क़ानून-व्यवस्था का संभावित उल्लंघन हिरासत में रखने का आधार नहीं हो सकता है: सुप्रीम कोर्ट

तेलंगाना के एक निवासी के मामले की सुनवाई के दौरान शीर्ष अदालत ने कहा कि 'क़ानून और व्यवस्था', 'सार्वजनिक व्यवस्था' और 'राज्य की सुरक्षा' एक दूसरे से अलग होते हैं.

(फोटो: द वायर)

तेलंगाना के एक निवासी के मामले की सुनवाई के दौरान शीर्ष अदालत ने कहा कि ‘क़ानून और व्यवस्था’, ‘सार्वजनिक व्यवस्था’ और ‘राज्य की सुरक्षा’ एक दूसरे से अलग होते हैं.

(फोटो: द वायर)

नई दिल्ली: सुप्रीम कोर्ट ने कहा है कि ‘कानून और व्यवस्था’, ‘सार्वजनिक व्यवस्था’ और ‘राज्य की सुरक्षा’ का मतलब अलग-अलग होता है, इसलिए कानून एवं व्यवस्था के संभावित उल्लंघन के आधार पर नजरबंदी कानूनों का इस्तेमाल कर व्यक्ति को गिरफ्तार नहीं किया जा सकता है.

लाइव लॉ के मुताबिक, जस्टिस आरएफ नरीमन और जस्टिस हृषिकेश रॉय की पीठ ने कहा कि धोखाधड़ी या आपराधिक विश्वासघात जैसे कार्य ‘कानून और व्यवस्था’ को प्रभावित कर सकते हैं, लेकिन इस आधार पर यह नहीं कहा जा सकता है कि इसने ‘सार्वजनिक व्यवस्था’ को भी प्रभावित किया है. सार्वजनिक व्यवस्था प्रभावित होने के लिए ‘सार्वजनिक अव्यवस्था’ होनी चाहिए, जो किसी समुदाय या बड़े पैमाने पर जनता को प्रभावित करती हो.

अदालत बांका रविकांत नामक व्यक्ति की पत्नी बांका स्नेहा शीला द्वारा दायर एक याचिका पर सुनवाई कर रही थी, जो सितंबर 2020 में साइबराबाद पुलिस आयुक्त के आदेश पर तेलंगाना खतरनाक गतिविधि रोकथाम अधिनियम 1986 के तहत हिरासत में है.

पुलिस ने उन पर भारतीय दंड संहिता की धारा 420, 406 और 506 के तहत धोखाधड़ी, आपराधिक विश्वासघात और आपराधिक धमकी का आरोप लगाया है.

रविकांत की हिरासत को गलत पाते हुए दो जजों की पीठ ने 34 वर्षीय तेलंगाना निवासी को तत्काल रिहा करने का आदेश दिया, जो 10 महीने से हिरासत में हैं. ऐसा करके शीर्ष अदालत ने तेलंगाना उच्च न्यायालय के उस फैसले को पलट दिया है जिसने पहले हिरासत के आदेश को बरकरार रखा था.

याचिकाकर्ता ने उल्लेख किया कि उनके पति को हिरासत में लेने का आदेश तब दिया गया था जब उन्होंने उन मामलों में सफलतापूर्वक अग्रिम जमानत हासिल कर ली थी जिनमें वह आरोपी थे.

कोर्ट ने कहा, ‘हिरासत में रखने का आदेश केवल तभी पारित किया जा सकता है जब उनकी (रविकांत) गतिविधियां सार्वजनिक व्यवस्था को हानि पहुंचाने की संभावना रखती हों.’

तेलंगाना खतरनाक गतिविधि रोकथाम अधिनियम की धारा 2 (ए) के स्पष्टीकरण का हवाला देते हुए न्यायाधीशों ने कहा कि सार्वजनिक व्यवस्था को ‘जनमानस में व्यापक स्तर पर नुकसान या खतरा होने की भावना’ के रूप में परिभाषित किया गया है.

कोर्ट ने स्पष्ट रूप से कहा कि ‘कानून और व्यवस्था’, ‘सार्वजनिक व्यवस्था’ और ‘राज्य की सुरक्षा’ एक दूसरे से अलग होते हैं.

अदालत ने तेलंगाना पुलिस के इस दलील को खारिज कर दिया कि रविकांत को हिरासत में लेने का आदेश इसलिए दिया गया था क्योंकि इस बात की पूरी संभावना थी कि वह इसी तरह का अपराध करेंगे, जिससे ‘सार्वजनिक व्यवस्था’ प्रभावित होगी.

पीठ ने कहा, ‘डिटेंशन ऑर्डर को बारीकी से पढ़ने से यह स्पष्ट हो जाता है कि उक्त आदेश का कारण व्यापक सार्वजनिक नुकसान की आशंका नहीं है, बल्कि ऐसा केवल इसलिए किया गया क्योंकि हिरासत में बंद व्यक्ति ने प्रत्येक मामले में न्यायालयों से अग्रिम जमानत/जमानत प्राप्त कर लिया था.’

यह मानते हुए कि नजरबंदी केवल सार्वजनिक अव्यवस्था को रोकने के लिए आवश्यक है, कोर्ट ने कहा कि अदालत ‘सार्वजनिक व्यवस्था’ का संकीर्ण रुख नहीं अपना सकती है, क्योंकि यह संविधान के तहत अनुच्छेद 21 (जीवन का अधिकार) के तहत गारंटीकृत नागरिक की स्वतंत्रता का उल्लंघन है.