मध्य प्रदेश की राजधानी भोपाल में दिसंबर 1984 में हुई गैस त्रासदी ने तमाम महिलाओं से उनके पति को छीनकर उन्हें बेसहारा बना दिया था. उनकी आर्थिक मदद के लिए पेंशन योजना शुरू की गई थी, जिस पर दिसंबर 2019 से राज्य सरकार ने रोक लगा दी है. इसे दोबारा शुरू करने की घोषणा तो लगातार की जा रही हैं, लेकिन कोरोना काल में बुरी तरह से प्रभावित ये विधवा महिलाएं अब तक इससे महरूम हैं.
‘मेरा घर खर्च तक नहीं चल रहा बाबू. मेरे को हजार रुपये मिलते थे तो बड़ी मदद मिल जाती थी. आप मेरी हालत देख लो. मैं बीमार ही रहती हूं. कमर से मोहताज हो गई हूं. पेंशन का पैसा दवा वगैरह और रोज के खर्चों में काम आ जाता था.’
मध्य प्रदेश की राजधानी भोपाल के जेपी नगर में रहने वाली 70 वर्षीय शकीला बी. ये बात कहते हुए अपनी लाचारी पर रोने लगती हैं.
जेपी नगर वही इलाका है, जहां यूनियन कार्बाइड का वह परिसर स्थित है, जो करीब 37 साल पहले 2-3 दिसंबर 1984 की दरमियानी रात हजारों लोगों की मौत का कारण बना था.
यहां से लीक हुई मिथाइल आइसोसाइनेट गैस ने पल भर में ही हजारों जीवन लील लिए थे और लाखों लोगों व उनकी आने वाली नस्लों की नसों में ऐसा ज़हर घोला था कि वे जीवनभर के लिए प्राणघातक बीमारियों के शिकार हो गए.
शकीला और उनके पति बाबू खां भी गैस कांड के शिकार बने हजारों पीड़ितों में शामिल थे. गैस कांड से पनपे जानलेवा दुष्प्रभावों ने वर्ष 2011 में बाबू खां की जान ले ली.
इत्तेफाक से 2011 में ही वह सरकारी नीति बनी, जिसके तहत गैस पीड़ित विधवाओं को हजार रुपये मासिक पेंशन राहत के तौर पर दी जाती थी. शकीला भी पेंशन पाने की पात्र बनीं.
लेकिन, दिसंबर 2019 से सरकार ने यह पेंशन रोक दी. जिसके चलते शकीला और उन जैसी करीब 5,300 विधवा महिलाएं, जिनमें अधिकांश 60-65 वर्ष से अधिक उम्र वाली वृद्धाएं हैं, पाई-पाई के लिए मोहजात हो गई हैं.
द वायर ने गैस राहत विधवा पेंशन पाने की पात्र कई महिलाओं से बात की. अधिकांश वृद्धाओं ने रोकर अपनी व्यथा सुनाई.
इनमें से एक एक सावित्री बाई भी हैं. 65 वर्षीय सावित्री कोरोना वायरस के चलते लगे लॉकडाउन से पहले तक एक-दो घरों में झाड़ू-पोंछा करने जाती थीं, जिससे उन्हें 1000-800 रुपये मासिक मिल जाते थे. कुछ पैसे उन्हें लहसुन छीलने का काम करके मिल जाते थे. महीने भर का गुजारा करने में 1000 रुपये की पेंशन बहुत मदद करती थी.
लेकिन, दिसंबर 2019 में उनकी पेंशन बंद हो गई. बाद में कोरोना ने उनसे काम भी छीन लिया. वे कहती हैं, ‘दो साल से बहुत परेशान हूं बेटा. उन हजार रुपये से मेरी बहुत मदद हो जाती थी.’
इस दौरान अपनी बेबसी पर उनकी आंखें भर आती हैं और रुंधे हुए गले से वे आगे अपनी व्यथा सुनाती हैं, ‘उस पैसे से मेरी दवा हो जाती थी. जब कभी घरों में झाड़ू-पोंछे का या लहसुन छीलने का काम नहीं मिलता था तो घर खर्च भी उसी पैसे से चला लेती थी. इस बुढ़ापे में शरीर से काम करते अब बनता नहीं है और लॉकडाउन के बाद से कोई काम देता भी नहीं है. जब कभी लहसुन छीलने का काम मिल जाता है. बाकी कैसे गुजर-बसर कर रही हूं, ये तो भगवान ही जानता है.’
महंगाई के इस दौर में हजार रुपये की राशि सुनने में बेशक बेहद ही मामूली लगे, लेकिन अनेकों गैस पीड़ित विधवाएं ऐसे बदतर आर्थिक हालातों में जी रही हैं, जिनमें पेंशन के हजार रुपये ही उनके जीवनयापन का एकमात्र सहारा है.
70 साल की कमला बाई के साथ भी कुछ ऐसा ही है. परिवार के नाम पर वह अकेली हैं. सरकारी राशन की दुकान से मिलने वाला पांच किलो गेहूं उनकी महीनेभर की भूख मिटाने का सहारा है. इस अधेड़ उम्र में उनका शरीर भी इजाजत नहीं देता कि वे कोई काम करें.
वे बताती हैं, ‘पेंशन के पैसे से गुजर-बसर हो जाती थी. खाने-पीने को आटा-तेल जैसे थोड़ा-बहुत सामान रख लेती थी. उस पैसे से 15 दिन का राशन आ जाता था. पेंशन बंद हो गई तो अब बहुत परेशान हैंगे. बीमार पड़े हैं, दवाई भी नहीं ला पा रहे.’
वे आगे कहती हैं, ‘का खाएं, का पीएं बेटा. एक टैम बना लई, तीन-चार टैम खा लई. कभी मिर्च की चटनी बना ली, कभी टमाटर की चटनी बना ली, काहे से खाएं बता. मजबूर हैं अब किसी से मांगने तो जाएंगे नहीं. जैसे भरेगा पेट तो भरेंगे क्या करें? जिंदा रहने है तो.’
बहरहाल, ऐसी अनेक सर्वे रिपोर्ट हैं, जो बताती हैं कि भोपाल की गैस पीड़ित आबादी आर्थिक चुनौतियों से जूझ रही है. बड़ी मुश्किल से मेहनत-मजदूरी करके लोग पेट पाल रहे हैं. ऐसी विषम परिस्थितियों में हजार रुपये भी डूबते को तिनके के सहारे के समान हैं.
कोरोना काल में तो विधवा पेंशन का महत्व और अधिक इसलिए बढ़ जाता है, क्योंकि अधिकांश विधवाएं जीवनयापन के लिए घर-घर जाकर झाड़ू-पोंछा मारती हैं और घरेलू कामगारों पर कहर बनकर टूटे कोरोना से वे भी नहीं बच पाई हैं.
55 साल की मुन्नी बाई बताती हैं, ‘घर-घर झाड़ू-पोंछा करने से 1000-1200 रुपये मिल जाते थे. पेंशन (सामाजिक सुरक्षा विधवा पेंशन) के पहले 300 रुपये मिलते थे, जो कि कांग्रेस सरकार में 600 हो गए थे. इसके अलावा हजार रुपये गैस राहत विधवा पेंशन के मिल जाते थे तो घर चल जाता था.’
लॉकडाउन के दौरान जहां एक तरफ मुन्नी बाई का काम छिन गया तो दूसरी तरफ इसी दौरान उनकी गैस राहत विधवा पेंशन मिलना बंद हो गई. इसलिए डेढ़ सालों से उनके लिए गुजारा करना मुश्किल हो रहा है.
वे बताती हैं कि लोगों के घरों में काम कर-करके उनके हाथों में टांके आ गए हैं. अंगुली खराब हो गई है. इसलिए अब घर पर बैठने के अलावा उनके सामने अन्य कोई चारा नहीं है. पेंशन ही सहारा है.
वे उत्सुकतावश पूछती हैं, ‘बेटा, सरकार कह रही है फिर चालू करेगी पेंशन. कर रही है न वो चालू?’
बता दें कि पिछले आठ माह में तीन मौकों पर मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान और उनकी सरकार विभिन्न मंचों से ऐलान कर चुके हैं कि गैस पीड़ित विधवाओं की पेंशन चालू करेंगे.
भोपाल ग्रुप फॉर इनफॉरमेशन एंड एक्शन से जुड़ीं सामाजिक कार्यकर्ता रचना ढींगरा बताती हैं, ‘20 महीने से पेंशन बंद है. 3 दिसंबर 2020 को मुख्यमंत्री द्वारा गैस कांड की बरसी पर की गई मुख्य घोषणा ही यह थी कि सभी पीड़ित विधवाओं को पेंशन मिलेगी. फिर मार्च में कैबिनेट बैठक में भी प्रस्ताव पास हुआ. जुलाई में भी कैबिनेट बैठक में घोषणा की गई. पर सच्चाई यह है कि आठ महीनों में घोषणा के अलावा कुछ और नहीं हुआ.’
बता दें कि राज्य सरकार के 2021-22 के बजट में भी गैस पीड़ितों की पेंशन का जिक्र था. वहीं, 3 दिसंबर 2020 को मुख्यमंत्री शिवराज सिंह ने स्वयं स्वीकारा था कि गैस पीड़ित विधवाओं को मदद की जरूरत है.
उस दौरान उन्होंने कहा था, ‘गैस कांड की पीड़ित विधवाओं को 2019 में बंद कर दी गई 1,000 रुपये प्रतिमाह की पेंशन आजीवन दी जाएगी. अपने पतियों को खोने वाली ये महिलाएं भी बीमारियों से पीड़ित हैं और इन्हें सहायता की जरूरत है.’
बड़ा प्रश्न यह है कि क्या यह आजीवन पेंशन, जीवन समाप्त होने के बाद मिलेगी?
बहरहाल, गैस राहत विधवा पेंशन के हजार रुपये वृद्धाओं को आत्मनिर्भरता का एहसास कराते थे, क्योंकि कई वृद्ध विधवाओं को दो वक्त का खाना भले ही परिवार में मिल जाता हो लेकिन दवा और हाथ खर्च के लिए वे दूसरों पर मोहताज रहती हैं.
70 साल की राधा बाई हमेशा बिस्तर पर ही रहती हैं. वे बताती हैं कि पेंशन के पैसे से उनके रोजमर्रा के खर्चे चल जाते थे. दवा मंगा लेती थी. कोई परेशानी पड़े तो किसी से मांगना नहीं पड़ता था.
इसी तरह 65 साल की इंद्रा देवी का ही उदाहरण लें तो पेंशन के हजार रुपये उनके स्वरोजगार की पूंजी में हिस्सा बनते थे. वे बताती हैं, ‘पेंशन के पैसे से बैग बनाने का सामान चैन, धागे आदि ले आती थी और घर पर ही बैग सिलकर बेच आती थी.’
लेकिन, एक तरफ इंद्रा देवी की पेंशन बंद हुई और दूसरी तरफ लॉकडाउन के चलते उनका काम. नतीजतन, इन चुनौतियों के चलते उनके स्वास्थ्य में भी गिरावट आ गई.
वे बताती हैं, ‘अब दिखता नहीं है. घुटनों से चलते बनता नहीं है. हाथ-पैर जवाब दे गए हैं. हाथों की अंगुलियों में अकड़न आ जाती है. इसलिए कहीं जा नहीं सकते. ज्यादा चलें तो सांस फूलती है. क्या करें, परेशान हैं. पेंशन मिले तो कम से कम बुढ़ापे में हाथ तो नहीं फैलाने पड़ेंगे.’
वहीं, 40 वर्षीय रिजवाना बताती हैं कि पेंशन के हजार रुपये वे अपने बच्चों की पढ़ाई के लिए रखती थीं.
वे कहती हैं, ‘घर में मशीन चलाकर छोटे-पूरे कपड़े सिल लेती हूं. जिससे घर चलाना भी मुश्किल है. ऊपर से बच्चों की पढ़ाई का खर्च. पेंशन के पैसे से थोड़ी-बहुत मदद मिल जाती थी और बच्चों की पढ़ाई हो जाती थी.’
रिजवाना आगे कहती हैं, ‘अभी तो लॉकडाउन में बच्चों की पढ़ाई बंद थी, क्योंकि ऑनलाइन पढ़ाने की गुंजाइश नहीं है. अब स्कूल खुल रहे हैं तो समझ नहीं आ रहा कि पढ़ाई का खर्च कैसे उठाऊं?’
गैस पीड़ित विधवाओं के आंसू इस बात की तस्दीक करते हैं कि देश की सबसे बड़ी औद्योगिक त्रासदी के जख़्म अब तक भरे नहीं हैं. यह जख़्म रह-रहकर तब उभरने लगते हैं जब इन जख़्मों पर मरहम लगाने वाली सरकारें हीं उपेक्षा का नमक छिड़कने लगती हैं. और यह कवायद दशकों से जारी है.
रचना बताती हैं, ‘गैस पीड़ित विधवाओं के लिए पहली बार पेंशन 1985 में शुरू की गई थी. 1997 में बिना किसी कारण बंद कर दी गई. फिर 2011 में मध्य प्रदेश सरकार ने पांच सालों के लिए यह पेंशन शुरू करने के लिए केंद्र सरकार को एक प्रस्ताव भेजा था. सारे विवाद की जड़ वही प्रस्ताव है. केंद्र सरकार ने उस प्रस्ताव पर पांच साल के लिए पेंशन पास कर दी. 2016 में पांच साल पूरे हो गए तो केंद्र सरकार ने हाथ खड़े कर दिए.’
वे आगे कहती हैं, ‘कौन बनाता है ऐसा प्रस्ताव? ऐसा प्रस्ताव बनाना ही बेवकूफी थी. क्या पांच सालों में विधवाओं की समस्याओं का समाधान हो जाना था या फिर सरकार को लगता था कि वे पांच साल ही जिएंगी? इसी कारण पहले भी 2016 से 2017 के बीच में पेंशन बंद हुई थी. फिर पांच सालों के लिए केंद्र सरकार से जो पैसा मिला था, उसके ब्याज से 2019 तक पेंशन दी जाती रही.’
गौरतलब है कि इस मामले में क्या भाजपा और क्या कांग्रेस, दोनों ही दल घिरे हुए हैं. देखा जाए तो 1997 में जब पेंशन बंद हुई, तब भी राज्य में कांग्रेस की सरकार थी और 2019 में भी. 2019 में पेंशन बंद होने को भाजपा ने मुद्दा बनाया था. मार्च 2020 में भाजपा की सरकार आई. आते ही शिवराज ने पेंशन शुरू करने की घोषणा की.
हालांकि डेढ़ साल हो गए, पर शिवराज सिर्फ बार-बार घोषणा करते रहे. घोषणा पूरी नहीं हुई, लेकिन विपक्ष में बैठी कांग्रेस ने इस पर उनसे एक बार भी सवाल नहीं किया, क्योंकि पेंशन तो उन्हीं की सरकार में बंद हुई थी.
यहां एक रोचक बात और रचना बताती हैं. वे कहती हैं, ‘सरकार ने पेंशन हितग्राही विधवाओं की संख्या 5,000 तय कर रखी है. उन 5,000 महिलाओं से अलग ऐसी 535 और महिलाओं ने आवेदन दिए हैं जो कि गैस राहत विधवा पेंशन पाने की हर शर्त पूरी करती हैं. उन महिलाओं को आज तक पेंशन नहीं मिली है और आगे भी मिलेगी या नहीं, कुछ पता नहीं.’
रचना कहती हैं, ‘अजीब नीति है. 5001वीं विधवा महिला को आप क्या बोलेंगे कि तुम विधवा नहीं हो, तुम्हें नहीं देंगे? वास्तव में पेंशन पाना इन महिलाओं का भी हक है. अगर इनमें से कोई भी अदालत चली गई तो भेदभाव के आधार पर वह मुकदमा जीत जाएगी.’
बहरहाल, एक और दुखद पहलू यह है कि गैस राहत पेंशन तो मिल ही नहीं रही है, साथ ही विधवाओं को मिलने वाली सामाजिक सुरक्षा पेंशन (600 रुपये प्रतिमाह) के वितरण में भी धांधली हो रही है, जिससे इन वृद्ध और लाचार महिलाओं की चुनौती और बढ़ गई है.
85 वर्षीय रईसा बी. बताती हैं, ‘दो महीने की पेंशन हो गई थी मेरी. कुछ दिन पहले लेने गई तो उन्होंने एक ही महीने की दी.’
शकीला बताती हैं, ‘जो 600 रुपये मिलते हैं, इस बार वो भी 400 ही दिए. लेकिन, डायरी में 600 लिख दिए और मुझसे अंगूठा लगवा लिया. मैंने आपत्ति जताई तो कहा कि 400 ही आए हैं.’
गम से भरी हुई आवाज में वे लगभग रोते हुए कहती हैं, ‘बहुत धांधली हो रही है बाबू. खाने-पीने को मोहताज हो रहे हैं हम लोग.’
इसी तरह रईसा भी दुखी मन और रुंधे गले से कहती हैं, ‘भैया हमारे घर में तो कोई कमाने वाला भी नहीं है. कमाई का कोई जरिया नहीं है. तीन नवासे थे. शादी हो गई तो अपने-अपने बीवी-बच्चों को लेकर चले गए. बस हम मां-बेटी साथ रहते हैं. अल्लाह ही जानता है कि कैसे हमारा खर्चा चलता है भैया.’
हालांकि, इस संबंध में गैस राहत मंत्री विश्वास सारंग का कहना है कि पेंशन शुरू हो चुकी है. वे कहते हैं, ‘पेंशन शुरू हो चुकी है. आपको किसी ने गलत जानकारी दी है. हमने आखिरी सप्ताह ही कैबिनेट से प्रस्ताव पास किया है. प्रक्रिया में यदि कोई देर लगती है, तो वही देर लग रही है बस.’
जब उनसे पूछा गया कि यदि पेंशन शुरू हो गई है तो पीड़ित महिलाएं प्रदर्शन क्यों कर रही हैं? इस पर वे कहते हैं, ‘यह आश्चर्य वाली बात है, लेकिन हो सकता है कि बहुत सारे लोग राजनीति करना चाहते हैं. वे इस पर राजनीति कर रहे हों. वरना कैबिनेट से प्रस्ताव पास हो चुका है. इसलिए अब यह कोई मुद्दा ही नहीं है.’
इस पर रचना कहती हैं, ‘जिस कैबिनेट का प्रस्ताव मंत्री जी पिछले हफ्ते पास होने की बात कर रहे हैं, वह वास्तव में पिछले महीने पास हुआ था. महीनाभर हो गया, अब तक आ जानी चाहिए थी. कैबिनेट प्रस्ताव का क्या है, वह तो मार्च में भी पास हुआ था लेकिन पेंशन आई क्या?
(लेखक स्वतंत्र पत्रकार हैं.)