विश्वविद्यालयों में बढ़ता सरकारी हस्तक्षेप किसी बेहतरी का संकेत नहीं है

विश्वविद्यालय में यह तर्क नहीं चल सकता कि चूंकि पैसा सरकार (जो असल में जनता का होता है) देती है, इसलिए विश्वविद्यालयों को सरकार की तरफ़दारी करनी ही होगी. बेहतर समाज के निर्माण के लिए ज़रूरी है कि विश्वविद्यालय की रोज़मर्रा के कामकाज में कम से कम सरकारी दख़ल हो.

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(प्रतीकात्मक फोटो: रॉयटर्स)

विश्वविद्यालय में यह तर्क नहीं चल सकता कि चूंकि पैसा सरकार (जो असल में जनता का होता है) देती है, इसलिए विश्वविद्यालयों को सरकार की तरफ़दारी करनी ही होगी. बेहतर समाज के निर्माण के लिए ज़रूरी है कि विश्वविद्यालय की रोज़मर्रा के कामकाज में कम से कम सरकारी दख़ल हो.

(प्रतीकात्मक फोटो: रॉयटर्स)

नई शिक्षा नीति 2020 का एक साल पूरा हो गया है. इस उपलक्ष्य में विश्वविद्यालय अनुदान आयोग ने देशभर के विश्वविद्यालयों को पत्र लिखे हैं. इस क्रम में पहला पत्र 28 जुलाई 2021 का है जिसमें यह कहा गया था कि हमारे देश के प्रधानमंत्री 29 जुलाई 2021 को इस नई शिक्षा नीति के एक वर्ष पूरा होने के संदर्भ में अकादमिक समुदाय को संबोधित करेंगे.

इस पत्र का परिणाम यह हुआ कि भारत के विश्वविद्यालयों में कुलपति, अधिष्ठाता, विभिन्न विभागों के अध्यक्ष और शिक्षक-शिक्षिका प्रधानमंत्री के उद्बोधन को सुनने में संलग्न हुए.

क्या यहां यह कहना ‘देशद्रोह’ की श्रेणी में आएगा कि प्रधानमंत्री यदि चाहें तो बतौर प्रधानमंत्री किसी भी समुदाय को संबोधित कर सकते हैं लेकिन भारतीय उच्च शिक्षा व्यवस्था पर उनके ‘मौलिक’ विचारों की ‘उद्भावना’ से ऐसा प्रमाण हमें अभी तक नहीं मिला है जिससे यह सिद्ध हो सके कि इस क्षेत्र में उनकी ‘विशेषज्ञता’ है और पूरे अकादमिक समुदाय को वे शिक्षा नीति पर कुछ ‘युगांतकारी’ सुझाव दे सकते हैं.

पिछले पांच-छह वर्षों में यह देखा गया है कि ऐसे प्रसंगों में विश्वविद्यालय अनुदान आयोग द्वारा भारत के विश्वविद्यालयों के कुलपतियों के लिए जारी पत्रों में लिखा तो यह रहता है कि अनुरोध है कि अपने विश्वविद्यालय में ऐसे आयोजन में विद्यार्थियों, शिक्षकों और कर्मचारियों को शामिल होने के लिए प्रेरित करें, लेकिन इस की व्यावहारिक सच्चाई यह होती है कि बिना कोई आदेश प्रसारित किए विश्वविद्यालयों में यह लगभग बाध्यता बन जाता है.

अगर ऐसा नहीं होता तो 2 अक्टूबर को ‘स्वच्छता’ के नाम पर विश्वविद्यालय परिसरों में झाड़ू लगाने को ले कर गहमागहमी (कहीं-कहीं तो आपाधापी भी) नहीं दिखाई देती और 31 अक्टूबर को ‘राष्ट्रीय एकता दिवस’ के नाम पर विश्वविद्यालयों में ‘दौड़ प्रतियोगिता’ जैसा आयोजन होने की स्थिति नहीं सामने आती.

इसी क्रम में विश्वविद्यालय अनुदान आयोग द्वारा फिर एक पत्र 29 जुलाई 2021 को जारी हुआ, जिसमें 30 जुलाई 2021 से 10 अगस्त 2021 तक भारतवर्ष के विभिन्न मंत्रालयों द्वारा नई शिक्षा नीति से संबद्ध विभिन्न विषयों पर ‘वेबिनार’ आयोजित करने की बात कही गई थी.

इसी पत्र में एक अत्यंत ‘विचित्र अनुरोध’ भारत के विश्वविद्यालयों से किया गया था. वह यह कि जिस दिन जिस विषय पर भारत सरकार का कोई एक मंत्रालय ‘वेबिनार’ आयोजित कर रहा है, उसी दिन दोपहर 3 बजे से विश्वविद्यालय भी उसी विषय पर ‘वेबिनार’ आयोजित करें.

इसका परिणाम यह हुआ कि इस पत्र के जारी होते ही विश्वविद्यालयों के विभिन्न शिक्षण विभागों को यह दायित्व सौंप दिया गया कि वे इनमें से कोई विषय चुन लें और ‘वेबिनार’ आयोजित करें.

ऐसी स्थिति में यह लगता है कि सरकार तो विश्वविद्यालयों को अपना एक ‘विभाग’ या अपनी एक ‘एजेंसी’ मानकर काम कर ही रही है लेकिन विश्वविद्यालयों के कुलपतियों, शिक्षकों और कर्मचारियों ने भी ऐसे अवसरों को सरकार के प्रति अपनी ‘वफ़ादारी’ साबित करने का एक मौक़ा मान लिया है.

थोड़ा ही ठहरकर सोचने पर यह स्पष्ट हो जाता है कि नई शिक्षा नीति 2020 जैसे महत्त्वपूर्ण विषय पर विश्वविद्यालयों में चर्चाएं अपनी गति और अपने हिसाब से हो सकती हैं. उदाहरण के लिए भारत के विश्वविद्यालयों के शिक्षा विभाग यदि चाहें तो वे आपस में मिलकर इस ‘नीति’ पर संवाद कर सकते हैं और फिर एक राय बना सकते हैं जिससे व्यापक जनता को इस ‘नीति’ के अवधारणात्मक स्वरूप को समझने में मदद मिले.

इसी तरह से भाषा-साहित्य विभाग भारतीय भाषाओं एवं मातृभाषाओं के संदर्भ में रायशुमारी कर सकते हैं. उपर्युक्त पत्र में ‘भारतीय ज्ञान-व्यवस्था’ का भी उल्लेख है. इससे संबंधित चर्चा दर्शनशास्त्र या समाजशास्त्र विभाग कर सकते हैं. पर अभी जिस तरह से ऐसे आयोजन हो रहे हैं यानी जिस दिन कोई मंत्रालय आयोजन करे उसी दिन विश्वविद्यालयों में भी आयोजन हो, यह न केवल हास्यास्पद है बल्कि यह विश्वविद्यालयों की गरिमा का अपहरण है और उनकी अपनी रोजमर्रा की कार्यवाहियों में अनावश्यक हस्तक्षेप है.

विश्वविद्यालय में काम कर रहे शिक्षक और कर्मचारी सरकार के कार्यकर्ता नहीं हैं. ठीक इसी तरह विश्वविद्यालय में पढ़ाई-लिखाई कर रहे विद्यार्थी कोई भावी कार्यकर्ता नहीं हैं जिनको प्रशिक्षण दिया जाए. सरकार कोई नीति का प्रस्ताव लाती है तो विश्वविद्यालयों का काम उसकी परीक्षा करना है न कि उसे ‘परम सत्य’ मानकर उसकी दिशा में बिना देखे दौड़ जाना है.

अभी ही कुछ दिनों पहले भारत के कई केंद्रीय विश्वविद्यालयों में कुलपति नियुक्त हुए हैं. लगभग सभी कुलपतियों ने अपने आरंभिक वक्तव्यों में यह कहा है कि वे नई शिक्षा नीति 2020 को अपने विश्वविद्यालयों में लागू करने के लिए कटिबद्ध हैं. इनमें से किसी ने भी यह नहीं कहा है कि पहले हम अपने विश्वविद्यालय में इस ‘नीति’ पर बहस और संवाद आयोजित करेंगे और फिर यदि लगेगा कि यह हमारे विश्वविद्यालय की परिस्थितियों के अनुकूल है तो इसकी बातों के संदर्भ में आगे बढ़ेंगे.

कोई भी ‘नीति’ क़ानून नहीं होती जिसका पालन अनिवार्य हो. ‘नीति’ हमेशा एक प्रस्ताव है. प्रस्ताव के बारे में व्यापक संवाद से ही राय बनाई जा सकती है न कि इस प्रकार आननफानन में गतिविधियां करके. सुनने में तो यह भी आ रहा है कि विभिन्न विश्वविद्यालयों में ‘नई शिक्षा नीति 2020 कार्यान्वयन समिति’ का भी गठन भी कर दिया गया है.

विश्वविद्यालय को एक सुकून की जगह होना चाहिए. यहां यह तर्क नहीं चल सकता कि चूंकि पैसा सरकार देती है (वैसे पैसा सरकार का नहीं होता बल्कि जनता का होता है.) इसलिए विश्वविद्यालयों को सरकार की तरफदारी करनी ही होगी. बेहतर समाज के निर्माण के लिए ज़रूरी है कि विश्वविद्यालय की रोजमर्रा की कार्यवाहियों में कम से कम हस्तक्षेप हो.

देखा तो यह भी गया है कि शिक्षा मंत्रालय या विश्वविद्यालय अनुदान आयोग विश्वविद्यालयों को ऐसे पत्र भेजता है जिसका आशय यह होता है कि ‘कल दोपहर बारह बजे तक’ फलां जानकारी उपलब्ध कराएं.

पिछले ही साल जब ऑनलाइन शिक्षण शुरू हुआ तो रोज शिक्षा मंत्रालय को यह जानकारी भेजी जाती थी कि आज कितने विद्यार्थी ऑनलाइन शिक्षण में जुड़ पाए? सोचा जा सकता है कि शिक्षा मंत्रालय को इस बात से क्या काम? अत: स्पष्ट है कि नई शिक्षा नीति 2020 से संबंधित उपर्युक्त आयोजनों के लिए विश्वविद्यालय अनुदान आयोग द्वारा जारी ये पत्र विश्वविद्यालय की रोजमर्रा की कार्यवाहियों में अनावश्यक हस्तक्षेप हैं.

इन सबसे विश्वविद्यालयों की शांति भंग होती है. वे अपना काम छोड़कर यह सब करने लगते हैं. फिर हम देशवासी ही इस पर दुखी होते हैं कि संसार के श्रेष्ठ विश्वविद्यालयों में हमारे विश्वविद्यालय न के बराबर हैं.

पिछले पांच-छह वर्षों से जिस प्रकार शिक्षा मंत्रालय और विश्वविद्यालय अनुदान आयोग का हस्तक्षेप विश्वविद्यालयों, खासकर केंद्रीय विश्वविद्यालयों में बढ़ता जा रहा है उससे आशंका होती है कि कहीं जो हाल सरकारी स्कूलों (जिन्हें पढ़ाई-लिखाई के काम से लगभग हटाते हुए सरकारी योजनाओं एवं कार्यक्रमों के अनुपालन की मात्र इकाई बन कर छोड़ दिया गया है) का हो गया वही हाल पूरी तरह केंद्रीय विश्वविद्यालयों का भी न हो जाए!

क्या हम विश्वविद्यालय के ‘लोग’ इस बात के लिए तैयार हैं ? कल जब इस दौर के भारत के विश्वविद्यालयों का इतिहास लिखा जाएगा तब क्या यह नतीज़ा निकलेगा कि राज्य के विश्वविद्यालय सरकारी उदासीनता से त्रस्त रहे और केंद्रीय विश्वविद्यालय सरकारी हस्तक्षेप से? इस नतीज़े के आईने में हम विश्वविद्यालय के लोग ख़ुद को देखना चाहते हैं?

(लेखक दक्षिण बिहार केंद्रीय विश्वविद्यालय में हिंदी पढ़ाते हैं.)