जब भी धर्मनिरपेक्षता को चुनाव मैदान से बाहर का रास्ता दिखाकर मुकाबले को असली-नकली, सच्चे-झूठे, सॉफ्ट या हार्ड हिंदुत्व के बीच सीमित किया जाता है, उसका कट्टर स्वरूप ही जीतता है. उत्तर प्रदेश में बसपा को इस एजेंडा पर आगे बढ़ने से पहले पिछले उदाहरणों को देखना चाहिए.
सामाजिक न्याय व अधिकारिता राज्यमंत्री रामदास अठावले ने गत दिनों राज्यसभा में राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो के जो आकंड़े साझा किए, उनके अनुसार देश में दलित उत्पीड़न वर्ष 2018 के मुकाबले वर्ष 2019 में 11.46 प्रतिशत बढ़ गया. इस वृद्धि में उसके सबसे बड़े राज्य उत्तर प्रदेश का हिस्सा सबसे बड़ा है, दूसरे शब्दों में कहें तो वह टॉप पर है.
इससे पहले समाचार एजेंसी प्रेस ट्रस्ट ऑफ इंडिया द्वारा सूचना के अधिकार के तहत किए गए आवेदन के जवाब में महिला एवं बाल विकास मंत्रालय ने देश के जिन दस लाख बच्चों को गंभीर रूप से कुपोषित बताया था, उनमें भी सबसे ज्यादा 3.98 लाख बच्चे इसी प्रदेश के हैं.
लेकिन अगले साल होने जा रहे विधानसभा चुनावों को लेकर विभिन्न पार्टियों के जातियों व अस्मिताओं पर आधारित जोड़-गांठ के प्रयत्नों पर नजर डालें तो लगता है कि प्रदेश में उत्पीड़न अथवा अभावों के ज्यादा शिकार दलित या बच्चे नहीं बल्कि ब्राह्मण हैं और उन्हें ही सबसे ज्यादा संरक्षण या तरजीह की जरूरत है.
यहां जान लेना चाहिए, सारे अंतर्विरोधों के बावजूद प्रदेश में दलित-ब्राह्मण एकता और ब्राह्मण-क्षत्रिय खुन्नस का पुराना इतिहास रहा है. कांग्रेस के उजले दिनों में दलित व ब्राह्मण दोनों उसके लिए एक साथ वोट किया करते थे. बाद में दलित बसपा के साथ हो लिए और ब्राह्मण भाजपा के प्रति आकर्षित हो गए.
इसके बावजूद ब्राह्मण अपने एक हिस्से के इस दृष्टिकोण के तहत कि किसी पार्टी का वोट बैंक बनने से ज्यादा फायदा जहां भी और जैसे भी मौका मिले उधर कुलांच जाने में है, अपने हितों व सुविधाओं के अनुसार प्रत्याशी व पार्टियां चुनते रहे.
2007 के विधानसभा चुनाव से पहले बसपा ने अपने नेताओं मायावती व सतीशचंद्र मिश्र की अद्भुत सोशल इंजीनियरिंग के बूते अपने हाथी को गणेश बनाकर इन दोनों को अपने पक्ष में एकजुट किया, तो पहली बार अकेली अपने दम पर पूरे बहुमत से प्रदेश की सत्ता में आने में कामयाब रही. लेकिन कई अंतर्विरोधों के कारण उसकी यह सोशल इंजीनियरिंग लंबी नहीं चल सकी और जल्दी ही वह ‘पुनर्मूषको भव’ की गति को प्राप्त हो गई.
कारण यह कि ब्राह्मणों का बड़ा हिस्सा उससे खुश होकर नहीं बल्कि समाजवादी पार्टी से नाराज होकर उसके पास आया था. सो भी, इस मजबूरी में कि उसे उन दिनों भाजपा या कांग्रेस में सपा का विकल्प बनकर उसे शिकस्त देने का बूता नहीं दिख रहा था.
अब, लगातार दो विधानसभा चुनावों में करारी शिकस्त खाने के बाद बसपा अपनी 2007 वाली दलित ब्राह्मण सोशल इंजीनियंरिंग के इतिहास की पुनरावृत्ति के प्रयास में है, तो इस बात से खासी उत्साहित है कि भाजपा की योगी आदित्यनाथ सरकार में बढ़ते क्षत्रिय प्रभुत्व से ब्राह्मण असुविधा महसूस कर रहे हैं और उन्हें किसी नये विकल्प की तलाश है.
उनकी यह तलाश सपा या कांग्रेस के, जो प्रियंका गांधी की सक्रियताओं में पुनर्जीवन तलाश रही है, बजाय उसी पर आकर खत्म हो, इसके लिए बसपा ने पिछले दिनों अयोध्या से महत्वाकांक्षी ब्राह्मण सम्मेलनों की शुरुआत की, जिनका नाम बाद में ‘प्रबुद्ध सम्मेलन’ कर दिया.
यहां तक तो सब कुछ ‘दलितों के हित में कोई भी पलटी मारने और किसी भी अवसर के इस्तेमाल की उसकी पारंपरिक राजनीति के अनुकूल था. लेकिन इसके बाद वह जो कुछ कर रही है, वह भाजपा से उसका हिंदू एजेंडा छीन लेने और खुद को उससे ज्यादा हिंदुत्ववादी जताने के लिए की जा रही कायांतरण की कोशिशों जैसा लगता है.
इन कोशिशों के नफे-नुकसान पर चर्चा से पहले जान लेना जरूरी है कि प्रायः सारे राजनीतिक प्रेक्षकों को चकित करती हुई बसपा इन सम्मेलनों में 2007 के ‘हाथी नहीं गणेश है, ब्रह्मा विष्णु महेश है’ और ‘ब्राह्मण शंख बजाएगा, हाथी बढ़ता जाएगा’ जैसे नारों से आगे बढ़कर ‘जय श्री राम, जय परशुराम, जय भीम और जय भारत’ का नारा लगा रही है और यह पूछती हुई कि क्या भगवान राम सिर्फ भाजपा की बपौती हैं, प्रदेश की सरकार में आने पर अयोध्या में तेजी से राम मंदिर निर्माण का वादा कर रही है. साथ ही काशी विश्वनाथ और मथुरा जाने का ऐलान भी.
इतना ही नहीं, अब उसके लिए ब्राह्मण स्वाभिमान दलित स्वाभिमान से बढ़कर हो गया है और वह योगी आदित्यनाथ के राज में उत्पीड़नों के शिकार दलितों से ज्यादा ब्राह्मणों के लिए फिक्रमंद है और उन्हीं को सर्वाधिक उत्पीड़ित बता रही है.
उसके प्रबुद्ध सम्मेलनों से असहज महसूस कर रही भाजपा ब्राह्मणों को अपने साथ जोड़े रखने की कोशिशों में कांग्रेस से अपने पाले में आए ब्राह्मण नेता जितिन प्रसाद के प्रमोशन में मुब्तिला बताई जाती है और खुद को उसकी चिर प्रतिद्वंद्वी बताने वाली समाजवादी पार्टी ने भी अपने नेता अभिषेक मिश्र की अगुआई में ब्राह्मण सम्मेलन करने व उसी की तरह भगवान परशुराम के गौरव की वृद्धि के लिए उनकी विशाल मूर्ति लगाने के ऐलान कर दिए हैं, तो बसपा सुप्रीमो मायावती इसे अपने प्रबुद्ध सम्मेलन से बसपा विरोधी दलों में खलबली मचने के तौर पर देख रही हैं.
सपा-बसपा में यह प्रतिद्वंद्विता भी छिड़ गई है कि परशुराम की किसकी मूर्ति बड़ी होगी. लेकिन बसपा के आलोचक इसे उसके ‘बहुजन’ के बजाय ‘ब्राह्मण’ समाज पार्टी में बदल जाने के तौर पर देख रहे हैं- उस रूप में कि प्रतिद्वंद्वी पार्टियों के मनुवाद की आलोचना करती-करती वह खुद मनुवादियों के हाथों में और उनके जैसे ही खेल खेलने लगी है.
उनके अनुसार कभी वह बहुजनों के नायकों के साथ अपनी सुप्रीमो की मूर्तियां लगाकर परिवर्तन और परिवर्तन चौक की बात किया करती थी, लेकिन अब खुद पुनरुत्थानवादी हो चली है. उसकी इस ‘यात्रा’ को किस रूप में समझा जाए?
प्रदेश की राजनीति के गंभीर अध्येताओं में से एक डॉ. रामबहादुर वर्मा इसे ‘कांशीराम की नेक कमाई, मायावती ने बेच खाई’ के रूप में देखने से इनकार करते हैं. उनके अनुसार कांशीराम के वक्त से ही बसपा का मानना रहा है कि सत्ता के माध्यम से ही सामाजिक परिवर्तन हो सकता है और इसमें तथाकथित उच्च जातियां तथाकथित मध्यम जातियों से ज्यादा सहायक होंगी. इसीलिए कांशीराम ने हमेशा सामाजिक सुधारों के बजाय सत्ता पर कब्जे की लड़ाई लड़ी.
उनके अनुसार, सपा-बसपा गठबंधन टूटने पर उन्होंने नेतृत्व व शक्ति पाने के लिए ऊंची जातियों के दलों भाजपा तथा कांग्रेस से मेलजोल बढ़ाया. इसी क्रम में 2002 में गुजरात में अल्पसंख्यकों के नरसंहार के बाद मायावती नरेंद्र मोदी का प्रचार करने गुजरात भी गईं. साफ है कि वे सत्ता के लिए जब भी ऊंची जातियों से मेलजोल बढ़ाती दिखती हैं, कांशीराम के पदचिह्नों पर ही चलती है.
लेकिन डॉ. वर्मा को नहीं लगता कि दलित मुक्ति की वकालत करने वाली पार्टी को भाजपा से उसका हिंदुत्व का एजेंडा छीनकर उसकी जैसी धार्मिक उन्माद की राजनीति करना रास आए गा, क्योंकि वह खुद को जिन बाबासाहब डॉ. भीमराव आंबेडकर की विचारधारा की वारिस बताती है, वे हिंदुत्व व हिंदू राष्ट्र की विचारधारा के घोर विरोधी थे और हिंदुत्व को स्वतंत्रता, बराबरी और भाईचारे के लिए गंभीर खतरा ही नहीं, लोकतंत्र के लिए अनुपयुक्त भी मानते थे. इसलिए भाजपा को कमजोर करने के नाम पर बसपा हिंदुत्व की राह पर जाएगी तो बाबासाहब के सपनों के सामाजिक न्याय तथा आरक्षण व्यवस्था की विलोम में बदल जाएगी.
लेकिन क्या उसे चुनाव में इसका फायदा होगा? डॉ. वर्मा कहते हैं कि उलटे खतरा यह है कि उसकी हालत माया मिली न राम वाली न हो जाए. ब्राह्मण उसके पास आएं नहीं और दलित भी दूर छिटक जाएं. 2019 के लोकसभा चुनाव के बाद से, जिसमें बसपा खाता भी नहीं खोल पाई थी, प्रदेश में जितने भी चुनाव हुए हैं, वे प्रमाणित करते हैं कि दलितों के बड़े हिस्से का बसपा से मोहभंग हो चुका है, जिसका सबसे ज्यादा लाभ भाजपा को मिल रहा है.’
डॉ. वर्मा के आकलन को तथ्यों के आईने में देखें, तो भाजपा से उसका हिंदुत्व का एजेंडा छीनकर उसे शिकस्त देने की कोशिशें अब तक प्रदेश में ही नहीं, देश में कहीं भी सफल नहीं हुई हैं. उलटे भाजपा यह प्रचारित कर ऐसी कोशिशों का लाभ उठा लेती है कि यह उसके हिंदू एजेंडा के दबाव का ही प्रतिफल है कि राम विरोधी भी राम-नाम जपने लगे हैं.
जब भी धर्मनिरपेक्षता को चुनाव मैदान से बाहर का रास्ता दिखाकर मुकाबले को असली या नकली, सच्चे या झूठे, सॉफ्ट अथवा हार्ड हिंदुत्व के बीच सीमित किया जाता है, उसका कट्टर स्वरूप ही जीतता है. इसका सबसे बड़ा उदाहरण गत लोकसभा चुनाव से पहले मंदिर-मंदिर घूमकर खुद को बेहतर हिंदू साबित करने के फेर में राहुल का अपना गोत्र बताना, शिवभक्त दर्शाना और गच्चा खाना है.
राजीव गांधी के प्रधानमंत्रीकाल में विश्व हिंदू परिषद द्वारा ‘वहीं’ राम मंदिर निर्माण के लिए शिलान्यास के वक्त भी कांग्रेस भाजपा से उसका हिंदू एजेंडा छीनने की कोशिश में नाकाम हो चुकी है. ऐसे में बसपा की भाजपा से यह कार्ड छीनने की कोशिशें परवान चढ़ पाएंगी, इसमें पर्याप्त संदेह हैं.
वरिष्ठ पत्रकार अरुण कुमार त्रिपाठी की मानें, तो बाबासाहब ने अपनी ‘हिंदुत्व की पहेलियां’ में हिंदू देवी-देवताओं की जैसी व्याख्याएं की हैं, उनकी रोशनी में बसपा को परशुराम की मूर्ति लगाना कतई रास नहीं आने वाला.
यहां एक और विडंबना पर नजर डालना जरूरी है. उत्तर प्रदेश प्रायः सारे चुनावों को जाति युद्ध में बदल देने के लिए बदनाम है. यही कारण है कि उसके अगले विधानसभा चुनाव से जुड़ी राजनीतिक दलों की सारी कवायदें जातियों व अस्मिताओं से होकर ही गुजर रही हैं. इस चक्कर में यह तथ्य भुला दिया गया है कि प्रदेश के मतदाता किसी दल या नेता की सत्ता से नाराज होते हैं तो जाति व अस्मिता आधारित सारे समीकरणों, पूर्वानुमानों और आकलनों को धता बताकर सबके ताऊ बन जाते हैं.
इसकी मिसालें ढूढ़ने के लिए बटलोई के चावलों की तलाश में बहुत दूर जाने की जरूरत नहीं. गत तीन विधानसभा चुनावों में ऐसे नाराज मतदाताओं के ही बूते बसपा, सपा और भाजपा को बारी-बारी से सत्ता में आईं और गत लोकसभा चुनाव में जातीय समीकरणों के बूते खुद को अजेय मान बैठी सपा-बसपा की शिकस्त भी इसी की गवाह है.
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं.)