बढ़ते समुद्र, घटते ग्लेशियर; लगभग 100 प्रतिशत ग्लोबल वार्मिंग का कारण इंसान: यूएन जलवायु समिति

जलवायु परिवर्तन पर आई आईपीसीसी की हालिया रिपोर्ट बताती है कि अगर पृथ्वी के जलवायु को जल्द स्थिर कर दिया जाए, तब भी जलवायु परिवर्तन के कारण जो क्षति हो चुकी है, उसे सदियों तक भी ठीक नहीं किया जा सकेगा. आईपीसीसी इस बात की पुष्टि करता है कि 1950 के बाद से अधिकांश भूमि क्षेत्रों में अत्यधिक गर्मी, हीटवेव और भारी बारिश भी लगातार और तीव्र हो गई है. संयुक्त राष्ट्र ने इसे ‘मानवता के लिए कोड रेड’ क़रार दिया है.

//
आईपीसीसी की रिपोर्ट के अनुसार, भीषण गर्मी से ग्लेशियर तेजी से पिघल रहे हैं और समुद्र का जलस्तर बढ़ रहा है. (फोटो: रॉयटर्स)

जलवायु परिवर्तन पर आई आईपीसीसी की हालिया रिपोर्ट बताती है कि अगर पृथ्वी के जलवायु को जल्द स्थिर कर दिया जाए, तब भी जलवायु परिवर्तन के कारण जो क्षति हो चुकी है, उसे सदियों तक भी ठीक नहीं किया जा सकेगा. आईपीसीसी इस बात की पुष्टि करता है कि 1950 के बाद से अधिकांश भूमि क्षेत्रों में अत्यधिक गर्मी, हीटवेव और भारी बारिश भी लगातार और तीव्र हो गई है. संयुक्त राष्ट्र ने इसे ‘मानवता के लिए कोड रेड’ क़रार दिया है.

आईपीसीसी की रिपोर्ट के अनुसार, भीषण गर्मी से ग्लेशियर तेजी से पिघल रहे हैं और समुद्र का जलस्तर बढ़ रहा है. (फोटो: रॉयटर्स)

नई दिल्ली: संयुक्त राष्ट्र (यूएन) की तरफ से बीते सोमवार को जारी एक रिपोर्ट के मुताबिक पृथ्वी की जलवायु इतनी गर्म होती जा रही है कि एक दशक में तापमान संभवत: उस सीमा के पार पहुंच जाएगा, जिसे दुनिया भर के नेता रोकने का आह्वान करते रहे हैं. यूएन ने इसे ‘मानवता के लिए कोड रेड’ करार दिया है.

अमेरिका के वायुमंडलीय अनुसंधान के लिए राष्ट्रीय केंद्र की वरिष्ठ जलवायु वैज्ञानिक और इस रिपोर्ट की सह-लेखक लिंडा मर्न्स ने कहा, ‘इस बात की गारंटी है कि चीजें और बिगड़ने जा रही हैं. मैं ऐसा कोई क्षेत्र नहीं देख पा रही जो सुरक्षित है. कहीं भागने की जगह नहीं है, कहीं छिपने की गुंजाइश नहीं है.’

वैज्ञानिक हालांकि जलवायु तबाही की आशंका को लेकर थोड़ी ढील देते हैं.

जलवायु परिवर्तन पर अधिकार प्राप्त अंतर सरकारी समिति (आईपीसीसी) की रिपोर्ट जलवायु परिवर्तन को पूर्णत: मानव निर्मित करार देती है. यह रिपोर्ट पिछली बार 2013 में जारी रिपोर्ट की तुलना में 21वीं सदी के लिए ज्यादा सटीक और गर्मी की भविष्यवाणी करती है.

आईपीसीसी की अब तक की सबसे गंभीर रिपोर्ट के अनुसार, पूर्व-औद्योगिक समय (1850-1900) के बाद से पृथ्वी का तापमान 1.09 डिग्री सेल्सियस बढ़ चुका है और कई बदलाव जैसे कि समुद्र के स्तर में वृद्धि और ग्लेशियर का पिघलना अब लगभग अपरिवर्तनीय है.

रिपोर्ट में यह भी पाया गया है कि मानव जनित जलवायु परिवर्तन से बचना अब संभव नहीं है. जलवायु परिवर्तन अब पृथ्वी पर हर महाद्वीप, क्षेत्र और महासागर और मौसम के हर पहलू को प्रभावित कर रहा है.

साल 1988 में पैनल के गठन के बाद से लंबे समय से प्रतीक्षित रिपोर्ट अपनी तरह का छठा आकलन है. यह नवंबर में स्कॉटलैंड के ग्लासगो में होने वाले महत्वपूर्ण अंतरराष्ट्रीय शिखर सम्मेलन से पहले दुनिया के नेताओं को जलवायु परिवर्तन के बारे में सबसे सामयिक, सटीक जानकारी देगा.

आईपीसीसी संयुक्त राष्ट्र और विश्व मौसम विज्ञान संगठन का शीर्ष जलवायु विज्ञान निकाय है. यह पृथ्वी की जलवायु की स्थिति और मानव गतिविधियां इसे कैसे प्रभावित करती हैं, पर राय देने वाला वैश्विक प्राधिकार है.

आईपीसीसी रिपोर्ट के लेखकों ने दुनिया भर के हजारों वैज्ञानिकों के काम से मिली जानकारी के आधार पर इस मूल्यांकन को तैयार किया है. यह 3900 पन्नों का दस्तावेज है.

भारत को जलवायु अनुकूल बुनियादी ढांचे के निर्माण की जरूरत

पर्यावरण विशेषज्ञों ने बीते 10 अगस्त को कहा कि भारत को मौसम संबंधी असीम घटनाओं के बढ़ते प्रभावों से निपटने के लिए तुरंत कदम उठाते हुए ग्रीनहाउस गैसों के उत्सर्जन को कम करने और जलवायु अनुकूल बुनियादी ढांचे के निर्माण पर ध्यान केंद्रित करना चाहिए, वरना जलवायु परिवर्तन के मजबूत प्रभाव जारी रहेंगे, जिनके बारे में हाल की आईपीसीसी रिपोर्ट में चेतावनी दी गई है.

रिपोर्ट के लेखकों में से एक कृष्ण अच्युत राव ने कहा कि जलवायु परिवर्तन के मजबूत प्रभाव तब तक जारी रहेंगे जब तक उत्सर्जन शून्य नहीं हो जाता.

उन्होंने कहा, ‘आगामी जलवायु परिवर्तन को रोकने के लिए सुधारात्मक कदम भारत और बाकी दुनिया के लिए समान हैं. इनमें ग्रीन हाउस गैसों (जीएचजी) विशेष रूप से कार्बन-डाइऑक्साइड के उत्सर्जन को तेजी से कम करना शामिल है. इसे प्राप्त करने के लिए कठोर निर्णय लेने होंगे.’

राव ने कहा, ‘यह संदेश भी स्पष्ट है कि हम पहले से ही जलवायु परिवर्तन के प्रभावों का अनुभव कर रहे हैं और जब तक उत्सर्जन शून्य नहीं हो जाता है, तब तक हमारा जोरदार प्रभावों से सामना होता रहेगा, जिसका अर्थ है कि हमें इस बात पर ध्यान देना होगा कि हम इन परिवर्तनों को कैसे अनुकूलित करते हैं ताकि हमारी आबादी, अर्थव्यवस्था और बुनियादी ढांचे पर जलवायु परिवर्तन के प्रभाव को बहुत हद तक कम किया जा सके.’

वर्ल्ड वाइड फंड फॉर नेचर (डब्ल्यूडब्ल्यूएफ इंडिया) जलवायु परिवर्तन और ऊर्जा कार्यक्रम के निदेशक टीएस पंवार ने इसी तरह का विचार साझा करते हुए कहा कि ग्लोबल वार्मिंग में वृद्धि से निपटने में देरी से दुनियाभर में जलवायु कार्रवाई के विनाशकारी परिणाम सामने आ सकते हैं.

उन्होंने कहा, ‘भारत जलवायु परिवर्तन के मामले में सबसे संवेदनशील देशों में से एक है और यह बाढ़, चक्रवात, लू, जंगल की आग और सूखे जैसी मौसम संबंधी घटनाओं की आवृत्ति और तीव्रता में वृद्धि के कारण महत्वपूर्ण रूप से प्रभावित होगा. चूंकि कार्रवाई के लिए समय कम बचा है, लिहाजा भारत को जलवायु कार्रवाई को मुख्यधारा में लाने के लिए सभी क्षेत्रों में अनुकूलन प्रयासों में तेजी लाने और लचीलापन क्षमता विकसित करने की आवश्यकता है.’

ग्रीनपीस इंडिया के वरिष्ठ जलवायु प्रचारक अविनाश चंचल ने मजबूत और साहसिक कदमों का आह्वान करते हुए कहा कि देश को तापमान वृद्धि को 1.5 डिग्री सेल्सियस से नीचे सीमित करने और भविष्य में जीवाश्म ईंधन में किसी भी निवेश से दूरी बनाते हुए तत्काल उपाय करने की आवश्यकता है.

कुल मिलाकर दुनिया अब साल 1850 और 1900 के बीच की अवधि की तुलना में 1.09 डिग्री सेल्सियस अधिक गर्म है. आकलन से पता चलता है कि समुद्र की सतह 1850 के बाद से भूमि की सतह की तुलना में वैश्विक औसत के रूप में लगभग 0.9 डिग्री सेल्सियस कम गर्म हुई है, लेकिन समुद्र के गर्म होने का लगभग दो तिहाई पिछले 50 बरस में हुआ है.

यह स्पष्ट है कि मनुष्य ग्रह को गर्म कर रहे हैं: आईपीसीसी रिपोर्ट

पहली बार आईपीसीसी ने अपनी रिपोर्ट में स्पष्ट रूप से कहा है कि मनुष्य वातावरण, भूमि और महासागरों में महसूस की गई वार्मिंग के लिए जिम्मेदार हैं.

आईपीसीसी ने पाया कि पृथ्वी की वैश्विक सतह का तापमान 1850-1900 से पिछले दशक के बीच 1.09 डिग्री सेल्सियस बढ़ चुका है. यह साल 2013 में आई पिछली आईपीसीसी रिपोर्ट की तुलना में 0.29 डिग्री सेल्सियस अधिक गर्म है.

आईपीसीसी ने यह पाया है कि 1.09 डिग्री सेल्सियस तापमान वृद्धि में से 1.07 डिग्री सेल्सियस का तापमान मानवीय गतिविधियों से जुड़ीं ग्रीनहाउस गैसों के कारण बढ़ा है. दूसरे शब्दों में, लगभग सभी ग्लोबल वार्मिंग मनुष्यों के कारण हो रहे हैं.

कम से कम पिछले 2,000 वर्षों में किसी भी अन्य 50 वर्ष की अवधि की तुलना में 1970 के बाद से अब तक के 50 वर्ष में वैश्विक सतह का तापमान तेजी से गर्म हुआ है, साथ ही यह वार्मिंग 2,000 मीटर से नीचे समुद्र की गहराई तक पहुंच रही है.

आईपीसीसी का कहना है कि मानवीय गतिविधियों ने वैश्विक वर्षा (बारिश और हिमपात) को भी प्रभावित किया है. 1950 के बाद से कुल वैश्विक वर्षा में वृद्धि हुई है, लेकिन कुछ क्षेत्र ज्यादा गीले हो गए हैं, जबकि अन्य सूखे हो गए हैं.

अधिकांश भू-क्षेत्रों में भारी वर्षा की घटनाओं की आवृत्ति और तीव्रता में वृद्धि हुई है. ऐसा इसलिए है क्योंकि गर्म वातावरण अधिक नमी धारण करने में सक्षम है- प्रत्येक अतिरिक्त तापमान के लिए लगभग 7 प्रतिशत अधिक- जो गीले मौसम और वर्षा की घटनाओं को बढ़ाता है.

कार्बन डाइऑक्साइड की उच्च मात्रा तेजी से बढ़ रही है

वायुमंडलीय कार्बन डाइऑक्साइड (CO2) की वर्तमान वैश्विक सांद्रता (कन्सन्ट्रेशन) अधिक है और कम से कम पिछले 20 लाख वर्षों में किसी भी समय की तुलना में तेजी से बढ़ रही है.

औद्योगिक क्रांति (1750) के बाद से जिस गति से वायुमंडलीय CO2 में वृद्धि हुई है, वह पिछले 8,00,000 वर्षों के दौरान किसी भी समय की तुलना में कम से कम दस गुना तेज है और पिछले पांच करोड़ 60 लाख वर्षों की तुलना में चार से पांच गुना तेज है.

लगभग 85 प्रतिशत CO2 उत्सर्जन जीवाश्म ईंधन (fossil fuel) के जलने से होता है. शेष 15 प्रतिशत भूमि उपयोग परिवर्तन, जैसे वनों की कटाई और क्षरण से उत्पन्न होते हैं.

अन्य ग्रीनहाउस गैसों की सांद्रता भी कुछ बेहतर नहीं है. मीथेन और नाइट्रस ऑक्साइड दोनों, CO2 के बाद ग्लोबल वार्मिंग में दूसरे और तीसरे सबसे बड़े योगदानकर्ता हैं, वे भी तेजी से बढ़े हैं.

मानव गतिविधियों से मीथेन उत्सर्जन बड़े पैमाने पर पशुधन और जीवाश्म ईंधन उद्योग से आता है. नाइट्रस ऑक्साइड का उत्सर्जन मुख्य रूप से फसलों पर नाइट्रोजन उर्वरक के उपयोग से होता है.

अत्यधिक गर्मी और भारी बारिश भी लगातार वृद्धि

आईपीसीसी इस बात की पुष्टि करता है कि 1950 के बाद से अधिकांश भूमि क्षेत्रों में अत्यधिक गर्मी, हीटवेव और भारी बारिश भी लगातार और तीव्र हो गई है.

रिपोर्ट में इस बात पर प्रकाश डाला गया है कि हाल ही में गर्मी की कुछ चरम सीमाओं को देखा गया है, जैसे कि 2012-2013 की ऑस्ट्रेलियाई गर्मी, जो जलवायु पर मानव प्रभाव के बिना एकदम नामुमकिन है.

जटिल चरम घटनाओं में पहली बार मानव प्रभाव का भी पता चला है. उदाहरण के लिए, एक ही समय में होने वाली हीटवेव, सूखा और आग लगने की घटनाएं अब अधिक बार होती हैं. इन मिश्रित घटनाओं को ऑस्ट्रेलिया, दक्षिणी यूरोप, उत्तरी यूरेशिया, अमेरिका के कुछ हिस्सों और अफ्रीकी उष्णकटिबंधीय जंगलों में देखा गया है.

महासागर: गर्म, ऊंचे और अधिक अम्लीय

महासागर 91 प्रतिशत ऊर्जा को वायुमंडलीय ग्रीनहाउस गैसों में वृद्धि से प्राप्त करते हैं. इसने समुद्र के गर्म होने और अधिक समुद्री हीटवेव को जन्म दिया है, खासकर पिछले 15 वर्षों में.

समुद्री गर्मी की वृद्धि समुद्री जीवन की सामूहिक मृत्यु का कारण बनती हैं, जैसे कि कोरल ब्लीचिंग की घटनाओं से. वे शैवाल के बनने और प्रजातियों की संरचना में बदलाव का कारण भी बनते हैं. भले ही दुनिया वार्मिंग को 1.5-2.0 तक सीमित कर दे, जैसा कि पेरिस समझौते के अनुरूप है, सदी के अंत तक समुद्री हीटवेव चार गुना अधिक हो जाएगा.

बर्फ की चादरें तथा हिमनद पिघलने और गर्म होने के कारण समुद्र के पानी के फैलने के साथ-साथ, 1901 और 2018 के बीच वैश्विक औसत समुद्र स्तर में 0.2 मीटर की वृद्धि हुई है. लेकिन, महत्वपूर्ण बात यह है कि समुद्र का स्तर बढ़ने की गति भी बढ़ रही है. यह 1901-1971 के दौरान 1.3 मिलीमीटर प्रति वर्ष रही थी. वहीं 1971-2006 के दौरान प्रति वर्ष 1.9 मिमी और 2006-2018 के दौरान 3.7 मिमी प्रति वर्ष रही है.

CO2 बढ़ने के कारण महासागर का अम्लीकरण सभी महासागरों में हुआ है और दक्षिणी महासागर और उत्तरी अटलांटिक में 2,000 मीटर से अधिक गहराई तक पहुंच रहा है.

कई बदलाव अपरिवर्तनीय हो चुके हैं

आईपीसीसी का कहना है कि अगर पृथ्वी की जलवायु को जल्द स्थिर कर दिया जाए, तब भी जलवायु परिवर्तन के कारण जो क्षति हो चुकी है, उसे सदियों या सहस्राब्दियों तक भी ठीक नहीं किया जा सकेगा.

उदाहरण के लिए इस सदी में 2 डिग्री सेल्सियस की ग्लोबल वार्मिंग से 2,000 वर्षों में औसत वैश्विक समुद्र स्तर में दो से छह मीटर की वृद्धि होगी, और अधिक उत्सर्जन होने पर और भी ज्यादा.

विश्व स्तर पर ग्लेशियर साल 1950 से लगातार घट रहे हैं और वैश्विक तापमान के स्थिर होने के बाद दशकों तक इनके पिघलते रहने का अनुमान है. इसी तरह CO2 उत्सर्जन बंद होने के बाद भी गहरे समुद्र का अम्लीकरण हजारों वर्षों तक बना रहेगा.

मालूम हो कि हर सात साल या इसके आसपास, आईपीसीसी जलवायु की स्थिति पर एक रिपोर्ट जारी करता है. यह जलवायु परिवर्तन के विज्ञान, इसके प्रभाव और इससे जुड़े तमाम पहलुओं पर सबसे अपडेटेड, सहकर्मी-समीक्षित शोध का सारांश होता है.

इन रिपोर्टों का उद्देश्य सभी को, विशेष रूप से सरकारी विभागों को, जलवायु परिवर्तन के संबंध में महत्वपूर्ण निर्णय लेने के लिए आवश्यक जानकारी प्रदान करना है. आईपीसीसी अनिवार्य रूप से सरकारों को जलवायु परिवर्तन के विज्ञान, जोखिम और सामाजिक एवं आर्थिक घटकों के बारे में प्रकाशित हजारों पत्रों का समग्र संस्करण प्रदान करता है.

आईपीसीसी सरकारों को यह नहीं बताता कि क्या करना है. इसका लक्ष्य जलवायु परिवर्तन, इसके भविष्य के जोखिमों और वार्मिंग की दर को कम करने के विकल्पों पर नवीनतम ज्ञान प्रदान करना है. आखिरी बड़ा आईपीसीसी आकलन साल 2013 में जारी किया गया था.

आईपीसीसी अपना स्वयं का जलवायु-विज्ञान अनुसंधान नहीं करता है. इसके बजाय, यह हर किसी का सारांश प्रस्तुत करता है. हालिया रिपोर्ट दुनिया भर में आईपीसीसी सदस्य सरकारों द्वारा नामित 234 वैज्ञानिकों द्वारा लिखी गई है. ये वैज्ञानिक पृथ्वी और जलवायु विज्ञान विशेषज्ञ हैं. इन्होंने रिपोर्ट के लिए 14,000 से अधिक शोध पत्र पढ़े थे.

वैश्विक तापमान के पेरिस में तय सीमा के पार पहुंच जाने की संभावना

पेरिस जलवायु समझौते पर साल 2015 में करीब 200 देशों ने हस्ताक्षर किए थे और इसमें विश्व नेताओं ने सहमति व्यक्त की थी कि वैश्विक तापमान को दो डिग्री सेल्सियस (3.6 डिग्री फारेनहाइट) से कम रखना है और वह पूर्व औद्योगिक समय की तुलना में सदी के अंत तक 1.5 डिग्री सेल्सियस (2.7 फारेनहाइट) से अधिक न हो.

हालांकि आईपीसीसी रिपोर्ट कहती है कि किसी भी सूरत में दुनिया 2030 के दशक में 1.5 डिग्री सेल्सियस तापमान के आंकड़े को पार कर लेगी, जो पुराने पूर्वानुमानों से काफी पहले है. आंकड़े दर्शाते हैं कि हाल के वर्षों में तापमान काफी बढ़ा है.

अमेरिका के राष्ट्रीय सामुद्रिक एवं वायुमंडलीय प्रशासन के वरिष्ठ जलवायु सलाहकार और आईपीसीसी के उपाध्यक्ष को बेर्रेट ने कहा, ‘रिपोर्ट हमें बताती है कि जलवायु में हाल के समय में हुए बदलाव व्यापक, त्वरित, गहन हैं और हजारों वर्षों में अभूतपूर्व हैं. हम जिन बदलावों का अनुभव कर रहे हैं, वे तापमान के साथ और बढ़ेंगे.’

इसमें कहा गया है कि तापमान से समुद्र स्तर बढ़ रहा है, बर्फ का दायरा सिकुड़ रहा है तथा प्रचंड लू, सूखा, बाढ़ और तूफान की घटनाएं बढ़ रही हैं. उष्णकटिबंधीय चक्रवात और मजबूत तथा बारिश वाले हो रहे हैं, जबकि आर्कटिक समुद्र में गर्मियों में बर्फ पिघल रही है और इस क्षेत्र में हमेशा जमी रहने वाली बर्फ का दायरा घट रहा है. यह सभी चीजें और खराब होती जाएंगी.

रिपोर्ट में कहा गया कि उदाहरण के लिए जिस तरह की प्रचंड लू पहले प्रत्येक 50 सालों में एक बार आती थी अब वह हर दशक में एक बार आ रही है और अगर दुनिया का तापमान एक और डिग्री सेल्सियस (1.8 डिग्री फारेनहाइट) और बढ़ जाता है तो ऐसा प्रत्येक सात साल में एक बार होने लग जाएगा.

(समाचार एजेंसी भाषा से इनपुट के साथ)

pkv games bandarqq dominoqq pkv games parlay judi bola bandarqq pkv games slot77 poker qq dominoqq slot depo 5k slot depo 10k bonus new member judi bola euro ayahqq bandarqq poker qq pkv games poker qq dominoqq bandarqq bandarqq dominoqq pkv games poker qq slot77 sakong pkv games bandarqq gaple dominoqq slot77 slot depo 5k pkv games bandarqq dominoqq depo 25 bonus 25 bandarqq dominoqq pkv games slot depo 10k depo 50 bonus 50 pkv games bandarqq dominoqq slot77 pkv games bandarqq dominoqq slot bonus 100 slot depo 5k pkv games poker qq bandarqq dominoqq depo 50 bonus 50 pkv games bandarqq dominoqq