दिल्ली पुलिस द्वारा पति की गिरफ़्तारी के बाद एक महिला के जीवन का हाल.
नई दिल्ली: सुबह थोड़ी हड़बड़ाहट होती है. तीन बच्चों को जगाना, उन्हें ऑनलाइन क्लास के लिए बैठाना, हर एक के बैठने की जगह तय करना और यह सुनिश्चित करना कि वे वीडियो गेम खेलना शुरू न करें, पढ़ते वक़्त झपकी न लेने लगें, आपस में झगड़ा न करें. यह सब कुछ ज्यादा हो जाता है, जब आप पिछले 17 महीनों से अकेले घर-बच्चे संभाल रहे हों.
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यह उनकी शादी का चौदहवां साल है. जब 2007 में शादी का प्रस्ताव आया, तो वो दोनों कम से कम एक बार निजी तौर पर मिलना चाहते थे . ज़्यादातर पारंपरिक विवाहों में अलग से अकेले मिल पाना काम ही होता है.
उन्हें मध्य दिल्ली के कनॉट प्लेस में हाल ही में खुले पिज्जा हट आउटलेट में मिलना था. वे 20 बरस की थीं, दिल्ली विश्वविद्यालय की स्नातक प्रथम वर्ष की छात्रा थी. वो 25 साल के थे और सिम्बायोसिस इंस्टिट्यूट, पुणे से पोस्ट ग्रेजुएशन कर चुके थे. वो मेट्रो से पहुंची थी और वो गाड़ी से आए थे.
वे कहती हैं, ‘मैंने जिन अन्य पुरुषों को देखा था, उनके विपरीत वे न तो लापरवाह था और न ही बहुत गंभीर. समझदार, परिपक्व लेकिन मज़ाकिया भी. उसने हमारे दोनों पिज़्ज़ा से मिर्च इकट्ठी की और मुझसे खाने को कहा. सोचिये ज़रा!’
यहां तक कि उन्होंने खाने का बिल भी इन्हीं से दिलवाया. उन्होंने अब तक ज़्यादातर पुरुषों को ही हर चीज़ का बिल भरते देखा था. ऐसा आदमी जिससे आप शादी करने वाले हो, आपसे बिल दिलाये, यह अप्रत्याशित था. वे याद करते हुए कहती हैं, ‘लेकिन मुझे यह पसंद आया. मैंने खुद को बराबर महसूस किया, जैसे मेरे हाथ में भी कंट्रोल है.’
कुछ ही महीनों में उन्होंने शादी कर ली. यह एक पारंपरिक लेकिन एक खुशहाल जीवन था. अगले कुछ साल तीन बच्चों की देखभाल करने में बीत गए, सबसे छोटा बच्चा बहुत बाद में आया क्योंकि वे दोनों एक बेटी की चाहत रखते थे.
उन्होंने शुरू में अपने पिता के फर्नीचर व्यवसाय में काम किया. वे कहती हैं, ‘लेकिन वे अपने काम में बहुत प्रेरित नहीं थे. बाद में उन्होंने एक ट्रैवल कंपनी शुरू की, जो तीर्थयात्रायें करवाती थी. लेकिन काम के अलावा वो हमेशा दूसरे कामों में लगे रहते थे. अगर नालियां बंद हो जाती, सीवर लाइन ओवरफ्लो हो जाती, तो वे उन्हें साफ करवाने के लिए दौड़ना शुरू कर देते.’
वे कहती हैं, ‘मैं परेशान हो जाती थी. हम तीसरी मंज़िल पर रहते हैं. यह हमें प्रभावित भी नहीं कर रहा है. तुम्हे ऐसा करने की जरूरत क्यों है?’
वे 2011-2012 में इंडिया अगेंस्ट करप्शन आंदोलन के भ्रष्टाचार विरोधी प्रदर्शनों में शामिल हो गए. 2012 में जब आम आदमी पार्टी का गठन हुआ, तो उन्हें इस नई पार्टी की संभावनाओं पर पूरा भरोसा था. वे याद करती हैं, ‘हर चुनाव में, कोई व्यस्त नेताजी आकर हमें हाथी, पतंग, चम्मच, वगैरह के लिए वोट करने के लिए कहते थे. लेकिन उनके पास नाला साफ करने का समय नहीं था.’
बेरोजगारी, असफल बुनियादी ढांचे और बेकार चुनाव अभियानों से तंग आकर उन्होंने कुछ वर्षों तक पार्टी के लिए काम किया. घर में उनका समझौता हुआ था. उससे यह नहीं पूछा जाएगा कि वे पूरे हफ्ते क्या करते हैं. वे देर रात, कभी 1 बजे-2 बजे तक आते थे. वो कई दिनों तक एक साथ खाना भी नहीं खाते थे. लेकिन सप्ताह में एक दिन बचा हुआ था और सिर्फ उनके नाम था. बच्चे अभी भी इसे #FridayMasti कहते हैं और उनका सोशल मीडिया उन यादों से भरा हुआ है- मॉल, वाटरपार्क, सार्वजनिक पार्क या सिर्फ ड्राइव.
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22 जून, 2017 को 15 वर्षीय जुनैद खान मथुरा जाने वाली ट्रेन में फरीदाबाद वापस घर जा रहा था. ईद बस कुछ ही दिन दूर थी. उसने नए कपड़े, जूते आदि खरीदे थे. सीटों को लेकर हुए विवाद के बाद युवकों के एक समूह ने उसकी चाकू मारकर हत्या कर दी. उन्होंने कथित तौर पर लड़कों का मज़ाक उड़ाया, उनकी दाढ़ी खींची और उन पर गोमांस खाने का आरोप लगाया. उन्होंने उन्हें फरीदाबाद के एक स्टेशन पर ट्रेन से बाहर फेंक दिया, जहां उसकी मौत हो गई.
अब तक भारत में गोरक्षा की आड़ में मुस्लिम अल्पसंख्यकों को निशाना बनाकर की जाने वाले घृणा अपराधों और लिंचिंग के दो खूनी वर्ष हो चुके थे. कट्टरपंथियों को सरकार के समर्थन से प्रोत्साहित किया गया था और उन्हें पूरी तरह से सजा से छूट मिली हुई थी. लेकिन जुनैद की लिंचिंग ने सभी के बुरे सपनों को जीवंत कर दिया- आपको सिर्फ इसलिए मारा जा सकता है क्योंकि आप एक विशेष समुदाय से हैं .
इसके बाद 28 जून, 2017 को बहुसंख्यक समुदाय के हितों की रक्षा के नाम पर निशाना बनाकर की जा रही हत्याओं की निंदा करने के लिए पूरे देश में ‘नॉट इन माई नेम‘ नामक एक विरोध प्रदर्शन आयोजित किया गया था.
वो भी परेशान थे और दिल्ली में नॉट इन माई नेम वाले प्रदर्शन स्थल जंतर मंतर पर पहुंच गए.
यह पहला मौका है जब उन्हें पुलिस ने हिरासत में लिया था. वे कहती हैं, ‘मैं उन्हें गिरफ्तार किए जाने के बात से ही घबरा गई थी.’ तब उन्हें पहली बार हिरासत और गिरफ्तारी के बीच फर्क का पता चला.
उस दिन उनके साथ कुछ और लोगों को भी हिरासत में लिया गया था. कुछ दिनों बाद उन सब लोगों ने मिलकर यूनाइटेड अगेंस्ट हेट (यूएएच) नामक एक समूह का गठन किया.
यूएएच मुसलमानों, आदिवासी, ईसाइयों, यहां तक कि श्रीलंकाई ईसाइयों के लिए भी लगातार विरोध प्रदर्शन करता रहा. उन्होंने केरल की बाढ़ और फिलिस्तीन के लोगों के लिए एकजुटता कार्यक्रम आयोजित किए. उन्होंने ननकाना साहिब पर हमले की निंदा की और फर्जी मुठभेड़ मामलों के लिए सार्वजनिक न्यायाधिकरण भी आयोजित किए.
उन्होंने पत्रकारों, शोधकर्ताओं, कार्यकर्ताओं के साथ मिलकर पूरे भारत में फैक्ट-फाइंडिंग मिशन भेजे. असम में नागरिकों के राष्ट्रीय रजिस्टर पर, उत्तर प्रदेश के कासगंज, बहराइच और बुलंदशहर में हिंसा जैसे मामलों पर फैक्ट-फाइंडिंग की. यहां तक की वे प्रेस की स्वतंत्रता के लिए विरोध भी करते थे और प्रशांत कनौजिया जैसे पत्रकारों के जेल से छुड़ाने में भी आगे थे.
एक नई दुनिया खुल गई थी जो सड़क पर बंद नालियों और गड्ढों से परे थी .वे कहती हैं, ‘ऐसा लग रहा था कि उन्हें आखिरकार उन्हें अपना रास्ता मिल गया है.’
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डेढ़ साल के भीतर 15 जुलाई, 2019 को यूएएच ने घृणा अपराधों के खिलाफ एक हेल्पलाइन शुरू की. यह हेल्पलाइन घृणा अपराधों का सामना कर रहे लोगों को त्वरित प्रतिक्रिया, कानूनी सहायता और वकालत की सुविधा देने वाली थी.
यूएएच की टीम छोटी थी और उन्होंने पहले से कहीं अधिक काम लेना शुरू कर दिया था. वे कभी-कभी घर पर हेल्पलाइन नंबर वाला फोन छोड़ देते थे और उन्हें हर कॉल पर ध्यान देने के लिए कहते.
उन्होंने आपातकालीन सहायता के लिए विभिन्न क्षेत्रों में स्थानीय लोगों के संपर्क नंबर दिए. वो करतीं, ‘वो सब तो ठीक था मगर उन्हें लगता था कि तर्क, इंसानियत को क्या हो गया है.’
एक दिन झारखंड के सुदूर इलाके से एक फोन करने वाले ने कहा कि एक आदमी को पेड़ से बांध दिया गया है और उन्हें लिंचिंग का शक है. उन्होंने फोन करने वालों को फटकार लगाई.
उन्होंने कहा, ‘बढ़िया है कि आप कॉल कर रहे हैं, लेकिन क्या आप वास्तव में किसी को अपनी आंखों के सामने लिंचिंग करते हुए देख सकते हैं और फोन कॉल करने के अलावा कुछ नहीं करते हैं? कुछ लोगों को इकट्ठा करो और उन्हें रोको. हम तुरंत कुछ स्थानीय मदद भेजेंगे लेकिन तब तक जाकर उन्हें बचा लीजिए.’ और उस दिन, वे व्यक्ति सचमुच बचा लिया गया था.
उन्होंने बताया कि लोगों ने यह पूछने के लिए फोन भी किया, ‘क्या आप केवल मुसलमानों को बचाते हैं?’ मैंने उनमें से एक से पूछा, ‘क्या आपको याद है कि दिसंबर 2018 में बुलंदशहर में कौन मारा गया था?
बुलंदशहर जिले में दिसंबर 2018 में दो व्यक्तियों – इंस्पेक्टर सुबोध कुमार सिंह और एक प्रदर्शनकारी सुमित- की वहां हुई हिंसा की घटना में गोली मारकर हत्या कर दी गई थी, जिसमें एक पुलिस चौकी पर हथियारों का इस्तेमाल, भारी पथराव और आगजनी शामिल थी.
कट्टरपंथियों ने आरोप लगाया था कि शहर के एक हिस्से में गायों का वध किया जा रहा है. उन्होंने पुलिस अधिकारियों को हिंदू विरोधी बताया था. पुलिस अधिकारियों में से एक सुबोध कुमार सिंह दादरी लिंचिंग मामले की भी जांच कर रहे थे, जहां सितंबर 2015 में गोमांस खाने के संदेह में 50 वर्षीय अखलाक की पीट-पीटकर हत्या कर दी गई थी.
सुबोध के परिवार का आरोप है कि इसी के चलते उनकी हत्या की गई है. यूएएच मृतक के परिवार के साथ एकजुटता व्यक्त करने के लिए एक प्रतिनिधिमंडल को बुलंदशहर ले गया था.
वे कहती हैं, ‘लेकिन मैंने उन्हें यह भी बताया कि यह वास्तव में सच है कि अल्पसंख्यक और दलित वर्तमान भारत में घृणा अपराधों के प्रति अधिक संवेदनशील हैं. शोषित और प्रभावशाली तबकों में झूठी समानता नहीं होनी चाहिए.’
अभी तक उनका सामाजिक जीवन रसोई तक ही सीमित था- बड़ी संख्या में मेहमानों के लिए चाय-नाश्ता बनाकर बाहर के कमरे में भेजते रहना. वे कहती हैं, ‘मैं ज्यादातर लोगों को नहीं जानती थी और जानने की कभी ज़हमत भी नहीं उठाई.’
फोन पर अजनबियों से बात करने वाली महिलाओं को भारत में लंबे समय से भला-बुरा कहा गया है, लेकिन यह गुमनामी ही थी जिसने उन्हें बहस करने, सलाह देने, मदद करने, सुनने और उन क्षेत्रों को समझने का विश्वास पैदा कर दिया था, जो उन्हें लगता था कि उनके नहीं है – सार्वजनिक, सामाजिक, राजनीतिक.
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अब उन्होंने घर पर समय बिताना बंद कर दिया था. वे लंबे समय तक बाहर रहते थे, रविवार को भी घर पर नहीं हुआ करते थे. वे आगे कहती हैं कि उन्हें हल्के में लिया जा रहा था, ‘जैसा कि महिलाओं के साथ हमेशा होता है.’
महिलाएं शादी के बाद शायद ही पुरानी दोस्ती को बनाए रख पाती हैं. शादी के बाद उनका घर बदल जाता है और अपने दोस्तों के संपर्क से बाहर हो जाती हैं. वे बताती हैं, ‘जब से मेरी शादी हुई है, वे ही मेरे एकमात्र दोस्त हैं. हम घंटों बातें कर सकते हैं. मुझे इसकी कमी महसूस होने लगी थी.’
12 दिसंबर 2019 को जब नागरिकता संशोधन कानून (सीएए) पारित हुआ तो वे परेशान हो गए. साथी प्रदर्शनकारियों के साथ पुलिस बैरिकेड्स का सामना करते हुए वे विरोध स्थलों पर नियमित रूप से जाने लगे.
वो बताती हैं, ‘ईमानदारी से मैं उनके साथ अधिक समय बिताने के लिए सभी विरोध प्रदर्शनों में साथ जाने लगी, इस बात से बेखबर कि यह आगे के लिए मेरी तैयारी हो रही है.’
नागरिकता संशोधन अधिनियम ने विशेष रूप से मुसलमानों को भारत में शरण लेने से बाहर रखा है. इसके बाद राष्ट्रीय नागरिक रजिस्टर आने के अनुमान थे, जिसके द्वारा उन लोगों को फ़िल्टर किया जा रहा था जो लिखित दस्तावेज प्रमाण प्रस्तुत नहीं कर सके कि उनके पूर्वज भारत में रहते थे.
वे बताती है, ‘मैंने उनसे कहा कि आप दिल्ली में पैदा हुए हो. मेरा जन्म दिल्ली में हुआ था. हमारे बच्चे भी दिल्ली में पैदा हुए. आप इन सब में क्यों उलझ रहे हो?’
तब उन्होंने उन्हें हाशिए पर रहने वाले, गरीबों के लिए सीएए और एनआरसी के प्रभावों के बारे में बताया. उसने यूएएच असम की फैक्ट-फाइंडिंग रिपोर्ट का हवाला दिया जिसमें पता चला कि कितने लाख लोगों को ‘अवैध नागरिक’ घोषित किया गया और उन्हें हिरासत केंद्रों में भेज दिया गया.
फिर 19 दिसंबर 2019 को पहली बार पुलिस ने उन्हें भी एक विरोध स्थल से हिरासत में लिया. उस दिन उन्हें अपने भरे-पूरे खानदान के सदस्यों से एक गैर-जिम्मेदार मां होने के लिए फटकार लगाने वाले कई फोन आए. वे कहती हैं, ‘मैंने उनसे कहा कि मैं अपने बच्चों के अधिकारों के लिए भी विरोध कर रही हूं. और बेघर लोगों के अधिकारों के लिए, मेरे घरेलू कामगार और जिनके पास कोई दस्तावेज नहीं है क्योंकि वे हर दिन जीवित रहने के संघर्ष में फंस गए हैं.’
अभी तक वे फोन पर अपने मन की बात अजनबियों से बोलती थीं. अब परिवार से अपने मन की बात कहने लगीं- जो इस दुनिया में काफी मुश्किल काम है.
वे पूर्वी दिल्ली के खुरेजी में सीएए के प्रदर्शन स्थल के सह-आयोजकों में से एक बन गए, जिसे सीएए पारित होने के एक महीने बाद जनवरी 2020 में शुरू किया गया था. यह दक्षिण दिल्ली के शाहीन बाग तरह के एक प्रदर्शन से प्रेरित था जिसने राष्ट्रीय स्तर पर ध्यान आकर्षित किया था.
खुरेजी के प्रदर्शनकारी पटपड़गंज रोड पर एक पंप के सामने छतों और टेंटों के बीच बैठ गए. महिलाएं शाम को घर का काम खत्म करके आती थीं. यह जल्द ही एक लोकप्रिय प्रदर्शन स्थल बन गया, जहां दूर-दूर से लोग एकजुटता दिखाने के लिए आते थे. वे भी एक नियमित प्रतिभागी थीं, जो अक्सर मुख्य सड़क से विरोध स्थल तक महिलाओं का मार्च निकालती थीं.
एक महीने बाद 23 फरवरी, 2020 को जाफराबाद में एक अन्य सीएए विरोधी प्रदर्शन स्थल के पास पूर्वोत्तर दिल्ली में दंगे भड़क उठे. उस दिन वो आए और प्रार्थना करके सो गए. वे काफी परेशान नजर आ रहे थे.
वे कहती हैं, ‘हमारी दुनिया में पुरुषों को अपनी चुनौतियों, संघर्षों, समस्याओं, भावनाओं को अपने परिवारों के साथ साझा करने के लिए प्रशिक्षित नहीं किया जाता है. हर समय वे किसी न किसी हैं.’
उन्हें पता नहीं था कि वे सिर्फ इसलिए परेशान नहीं थे क्योंकि घर के इतने करीब दंगों में इतने लोगों की जान चली गई थी. धरना स्थल को खाली करने के लिए पुलिस के दबाव से भी वो चिंतित थे.
तीन दिन बाद 26 फरवरी, 2020 को पुलिस आई और खुरेजी धरनास्थल को तोड़ना शुरू कर दिया और प्रदर्शनकारियों को तितर-बितर कर दिया. प्रदर्शनकारियों को वापस आने से रोकने के लिए उन्होंने बैरिकेड्स लगा दिए.
उन्होंने सुना कि उन्हें भी पुलिस से उठा लिया है . किसी ने उन्हें एक वीडियो भेजा जिसमें वे पुलिस की ओर शांति से चलते हुए दिखाई दे रहा था. उन्होंने कहा, ‘हिरासत में लिया गया होगा . शाम तक वापस आ जाएंगे.’
उस दिन वो घर वापस नहीं आए.
उसी दिन सात और लोगों को न्यायिक हिरासत में भेज दिया गया था, जिसमें कांग्रेस की एक पूर्व पार्षद इशरत जहां भी शामिल थीं. उन पर शस्त्र अधिनियम और भारतीय दंड संहिता की विभिन्न धाराओं के तहत घातक हथियार से लैस होकर दंगा करने, अवैध तरह से इकट्ठा होने, एक लोक सेवक को अपने कर्तव्य निर्वहन में बाधा डालने, लोक सेवक को रोकने के लिए हमले या आपराधिक बल का प्रयोग, हत्या का प्रयास के आरोप लगाए गए. उन पर कठोर यूएपीए के तहत भी आरोप लगाए गए थे.
चौदह दिन बाद 11 मार्च 2020 को जब उन्होंने उन्हें अगली बार देखा, तो वे व्हीलचेयर पर थे, उनके पैरों और दाहिने हाथ की उंगलियों पर पट्टियां थीं. उन्हें हिरासत में पीटा गया था.
वे 17 महीने से जेल में हैं.
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उन्हें टूटे पैरों के साथ देखने के तेरह दिन बाद 24 मार्च, 2020 को कोविड -19 के प्रकोप के बाद देशव्यापी लॉकडाउन घोषित हो गया. संयुक्त राष्ट्र सहित कई अंतरराष्ट्रीय निकायों ने विभिन्न देशों से राजनीतिक कैदियों को रिहा करने की अपील की.
उन्हें मधुमेह है, जेलों में भीड़ है, वे उनके लिए चिंतित थीं. उन्हें अब भी रिहा नहीं किया गया.
तभी बच्चों की ऑनलाइन क्लास शुरू हुई. वे कहती हैं, ‘मेरी अंग्रेजी कमजोर है और इसलिए वो बच्चों को उनके होमवर्क में मदद करते थे. और अब मैं यहां तीन स्कूल जाने वाले बच्चों के लिए एक साथ ऑनलाइन कक्षाएं चला रही हूं,’ .
कुछ समय तक तो तीनों को क्लास के लिए एक ही फोन से काम चलाना पड़ता था. वे कहती हैं कि धीरे-धीरे सब व्यवस्थित करने में कुछ समय लगा.
वे अब उसकी रिहाई अभियान के लिए एक खुद से सब सीखी हुई सोशल मीडिया मैनेजर हैं. उन्होंने खुद को प्रशिक्षित करने के लिए लॉकडाउन का इस्तेमाल किया.
वे कहती हैं, ‘उनकी गिरफ्तारी से पहले मेरा कोई सोशल मीडिया एकाउंट भी नहीं था.’ आज की तारीख में उनके दिन का कुछ हिस्सा उनकी रिहाई की पैरवी करने के लिए ग्राफिक्स और संगीत का इस्तेमाल करके पोस्टर-वीडियो बनाने में जाता है.
बच्चे समझते हैं कि उनके पिता आसपास क्यों नहीं हैं, लेकिन वो एक हद तक ही समझ सकते हैं. वे कहती हैं कि उन्हें खुशी है कि कोरोना के चलते वे अभी स्कूल नहीं जा रहे हैं. बच्चे जटिलताओं को इतनी अच्छी तरह नहीं समझते हैं. उन्हें अपने सहपाठियों यह समझाना पड़ता कि उनके पिता जेल में क्यों हैं.’
महामारी के दौरान घर में कैद बच्चे अपने पिता के लिए पूछते थे. वे बताती हैं, ‘घर में ऐसे छोटे बच्चों के साथ हर वक्त मातम का माहौल नहीं हो सकता. उनकी याद दिन भर होती है. पुरानी छुट्टियों के वीडियो और तस्वीरें, 2019 में गोवा जाना, बार-बार देखे जाते हैं. इंस्टा रील- क्योंकि उनके पसंदीदा टिकटॉक पर प्रतिबंध लगा दिया गया था- डायलॉग की नकल उतारना, डांस वगैरह भी अक्सर होते हैं. कंप्यूटर गेम- जहां उन सबने सीखा कि ‘ग्राइंडिंग’ का मतलब है ‘गेम में स्तर ऊपर बढ़ना’- की अनुमति कभी कभार दे दी जाती है.’
उस दिन बच्चे उनका पसंदीदा दाल-गोश्त खा रहे थे. सबसे छोटे ने खाना बंद कर दिया और पूछा, ‘पापा को जेल के अंदर खाने के लिए केवल परवल की सब्ज़ी ही क्यों मिलती है?’
वे कहती हैं, ‘वे इस देश और इसके लोगों से मोहब्बत करते करते हैं, गहरा प्यार.’
वे कहती हैं कि उन्होंने कभी भेदभाव नहीं किया. ईद पार्टी की तो दिवाली पार्टी भी की. उनकी गिरफ्तारी के बाद से कई महिलाएं अपने बच्चों की फीस लेने आई थीं. वे उन्हें फंड दिया करते थे, चाहे वे किसी भी धर्म के हों. मुझे यह भी नहीं पता था कि वे ऐसा कर रहे हैं.
पिछले डेढ़ साल में वे विरोध प्रदर्शनों में नियमित हो गई हैं. चाहे हाथरस रेप केस की बात हो, जहां 19 साल की दलित महिला के साथ ऊंची जाति के लोगों ने रेप किया हो या फिर अभी चल रहा किसानों आंदोलन. वे कहती हैं, ‘मैंने सीखा है कि जो लोग एक बेहतर देश चाहते हैं, उन्हें साथ रहने की जरूरत है.’
पिछले डेढ़ साल में उन्हें बहुत सारी कानूनी शब्दावली सीखनी पड़ी और यह जाना है कि सार्वजनिक रूप से क्या कहना है. वे एकजुटता व्यक्त कर सकती हैं और उस ठेस से भी निपट सकती है जब पड़ोसी या खानदान उनके व्यवहार पर सवाल उठाते हैं.
उन्होंने मदद नहीं मांगी, पीड़ित की भूमिका नहीं निभाई- ये बात महिलाओं में सराही नहीं जाती. और इसलिए उनका घर से बाहर निकलना-बिजली का बिल भरना, गैस सिलेंडर भरवाना, अपने बच्चे को डॉक्टर के पास ले जाना या अपने पैर का इलाज करने के लिए खुद को फिजियोथेरेपिस्ट के पास ले जाना- ऐसा कुछ जो उसने पहले खुद कभी नहीं किया था- के लिए समाज से उपहास और अलगाव मिलता है.
जब वे बच्चों को बाजार ले जाती है, तो वे कुछ भी खरीदने से पहले पूछते हैं, ‘मम्मी, यह महंगा नहीं है, नहीं?’ यह कुछ ऐसा है जो उन्होंने तब कभी नहीं सोचा था जब उनके पिता आसपास थे.
सभी यात्रा व्यवसायों की तरह उनकी कंपनी एक साल से अधिक समय से बंद है. बचत के पैसे खत्म हो रहे हैं. वे कहती हैं, ‘जब से वे दूर हैं, मैंने बहुत कुछ सीखा है. धीरे-धीरे मैं उनकी कंपनी को भी पटरी पर लाना सीखने की कोशिश करूंगी.’
मगर वे अभी भी सीख रही है कि वे अपने बच्चों को नए-नए बहाने कैसे दे. वे अंतहीन पूछते हैं, ‘मम्मी, पापा घर कब आएंगे?’ वे उनके एक जन्मदिन की तारीख का हवाला देती है. जन्मदिन आता है और चला जाता है लेकिन वे घर नहीं आते.
फिर वे परिवार में अगले आगामी जन्मदिन की तारीख का हवाला देती है. ऐसे छह जन्मदिन बीत चुके हैं. बच्चों को उम्मीद नहीं छोड़नी चाहिए. और इसलिए हर रोज योजना बनाई जाती है कि वे अपने पिता खालिद सैफी का घर पर स्वागत कैसे करेंगे.
सबसे बड़ा येसा कहता हैं, ‘जब वे रिहा होंगे तो मैं एक हाथ में चिकन टिक्का, दूसरे हाथ में चाइनीज़ खाना लेकर खड़ा रहूंगा.’
मंझले ताहा का कहना है, ‘पटाखे, उनमें बहुत सारे, रॉकेट और फुलझड़ियां.’
सबसे छोटी मरियम कहती हैं, ‘घर के हर कोने में फूल और तेज संगीत.’
उनकी मां नरगिस सैफी कहती हैं, ‘और हम खूब बातें करेंगे और उन्हें कभी जाने नहीं देंगे.’
(नेहा दीक्षित स्वतंत्र पत्रकार हैं.)
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