मुक्तिबोध जन्मशती आयोजन का बहिष्कार मार्क्सवादी क्यों करने लगे?

लेखक संघों को अब पुराने ढर्रे की अपनी उस राजनीति पर फिर से सोचना चाहिए, जो लेखकों के विवेक पर भरोसा नहीं करती.

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लेखक संघों को अब पुराने ढर्रे की अपनी उस राजनीति पर फिर से सोचना चाहिए, जो लेखकों के विवेक पर भरोसा नहीं करती.

Muktibodh Youtube
गजानन माधव मुक्तिबोध (13 नवंबर 1917 – 11 सितंबर 1964)

मार्क्सवादी विचारधारा के प्रतिष्ठित कवि मुक्तिबोध की जन्मशती बड़े पैमाने पर मनाने का बीड़ा किसी मार्क्सवादी लेखक संगठन ने नहीं, गुजरात के दंगों और असहिष्णु माहौल में बुद्धिजीवियों की हत्याओं के ख़िलाफ़ प्रतिरोध बुलंद करने वाले कवि-आलोचक अशोक वाजपेयी ने उठाया था. दो बड़े आयोजन तय हुए- एक जयपुर में, दूसरा राजनांदगांव (छत्तीसगढ़) में.

लेकिन अजीबोग़रीब बात रही कि आयोजन की हवा निकालने की (अब मानना चाहिए कि सफल) कोशिश मार्क्सवादी लेखकों के ही एक संगठन ने की. प्रलेस के राष्ट्रीय महासचिव और संगठन के प्रदेश अध्यक्ष की मौजूदगी में अगस्त के अंत में जयपुर में हुई एक बैठक में निर्णय हुआ कि “(राज्य सरकार द्वारा संचालित) जवाहर कला केंद्र में 9 से 11 सितम्बर तक अशोक वाजपेयी की सलाह से होने वाले कविता केंद्रित कार्यक्रम में प्रगतिशील लेखक संघ के सदस्यों द्वारा किसी भी रूप में शिरकत नही की जानी चाहिए.”

इस विरोध या बहिष्कार की ख़बरें अख़बारों में छप गईं. कुछ लेखकों ने निर्णय का समर्थन किया, कुछ पसोपेश में पड़ गए. इस बीच जवाहर कला केंद्र के एक अधिकारी का निधन हो गया. कला केंद्र में तुरंत निर्णय हुआ कि मुक्तिबोध संगोष्ठी स्थगित कर दी जाए. अधिकारी के निधन पर हफ़्ते भर बाद होने वाले कार्यक्रम शायद ही कहीं स्थगित होते होंगे, पर मुझे लगता है उठे विवाद के चलते कार्यक्रम स्थगित ही नहीं, बल्कि रद्द हो गया है.

बहुत सम्भव है कि जवाहर कला केंद्र की पेशेवर महानिदेशक पूजा सूद (पूर्व महानिदेशकों की तरह वे आईएएस अधिकारी नहीं हैं) पर हो सकता राज्य सरकार का दबाव बना हो. लेकिन लेखकों में फूट के चलते लेखकों द्वारा अब इस आशंकित दबाव का मुद्दा उठाना, या आयोजन रद्द करने का विरोध करना भी संभव कहां रहा.

ग़ौर करने की बात है कि मुक्तिबोध जन्मशती कविता समारोह का विरोध सिर्फ़ प्रलेस ने किया, अन्य मार्क्सवादी लेखक संगठनों, जनवादी लेखक संघ या जन संस्कृति मंच, से जुड़े लेखकों ने आयोजन में शिरकत का निर्णय अंत तक क़ायम रखा.

प्रलेस के विरोध का आधार क्या था? मुख्यतः यह कि भाजपा सरकार जवाहर कला केंद्र को निजी हाथों में सौंपने की तैयारी कर रही है और स्थानीय कलाकारों की वहां उपेक्षा हो रही है. जहां तक मुझे पता है, निजीकरण का कोई प्रस्ताव अब तक सामने नहीं आया है. ऐसे में एक सुनी-सुनाई बात पर मुक्तिबोध के नाम पर हो रहे राष्ट्रीय स्तर के आयोजन का तिरस्कार कवि के ही अनुयायी लेखकों की तरफ़ से कैसे किया जा सकता है?

आंदोलनरत कलाकारों की मांग से मैं सहमत हो सकता हूं. पर पेशेवर महानिदेशक की जगह आईएएस अधिकारी की नियुक्ति की मांग किसी नज़रिये से मुनासिब नहीं समझता. संस्थान की गतिविधियों के बहिष्कार को भी नहीं. क्या संस्थान में मंचित हो रहा उत्तम नाटक या फ़िल्म का प्रदर्शन मैं अपनी असहमतियों के चलते छोड़ आऊंगा? ऐसा विरोध कब तक किया जा सकेगा? बुरी सरकार पांच साल चल सकती है, उससे ज़्यादा भी (मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ में चल ही रही हैं!).

सच्चाई यह है कि संस्थान हमारे यानी जनता के पैसे से चलते हैं. शासन या प्रबंधन हमारी नज़र में कभी योग्य हो सकता है कभी अयोग्य. लेकिन बहिष्कार से वह बदलता नहीं है. ऐसे में बहिष्कार प्रतिरोध का पलायनवादी तरीक़ा भर बनकर रह जाता है.

ज़रा सोचें, जयपुर संगोष्ठी की इस आयोजना में भाजपा सरकार, यहां तक कि जवाहर कला केंद्र का भी कोई दख़ल न था. पूरी रूपरेखा अशोक वाजपेयी पर छोड़ी गई थी. शायद इसी शर्त पर वे आयोजन करने को राज़ी हुए.

तीनों रोज़ अधिकांशतः प्रगतिगामी सोच के मार्क्सवादी, गांधीवादी और समाजवादी लेखक आमंत्रित थे. सूची देखिए- केदारनाथ सिंह, नरेश सक्सेना, विष्णु खरे, मंगलेश डबराल, आलोक धन्वा, विष्णु नागर, अरुण कमल, लीलाधार मंडलोई, ऋतुराज, नंदकिशोर आचार्य, अपूर्वानंद, नंद भारद्वाज, निर्मला गर्ग, इब्बार रब्बी, ज्योति चावला, विजय कुमार, बोधिसत्व, पारुल पुखराज, अभिषेक शुक्ल, अष्‍टभुजा शुक्ल, उमाशंकर चौधरी, चंद्र प्रकाश देवल, शीन काफ़ निज़ाम, अविनाश मिश्र, जीवन सिंह, गोपेश्वर सिंह, माधव हाड़ा, बाबुषा कोहली, वाज़्दा ख़ान, अशोक कुमार पांडे, विवेक निराला, व्योमेश शुक्ल इत्यादि.

इतने लेखक मुक्तिबोध के नाम पर एक जगह जमा होते, तब क्या देश-प्रदेश में व्याप्त ‘अंधेरे’ की चर्चा न करते? बल्कि इस बीच जुझारू पत्रकार गौरी लंकेश की हत्या भी हुई. संगोष्ठी के तीनों दिन मुक्तिबोध की साहित्यिक और राजनीतिक चेतना के साथ सहज ही हिंसा और सांप्रदायिकता की भर्त्सना से भी भरे होते. निश्चय ही एक बड़ा मौक़ा हमारे हाथ से निकल गया.

समझना मुश्किल है कि इससे प्रलेस को क्या हासिल हुआ होगा? शायद कुछ लेखकों के अहं की तुष्टि, जिन्हें आयोजन में आमंत्रण न था. या यह कि उन्हें शायद अब इसका जवाब न देना नहीं पड़े कि मुक्तिबोध जन्मशती पर आपने क्या किया?

प्रलेस ने वैसे पहली दफ़ा ग़लत फ़ैसला नहीं किया. नागरिक-विरोधी इमरजेंसी का भी इस लेखक संघ ने समर्थन किया था. उससे अंततः लेखकों की नाक ही कटी. ग़लत फ़ैसले से लेखकों में फूट पड़ी और कुछ वर्ष बाद लेखकों का एक अलग संगठन- जनवादी लेखक संघ- खड़ा हो गया.

हाल के वर्षों में नामवर सिंह, केदारनाथ सिंह, मैनेजर पांडे, विष्णु खरे, उदय प्रकाश, मंगलेश डबराल जाने-माने लेखक-आलोचक दक्षिणपंथी लेखकों या नेताओं के साथ तक मंच साझा कर आए हैं. नामवरजी के नब्बे पूर्ति का आयोजन मोदी सरकार द्वारा पोषित संस्थान ने किया था, गृहमंत्री और संस्कृति मंत्री वहां मौजूद थे. नामवरजी के प्रति आदर के बावजूद कई लेखक इस आयोजन में शामिल नहीं हुए. पर यह उनका अपना फ़ैसला था, किसी लेखक संघ ने इसका औपचारिक बहिष्कार नहीं किया.

असल बात यह नहीं कि आप किस मंच पर जाते हैं, देखना यह चाहिए कि वहां आप कहते क्या हैं. अगर आप अपनी शर्तों पर किसी विपरीत विचारधारा के मंच पर भी जाते हैं तो अपने विचारों का दायरा बढ़ाते ही हैं.

जयपुर संगोष्ठी में तो- जैसा कि मैंने पहले कहा- ज़्यादातर संभागी सांप्रदायिकता विरोधी ख़यालों के थे. उस मंच के जुटने में विरोध का यह तत्त्व ढूंढ़ना कि प्रदेश में भाजपा सरकार है, हास्यास्पद दलील थी. लोग वैचारिक असहमति में न भाजपा सरकार की नौकरियां छोड़ सकते हैं, न सड़कों-रेलों-विमानों का सफ़र, न संस्थानों में शिरकत. देश और प्रदेश हमारे हैं. शासन और उसके संस्थानों में लगा धन भी.

मेरा ख़याल है लेखक संघों को अब पुराने ढर्रे की अपनी उस राजनीति पर फिर से सोचना चाहिए, जो लेखकों के विवेक पर भरोसा नहीं करती. उलटे लेखकों को लेखकों से दूर कर करती है. लेखक संघ ज़रूरतमंद साहित्यकारों की मदद जैसे सामाजिक काम कर सकते हैं, लेकिन लेखकों की चेतना को नियंत्रित करने, उसे हांकने का काम उन्हें शोभा नहीं देता. लेखक कम से कम यह निर्णय स्वयं करने क़ाबिल ज़रूर होते होंगे कि कहां जाएं, कहां न जाएं. इसका फ़ैसला कोई संगठन क्यों करे?

समाज में दूसरों के बारे फ़ैसले कुछ तथाकथित सामाजिक संगठन पहले से कर रहे हैं और यह काम ख़तरनाक मोड़ पर पहुंच चुका है. और- आप समझ सकते हैं- यहां मैं सिर्फ लेखक संगठनों की बात नहीं कर रहा.

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं.)