिके’ में लिखा उनका आख़िरी संपादकीय दरअसल इस बात की ताईद करता है कि वह किस तरह धर्म और राजनीति का सम्मिश्रण करने वाली जमातों एवं उनके नफ़रत भरे एजेंडे को बेपर्दा करने में लगातार मुब्तिला रहती थीं और उसके लिए अभिव्यक्ति के तमाम ख़तरे उठाने के लिए हमेशा तैयार रहती थीं.
भाजपा के एक विधायक की विवादास्पद बात गोया इसी बात की ताईद करती है. अख़बार के मुताबिक
‘..श्रिंगेरी, कर्नाटक से भाजपा के विधायक डी एन जीवराज ने भाजपा युवा मोर्चा रैली को झंडी दिखाते हुए कहा कि लंकेश मारी गईं क्योंकि उन्होंने एक स्टोरी प्रकाशित की थी जिसका शीर्षक था ‘चड्डीगाला माराना होमा’ (कन्नड़ भाषा के इस शीर्षक का अर्थ है खाकी चड्डी या संघ का अंतिम संस्कार) इसपर प्रतिक्रिया देते हुए कर्नाटक के मुख्यमंत्री सिद्धारमैया ने कहा ‘इसका क्या अर्थ है? क्या इसका अर्थ यह नहीं है कि वह इसके पीछे हैं?’
जब स्थानीय मीडिया में विधायक की प्रतिक्रिया की ख़बर छपी तब श्रिंगेरी के कांग्रेस कार्यकर्ताओं ने विधायक के ख़िलाफ़ पुलिस में शिकायत दर्ज कराई. विधायक ने बाद में कहा कि उसके शब्दों को ग़लत समझा गया. (इंडियन एक्स्प्रेस, आठ सितम्बर 2017, कम्प्लेन्ट फाईल्ड अगेन्स्ट बीजेपी एमएलए’)
ऐसा नहीं था कि गौरी को इस बात का गुमान नहीं था कि अतिवादी हत्यारे- जिन्होंने इसके पहले अंधश्रद्धा के ख़िलाफ़ संघर्षरत डॉ नरेंद्र दाभोलकर, कम्युनिस्ट नेता कामरेड गोविंद पानसरे और कन्नड़ भाषा के महान विद्वान प्रोफेसर कलबुर्गी जैसों को मार डाला- और फ़िलवक्त़ जिनकी विचारधारा की तूती बोल रही है, कभी उनको भी निशाना बना सकते हैं.
प्रोफेसर कलबुर्गी की हत्या के बाद हिंदुत्ववादी जमातों के करीबियों ने जो ‘हिट लिस्ट’ जारी की थी, जिसमें सबसे शीर्ष पर प्रोफेसर केएस भगवान का नाम था, उस सूची में वह भी शामिल थीं. एक कन्नड़ पेपर ‘करीजना’ (ब्लैक पीपुल) ने 12 सितम्बर 2015 के अपने अंक में कलबुर्गी की हत्या के बाद साफ बताया था कि गौरी लंकेश अब अगला निशाना हैं.
पत्रिका का कवर सूचक है जिसमें कलबुर्गी केंद्र में हैं, जिन पर पिस्तौल की निशानी बनी हुई है और केएस भगवान, योगेश मास्टर, गौरी लंकेश जैसों के चित्र हैं और अंग्रेज़ी में लिखा है ‘अगला कौन?’ (जिग्नेश मेवानी की फेसबुक पोस्ट)
उनकी कलम को ख़ामोश करने के लिए कर्नाटक की विभिन्न अदालतों में उनके ख़िलाफ़ अवमानना के 25 से अधिक मुक़दमे इन्हीं ताक़तों ने क़ायम किए थे, जिनमें से एक मुक़दमे में उन्हें अदालत ने सज़ा भी सुनाई थी.
प्रोफेसर कलबुर्गी की शहादत के बाद आयोजित सभा में उन्होंने इस ख़तरनाक समय का ज़िक्र करते हुए साफ रेखांकित किया था कि ऐसे वक्त़ में मौन विकल्प नहीं है, हमें लगातार बोलते रहना होगा और समाज को अंधेरे में ले जाने के लिए आमादा इन ताक़तों के ख़िलाफ़ अपनी आवाज़ लगातार बुलंद करनी होगी.
इसे मात्र संयोग नहीं कहा जा सकता कि उनकी हत्या में जो 7.65 मिलीमीटर देसी पिस्तौल इस्तेमाल हुआ है, उसी किस्म का हथियार प्रोफेसर एमएम कलबुर्गी की धारवाड़ में अपने घर में हुई हत्या में (30 अगस्त 2015), महाराष्ट के कम्युनिस्ट नेता कामरेड गोविन्द पानसरे की कोल्हापुर में हुई हत्या में (16 फरवरी 2015) और अंधश्रद्धा निर्मूलन समिति के नेता नरेन्द्र दाभोलकर की हत्या में (20 अगस्त 2013) में इस्तेमाल हुआ है.
‘अपराध विज्ञान के जांचकर्ताओं ने कलबुर्गी, पानसरे और दाभोलकर के अभी भी अनसुलझी हत्याओं में इस्तेमाल जिन कारतूसों और गोलियों की जांच की है, उसमें यही बात सामने आयी है कि कलबुर्गी की हत्या में प्रयुक्त 7.65 मिमी पिस्तौल वही हथियार था जिसका इस्तेमाल कामरेड पानसरे की हत्या में हुआ था. फोरेंसिक जांच में यह बात भी उजागर हुई थी कि कामरेड पानसरे की हत्या में प्रयुक्त दो हथियारों में से एक हथियार से दाभोलकर की 2013 में हत्या की गई.’ (इंडियन एक्सप्रेस)
यह अकारण नहीं कि गौरी लंकेश की छोटी बहन कविता ने साफ कहा कि उनकी बहन को दक्षिणपंथी उग्रवादियों ने ही मारा जिनके ख़िलाफ़ वह लगातार मोर्चा ले रही थीं. गौरी लंकेश के वकील बीटी वेंकटेश भी इस मामले में स्पष्ट हैं कि उनकी हत्या हिंदू आतंकी इकाइयों ने सुनियोजित ढंग से कीं.
‘हमें इस बात को साफ और स्पष्ट शब्दों में कहना चाहिए कि हिंदू आतंकी यूनिट्स ने गौरी लंकेश को मारा. उन्होंने राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ, भाजपा और इन हिंदुत्ववादी ताक़तों का लगातार विरोध किया और यह हत्या भी नफ़रत की उस राजनीति के ख़िलाफ़ उठी आवाज़ को ख़ामोश करना है. उनके ख़िलाफ़ दायर अवमानना मामलों से उसका कोई ताल्लुक नहीं था.’
हत्या के एक दिन बाद ‘द हूट’ से बात करते हुए उन्होंने कहा कि लंकेश के ख़िलाफ़ राज्य की तमाम अदालतों में कई मामले चल रहे थे. और मैं इनमें से कई मामलों में उनका वकील हूं. हुब्बली की अदालत में जारी मामला तो बहुत छोटा रहा है और हम लोगों ने 30 दिन के अंदर अपील की और उनको सुनाई गई सज़ा स्थगित कर दी गई.
‘यह एक बहुत पद्धतिबद्ध ढंग से संगठित और नियोजित हत्या थी जिसे प्रोफेसर कलबुर्गी की हत्या के तर्ज पर ही अंजाम दिया गया.’ उन्होंने कहा और साथ में यह भी जोड़ा कि हिंदुत्व आतंकी इकाइयों ने लोगों को भरती किया है और हत्याओं को अंजाम देने के लिए स्लीपर सेल्स का गठन किया है.
‘प्रोफेसर कलबुर्गी के ख़िलाफ़ भी 20 से अधिक अवमानना मामले चल रहे थे जब उनकी हत्या हुई.’
‘वह उनका रूटीन जानते थे- वह मंगलवार को अपना पेपर प्रकाशन के लिए भेज देगी और बुधवार को अपने फार्म पर जाएगी. हां, उन्हें धमकियां मिलती थीं मगर उन्हें 2004 से ही धमकियां मिल रही थीं, जब उन्होंने ईदगाह मैदान का मामला उठाया था और इस केस से उमा भारती के हटने का विरोध किया था, जिसका संबंध ईदगाह मैदान में राष्ट्रीय ध्वज फहराने के दौरान हुबली में हुई हिंसा से था’…
गौरी लंकेश, जो उनके ख़िलाफ़ दायर विभिन्न मामलों को लेकर कर्नाटक के अलग अलग इलाक़ों में जाती थीं, वह अदालती कार्रवाइयों से जनित प्रताड़ना को एक अवसर में बदल देती थीं, ‘हर सुनवाई उनके लिए अवसर होता था कि वह अदालत के बाहर अपनी सभा करती थीं और अपनी बात को स्पष्टवादिता के साथ खुल कर अपनी बात रखती थीं.’
सोशल मीडिया पर उन चंद लोगों की प्रतिक्रियाएं छपी हैं, जिन्होंने एक तरह से इस मौत को ‘सेलिब्रेट’ किया है गौरतलब है कि इनमें से कई ऐसे लोग भी हैं जिन्हें प्रधानमंत्री मोदी टि्वटर पर फाॅलो भी करते हैं.
जहां यह प्रतिक्रियाएं और उसे ‘लाइक’ करने वाले लोग भारतीय समाज के विषाक्त होते विमर्श की ताईद कर रहे हैं, वहीं वह हुकूमत की बागडोर संभाले लोगों की चिंतनप्रक्रिया में झांकने का भी मौक़ा देते हैं कि उनकी ज़ेहनियत किस क़िस्म की है.
यह बिल्कुल ठीक ही कहा जा रहा है कि गौरी लंकेश की हत्या को एक पेशेवर आतंकी मॉड्यूल ने अंजाम दिया है, मगर इस प्रसंग ने यही उजागर किया है कि हत्यारे चारों तरफ फैल गए हैं और वह असहमति की हर आवाज़ को कुचल देना चाहते थे.
विचारों से आतंकित यह लोग अब आमादा हैं कि वह शब्दों के ख़िलाफ़ कुल्हाड़ी उठाएंगे और बंदूक भी चलाएंगे.
3
तर्क और विचारों से कौन डरता है?
पहले नरेंद्र दाभोलकर, फिर कामरेड पानसरे, फिर प्रोफेसर कलबुर्गी और अब गौरी लंकेश. विगत चार साल के अंतराल में हम लोगों ने मुल्क की चार अज़ीम शख़्सियतों को खोया है. गौरतलब है कि सिलसिला यहीं रुका नहीं है. कइयों को धमकियां मिली हैं.
ऐसा समां बनाया जा रहा है कि कोई आवाज़ भी न उठाए, उनके फरमानों को चुपचाप कबूल करे. दक्षिण एशिया के महान शायर फैज़ अहमद फैज़ ने शायद ऐसे ही दौर को अपनी नज्म़ में बयां किया था.
‘निसार मैं तेरी गलियों पे ऐ वतन, के जहां
चली है रस्म के कोई न सर उठा के चले..’
प्रश्न उठता है कि आख़िर तर्क और विचार से इस क़दर नफ़रत क्यों दिख रही है? कौन हैं वो लोग, कौन हैं वो ताक़तें जो विचारों से डरती हैं, तर्क करने से ख़ौफ़ खाती हैं? शब्द, विचार दरअसल हर किस्म के, हर रंग के कठमुल्लों को बहुत डराते हैं.
यह महज संभावना कि तमाम बंधनों, वर्जिशों से आज़ाद मन ‘पवित्र किताबों’ के ज़रिये आस्थावानों तक पहुंचे ‘अंतिम सत्य’ को प्रश्नांकित कर सकता है, चुनौती दे सकता है या अंततः उलट दे सकता है, यही बात उन्हें बेहद आतंकित करती है और वे इसके प्रति एकमात्र उसी तरीक़े से प्रतिक्रिया व्यक्त करते हैं, जिससे वह परिचित होते हैं. वे विचारों के ख़िलाफ़ कुल्हाडियां उठाते हैं या रामपुरी छुरों या पिस्तौलों के ज़रिये मुक्त आवाज़ों को ख़ामोश कर देते हैं, और अपनी इन मानवद्रोही हरकतों के लिए उन्हीं किताबों’ से स्वीकार्यता ढूंढ लेते हैं.
यह भी सोचने का सवाल है कि कौन सी राजनीतिक सामाजिक प्रक्रियाओं को चिन्हित किया जा सकता है कि विचारों को दुबक कर बैठना पड़ रहा है. समुदाय की राजनीति का मसला है ही, जो व्यक्तिगत से लेकर सामाजिक मामलों में बहस मुबाहिसा, आपसी बातचीत एवं संवाद की गुंज़ाइश कम कर देती है. और भी कई सारे पहलू हैं, मिसाल के तौर पर धर्म और सियासत के सम्मिश्रण की जो राजनीति हावी हो चली है, जिसने ‘हम’ और ‘वे’ की बहस को इस कदर आगे बढ़ाया है कि गणतंत्र हिंदुस्तान में उभरी ‘सरहदों’ का सवाल हमारे सामने नमूदार हुआ है. और सिर्फ़ हिंसा के उस प्रगट दौर में ही नहीं बल्कि स्थगित हिंसा के लंबे दौर में, जब लोग जीवन की सुरक्षा का हवाला देते हुए अपने-अपने ‘घेट्टो’ में पहुंच रहे हैं.
यहां की सरहदें तो महज भौतिक नहीं हैं, वे तो मानसिक भी हैं, समाजी-सियासी-सांस्कृतिक इतिहास द्वारा गढ़ी भी गई हैं, जहां हम पा रहे हैं कि मुल्क के अंदर नई ‘सरहदों’ का, नये ‘बाॅर्डरों’ का निर्माण होता दिख रहा है.
धार्मिक पहचानों के इर्दगिर्द निर्मित इन सरहदों से हम अधिक बावस्ता होते हैं, अलबत्ता इसका स्वरूप बहुआयामी है. अंग्रेज़ों के ज़माने में जिस तरह कुछ विद्रोही/बग़ावती समुदायों को ‘क्रिमिनल ट्राइब्स/आपराधिक समुदाय’ का दर्जा देकर तमाम मानवी अधिकारों से वंचित किया गया था, आज उसी का एक सुधरा संस्करण हम देख रहे हैं; जहां ग़रीब होना, साधनविहीन होना, अवर्ण कहे जाने वाले समुदायों में पैदा होना, यवन-म्लैच्छ कहे गए धर्मों से ताल्लुक रखना, अपने आप में एक ‘अपराध’ घोषित किया जा रहा है, जिसके लिए जेल की सलाखों से लेकर आक्रांता समूहों के हाथों ज़िंदा आग के हवाले हो जाने जैसे तमाम ‘विकल्प’ खुले हैं.
गौरतलब है कि वे घटनाएं- जब इलाक़े या सूबे के पैमाने पर या कहीं और व्यापक घेरे में- जो अपनी रक्तरंजित निशानियां आने वाली पीढ़ियों के लिए छोड़ देती हैं, जब अंतरसांप्रदायिक विवाद कहीं कहीं ख़तरे के निशान पार करते आगे जाते दिखते हैं, उनका एक पैटर्न सा बन गया है.
कहीं एक झगड़ा या झगड़े की अफ़वाह, जिसमें दोनों पक्ष अलग-अलग समुदायों के हों, और फिर इस असली या नकली झगड़े की प्रतिक्रिया में ‘स्वतःस्फूर्तता’ के आवरण में संगठित हिंसा के सिलसिले का आयोजन, पुलिस प्रशासन का ढुलमुल रवैया, मीडिया के बड़े हिस्से का ‘बहुसंख्यकीकरण’. और फिर इंसाफ़ के मसले को ठंडे बस्ते में डालते हुए शांति की स्थापना. कह सकते हैं मरघट की शांति का कायम होना.
जैसा माहौल बन रहा है कि उसे देखते हुए यही पूछने का मन करता है कि एक ऐसे समाज के बारे में क्या कहेंगे जहां लेखकों को बंदूक की गोलियों से टकराना पड़ता है और निहत्थों के मौत पर जश्न मनाया जाता है, शायद यह ऐसा समाज है जो अपनी ‘आध्यात्मिक मौत’ की तरफ़ बढ़ रहा है या ऐसा समाज जो अंधेरे की गर्त में अपना भविष्य देख रहा है.
चाहे प्रोफेसर कलबुर्गी हों, कामरेड पानसरे हों या डॉ नरेंद्र दाभोलकर हों, या गौरी लंकेश हों, चारों के झंझावाती जीवन में एक समानता यह रही है कि उन्हें सांप्रदायिक ताक़तों की तरफ से, जनद्रोही शक्तियों की तरफ से- ऐसे लोग जो लोगों के दिमागों पर ताले रखना चाहते हैं- लगातार धमकियां मिलती रहीं हैं.
गौरतलब है कि चारों की हत्याओं का तरीक़ा एक ही रहा है, मोटरसाइकिल पर सवार हमलावर और एक का गोली चलाना. और कम से कम दाभोलकर, पानसरे या कलबुर्गी हों, इनके बारे में यह बात भी विदित है कि उनकी जान को जोख़िम में देख कर पुलिस की तरफ से उन्हें सुरक्षा लेने की बात कही गई थी.
दाभोलकर और पानसरे ने सुरक्षा लेने से साफ इन्कार किया और प्रोफेसर कलबुर्गी ने भले ही कुछ समय तक के लिए पुलिस सुरक्षा ली, मगर बाद में उसे यह कहते हुए लौटा दी थी कि विचारों की रक्षा के लिए संगीनों एवं बायनेटों की ज़रूरत नहीं होती है. उनका दावा था कि उनके विचारों में इतना ताप है कि उनके न रहने के बाद भी उसकी लौ तमाम चिरागों को रौशन करती रहेगी.
4
आख़िर हम इस मुक़ाम तक पहुंचे कैसे?
प्रश्न उठता है कि आख़िर हम इस मुक़ाम तक पहुंचे कैसे, जहां असहमति रखने वाले को ‘देशद्रोही’ की श्रेणी में शुमार कर दिया जाए या दक्षिणपंथी गिरोहों के लिए ‘वध’ का आसान निशाना बना दिया जाए.
आज से लगभग सत्तर साल पहले जब नवस्वाधीन भारत धर्मनिरपेक्ष जनतंत्र के निर्माण की दिशा में आगे बढ़ा था, वह एक ऐसा वक्त़ था जब भारतीय जनता का बहुलांश अशिक्षित था, वहीं आज जबकि पढ़े लिखे लोगों की तादाद देश की कुल आबादी में बहुसंख्या के तौर पर उपस्थित है, और यह पढ़ी लिखी जनता अनुदारवाद की हिमायत करती दिख रही है, देश को आगे धर्म की बुनियाद पर, धर्म एवं राजनीति के बीच मौजूद विभाजन को समाप्त करने की दिशा में आगे बढ़ रही है.
क्या यह सोचने का सवाल नहीं कि ऐसे लोग, ऐसी ताक़तें मुल्क़ के मुस्तक़बिल, इस देश के भविष्य को तय करने के हालात में कैसे पहुंच सकीं, जिनके पुरखों ने आज़ादी के आंदोलन के दिनों में बर्तानवी ताक़तों के ख़िलाफ़ संघर्षों से दूरी बनाए रखी थी, उल्टे जनता की व्यापक एकता को कमज़ोर करने की कोशिश लगातार की थी.
बंटवारे के बाद जब भारत की सरहद के अंदर सांप्रदायिक ताक़तें सर उठा रही थीं, तब धर्मनिरपेक्षता के हिमायती नेहरू बार बार आगाह करते थे कि ऐसी ताक़तें भारत को एक ‘हिंदू पाकिस्तान’ बनाने का इरादा रखती हैं.
स्थितियां ऐसी बन रही हैं या बनाई जा रही हैं कि पाकिस्तान का वर्तमान अब भारत का भविष्य नज़र आने लगा है.
‘डेली टाइम्स’ के अपने आलेख में कुछ समय पहले मशहूर पत्रकार बाबर अयाज ने मूनीस अहमद की किताब ‘कॉन्फ्ल्क्टि मैनेजमेंड एंड विजन फाॅर ए सेक्युलर पाकिस्तान’ की समीक्षा के बहाने इस मसले पर विस्तत रौशनी डाली थी.
मूनीस के मुताबिक अपने गठन के बाद पाकिस्तान के सामने तीन तरह की चुनौती थी. सांस्कतिक, धार्मिक और नस्लीय आधार पर विविधताओं से बने पाकिस्तान की जनता को एक पहचान प्रदान करने के लिए उचित परिस्थिति का निर्माण करना, जिस रास्ते में नवोदित राष्ट्र के लिए चुनौतियां इस वजह से अधिक थीं कि भाषा, संस्कति एवं संप्रदाय के आधार पर लोग बंटे थे.
इस्लाम को वरीयता दें- जो पाकिस्तान आंदोलन के कर्णधारों का प्रमुख आधार था- या राज्य की नस्लीय और धार्मिक विविधता को अहमियत दें, यह मसला अनसुलझा था. जैसा कि बाद के अनुभवों से स्पष्ट है कि इस स्थिति का इस्लामिस्टों ने बख़ूबी फ़ायदा उठाया और राज्य के संविधान एवं क़ानून निर्माण को प्रभावित किया.
आज़ादी के बाद भारत ने सेक्युलर आधार पर स्वाधीन भारत के निर्माण का संकल्प लिया था और धर्म एवं राजनीति को आपस में सम्मिश्रण करने वाली ताक़तों को हाशिये पर रखने की कोशिश की थी.
निश्चित तौर पर आज़ादी के बाद कई दशकों तक राजनीति पर इन्हीं ताक़तों का बोलबाला था, आज निश्चित ही यह दृश्य बदल गया है. आज ऐसी ताक़तें सत्ता की बागडोर संभाल रही हैं, जो उसूलन मानती हैं कि धर्म एवं राजनीति का सम्मिश्रण किया जाना चाहिए.
क्या इसका अर्थ यह निकाला जाए कि भारत अपने ‘चिरवैरी’ के नक़्शेक़दम चल पड़ा है? मशहूर पाकिस्तानी कवयित्री फ़हमीदा रियाज़ की वह कविता इस पृष्ठभूमि पर बहुत मौजूं जान पड़ती है.
तुम बिल्कुल हम जैसे निकले, अब तक कहां छुपे थे भाई?
वही मूर्खता, वह घामड़पन, जिसमें हमने सदी गंवाई.
आख़िर पहुंची द्वार तुम्हारे, अरे बधाई, बहुत बधाई…