विश्वविद्यालय परिसर को ऐसा होना ही चाहिए जहां भय न हो, आत्मविश्वास हो, ज्ञान की मुक्ति हो और जहां विवेक की धारा कभी सूखने न पाए. तमाम सीमाओं के बावजूद भारतीय विश्वविद्यालय कुछ हद तक ऐसा माहौल बनाने में सफल हुए थे. पर पिछले पांच-सात वर्षों से कभी सुधार, तो कभी ‘देशभक्ति’ के नाम पर ‘विश्वविद्यालय के विचार’ का हनन लगातार जारी है.
चित्त जेथा भयशून्य, उच्च जेथा शिर,
ज्ञान जेथा मुक्त, जेथा गृहेर प्राचीर
आपन प्रांगणतले दिवराशर्वरी
बहुधारे राखे नाइ खण्ड क्षुद्र करि,
जेथा वाक्य हृदयेर उत्स मुखहते
उच्छ् वसिया उठे, जेथा निर्वारित स्रोते
देशे देशे दिशे दिशे कर्मधारा धाय
अजस्र सहस्रबिध चरितार्थताय ––
जेथा तुच्छ आचारेर मरुबालुराशि
बिचारेर स्रोत:पथ फेले नाइ ग्रासि,
( हो चित्त जहां भयशून्य, माथ हो उन्नत,/ हो ज्ञान जहां पर मुक्त, खुला यह जग हो –– / घर की दीवारें बनें न कोई कारा,/ हो जहां सत्य ही स्रोत सभी शब्दों का,/ हो लगन ठीक से ही सब – कुछ करने की,/ हो नहीं रूढ़ियां रचतीं कोई मरुथल –– / पाए न सूखने इस विवेक की धारा.)
उपर्युक्त पंक्तियां रवीन्द्रनाथ ठाकुर की प्रसिद्ध कविता की हैं. वैसे तो यह कविता भावी भारत पर है लेकिन ऊपर की पंक्तियों को ‘विश्वविद्यालय के विचार’ की प्रबल प्रस्तावक और संवाहक के रूप में भी देखा जा सकता है. विश्वविद्यालय परिसर को ऐसा होना ही चाहिए जहां भय न हो, आत्मविश्वास हो, ज्ञान की मुक्ति हो और जहां विवेक की धारा कभी सूखने न पाए.
तमाम सीमाओं के बावजूद थोड़े ही रूप में भारतीय विश्वविद्यालय ऐसा वातावरण निर्मित करने में सफल हो पाए थे. पर पिछले पांच-सात वर्षों से भारत के विश्वविद्यालयों में ‘विश्वविद्यालय के विचार’ का हनन लगातार जारी है. यह सब कभी सुधार के नाम पर तो कभी ‘देशभक्ति’ के नाम पर हो रहा है.
पिछले कुछ वर्षों में भारतीय विश्वविद्यालयों के प्रसंग में घटी घटनाओं को देखा जाए तो महसूस होता है कि किस तेज गति से आलोचनात्मक चिंतन का दमन किया जा रहा है! कभी विश्वविद्यालय परिसर में ‘देशभक्ति’ बढ़ाने के लिए टैंक लगाने की ‘योजना’ सामने आती है तो कभी अत्यधिक ऊंचाई पर भारतीय झंडा लगाने की.
कभी किसी नाटक के प्रदर्शन के कारण आयोजक विभाग को तमाम तरह की दिक्कतों का सामना करना पड़ता है तो कभी किसी विभाग को एकदम अंत समय में आयोजन से हाथ खींचने को विवश कर दिया जाता है. कभी किसी शिक्षक को कक्षा में अपने खुले विचार प्रकट करने के कारण निलंबित तक कर दिया जा रहा है. अनेक अध्यापक और बौद्धिक अब भी जेल में बंद हैं.
इतना ही नहीं ‘शिक्षा मंत्रालय’,‘विश्वविद्यालय अनुदान आयोग’ आदि संस्थाएं, जिनका उद्देश्य विश्वविद्यालयों की कार्यप्रणाली में सहयोग था, वे भी प्राय: ऐसे-ऐसे फ़रमान रोज़ ही जारी करते हैं जिनसे विश्वविद्यालयों की अपनी शांति में बाधा होती है. कभी ‘सर्जिकल स्ट्राइक’ को मनाने का आदेश आता है तो कभी ‘कोरोना टीकाकरण अभियान’ के लिए धन्यवाद कहने का.
ऐसा भी नहीं है कि ऊपरी तौर पर ही यह सब विश्वविद्यालयों के साथ हो रहा है बल्कि आंतरिक रूप से भी उनकी रोजमर्रा की गति को अस्थिर कर दिया जा रहा है. उदाहरण के लिए, विश्वविद्यालयों में ‘नई शिक्षा नीति 2020’ पर अभी ठीक ढंग से संवाद भी नहीं हुआ है, इस के पक्ष-विपक्ष को अच्छी तरह से जाना भी नहीं गया है लेकिन इसे पूरी तरह से लागू करने की ‘कटिबद्धता’ दिखलाई जा रही है.
अभी पूरे देश में ‘नई शिक्षा नीति 2020’ के आलोक में पाठ्यक्रमों के निर्माण पर प्रयास शुरू कर दिया गया है.
उपर्युक्त बिंदुओं पर थोड़ा ठहरकर विचार करने से पता चलता है कि पहले यह माना जाता था कि विश्वविद्यालय एक स्वायत्त संस्था है क्योंकि परिसर में सुकून होगा तभी वे ज्ञान का निर्माण और सामाजिक परिवर्तन की दिशा में आगे बढ़ पाएंगे. इसका सबसे प्रबल उदाहरण यह है कि कितनी भी विकट परिस्थिति क्यों न हो विश्वविद्यालयों में बिना पूर्व अनुमति के पुलिस प्रवेश नहीं करती थी.
आज हाल यह है कि एक कार्यक्रम के आयोजन पर एक ‘विद्यार्थी संगठन’ की धमकी को रोकने की बजाय पुलिस सीधे कुलपति को पत्र लिखकर निर्देश दे रही है. इन सबसे यह ध्यान में आता है कि तमाम सीमाओं के बावजूद एक आलोचनात्मक चिंतन हमेशा विश्वविद्यालय परिसर से सामने आता रहा है जिससे न केवल राजनीतिक सत्ता बल्कि सामाजिक वर्चस्व को भी चुनौती मिलती रही है.
एक दृष्टि से यह भी कहा जा सकता है कि थोड़े-बहुत सामाजिक-राजनीतिक आंदोलनों के साथ मिलकर समाज में आलोचनात्मक दृष्टिकोण को विकसित करने में विश्वविद्यालय सीमित ही सही लेकिन एक भूमिका निभाते रहे हैं. इसका ताज़ा उदाहरण नागरिकता संशोधन क़ानून या राष्ट्रीय नागरिक पंजी (एनआरसी) से जुड़े आंदोलन हैं.
इतना ही नहीं यह भी समझ में आता है कि ‘कोरोना काल’ के पहले (‘कोरोना काल’ के कारण अब भी ज़्यादातर विश्वविद्यालयों में पठन-पाठन ऑनलाइन माध्यम से ही चल रहा है) भारत में कमजोर विपक्ष के होते हुए भी विभिन्न विश्वविद्यालयों के विद्यार्थियों ने अपने प्रतिरोध से एक तरह के विपक्ष की भूमिका निभाई है.
सत्ता विश्वविद्यालयों की आलोचनात्मक प्रवृत्ति को अच्छी तरह से जानती है इसीलिए इसे समाप्त करने के लिए अनेक तरह के उपाय कर रही है. कभी यह तर्क दिया जाता है कि विश्वविद्यालयों में जनता के टैक्स के पैसे का अपव्यय हो रहा है तो कभी सीधे-सीधे इस प्रकार बर्ताव किया जाता है कि विश्वविद्यालय सरकार की एजेंसी या उसके कार्यालय के विस्तार हैं.
इन सबके साथ-साथ केंद्रीय विश्वविद्यालयों को यह कहा गया है कि उन्हें अपनी सेवा-शर्तों में सिविल सेवा नियमों को लागू करना चाहिए. सिविल सेवा के लोगों को सरकारी नीतियों की आलोचना का अधिकार नहीं होता. पता नहीं सिविल सेवक भी अब तक कैसे इसे स्वीकार करते रहे हैं क्योंकि यहां एक सहज प्रश्न यह है कि क्या एक व्यक्ति के ‘सरकारी नौकरी’ में आते ही उसके नागरिक अधिकार, जिसमें संविधान की प्रस्तावना के अनुसार ही विचार एवं अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता शामिल है, समाप्त हो जाते हैं?
आज जबकि पूरी दुनिया में अस्मितामूलक आंदोलनों ने अपनी सृजनात्मकता से यह सामान्य समझ बनाई है कि एक व्यक्ति की अनेक पहचान होती है, तो ऐसी स्थिति में यह कैसे माना जा सकता है कि एक ‘सरकारी कर्मचारी’ केवल और केवल सरकार का नुमाइंदा है? क्या वह अपने कार्यालय के बाहर भी ‘सरकारी कर्मचारी’ ही है या भारत का स्वतंत्र एवं जिम्मेदार नागरिक है?
संवैधानिक दृष्टि से पहले वह भारत का नागरिक है तब वह सरकारी कर्मचारी है. सरकारी कर्मचारी की नियमावली लागू कर विश्वविद्यालय, जो अपनी प्रकृति में ही ज्ञान, तर्क और संवाद की जगह हैं, में अगर आलोचनात्मक चिंतन को रोक दिया जाएगा तो इससे कुछ भी भला समाज को व्यापक तौर पर होनेवाला नहीं है.
यह भी देखा गया है कि सत्ताएं विश्वविद्यालय में विकसित हो रहे विचार से नहीं व्यक्ति से लड़ने लगती हैं और विचारों का विचारों से प्रतिकार करने की जगह व्यक्ति का दमन करने लगती हैं. यहां यह भी स्पष्ट है कि आलोचनात्मक चिंतन का मतलब नकारात्मक या निंदापरक विवेचना नहीं है.
विश्वविद्यालयों का एक प्रमुख काम नीति, ज्ञान और विचार की परीक्षा करना है. यह काम खुलेपन, भरोसे और सहृदयता के बिना संभव ही नहीं है. अगर अध्यापक कक्षा में जाए और उसे यह डर हो कि कहीं कुछ ऐसा न मुंह से निकल जाए जिससे ‘सरकार की भावनाएं आहत हो जाएं’ या किसी सरकारी नीति या कार्यक्रम की आलोचना न हो जाए तो वहीं पर उस का अध्यापन मृत हो जाएगा.
विश्वविद्यालयों का वातावरण तो ऐसा होता है कि किसी एक विचार या नीति के पक्ष में एक अध्यापक शोध कर रहा/रही होता/होती है तो उसी का/की एक सहकर्मी ठीक उस की बगल के कमरे में बैठ कर उस विचार या नीति की सीमाओं पर विचार कर रहा होता/होती है और दोनों अपने-अपने कमरे से निकलते हैं तो एक सहज अभिवादन के पश्चात एक-दूसरे को चाय या भोजन पर आमंत्रित कर सकते हैं. यह खुला वातावरण विश्वविद्यालयों में होना ही चाहिए. पर अफ़सोस है कि सरकार लगातार विश्वविद्यालयों पर शिकंजा कसती जा रही है.
विश्वविद्यालयों में जहां उन्मुक्तता होनी चाहिए, जिस की चर्चा रवीन्द्रनाथ ठाकुर की उपर्युक्त कविता में है, वहीं भय और दमन का परिसर है. जर्मनी के प्रसिद्ध कवि बर्तोल्त ब्रेख्त की प्रसिद्ध कविता ‘जनरल तुम्हारा टैंक एक मजबूत वाहन है’ की पंक्तियां याद आती हैं:
जनरल, आदमी कितना उपयोगी है
वह उड़ सकता है और मार सकता है
लेकिन उसमें एक नुक्स है–
वह सोच सकता है.
बेहद दुखद है कि आज के भारत में सोच-विचार की जगह विश्वविद्यालय को सोच-समझकर ही नष्ट किया जा रहा है.
(लेखक दक्षिण बिहार केंद्रीय विश्वविद्यालय में हिंदी पढ़ाते हैं.)