रघुवीर सहाय की ‘अधिकार हमारा है’ एक नागरिक के देश से संबंध की बुनियादी शर्त की कविता है. यह मेरा देश है, यह ठीक है लेकिन यह मुझे अपना मानता है, इसका सबूत यही हो सकता है कि यह इसके ‘प्रधानमंत्री’ पद पर मेरा हक़ कबूल करता है या नहीं. मैं मात्र मतदाता हूं या इस देश का प्रतिनिधि भी हो सकता हूं?
‘इस जीवन में
मैं प्रधानमंत्री नहीं हुआ
इस जीवन में मैं प्रधानमंत्री के पद का
उम्मीदवार भी शायद हरगिज़ नहीं बनूं
पर होने का अधिकार हमारा है’
पिछले कुछ वर्षों में कई बार रघुवीर सहाय की यह कविता ‘अधिकार हमारा है’ बार-बार याद आती रही है. हर चुनाव के पहले और चुनाव के बाद. इस छोटे-से अंश में ही दूसरी पंक्ति का ‘मैं’ पांचवीं पंक्ति में ‘हम’ में बदल जाता है. इस ‘मैं’ और ‘हम’ का एक रिश्ता है. वह क्या है? ‘मैं’ क्या उस ‘हम’ का हिस्सा है? वह ‘हम’ कौन है जो प्रधानमंत्री के पद की उम्मीदवारी पर दावा पेश कर रहा है?
कौन कह रहा हो सकता है कि इस जीवन में तो प्रधानमंत्री नहीं ही बन सका, प्रधानमंत्री के पद की उम्मीदवारी की बात भी नहीं सोच सकता? कविता का संदर्भ संसदीय जनतंत्र का है, यह स्पष्ट है.
रघुवीर सहाय की अनेक कविताओं पर उनके समय और भूगोल की छाप साफ़ दिखलाई पड़ती है. उन्होंने यह न सोचा कि इससे उनकी कविता का महत्त्व कम हो जाएगा या उसकी सार्वभौमिकता घट जाएगी. तो कविता में यह ‘मैं’ और ‘हम’ कौन है जो बार-बार प्रधानमंत्री के पद पर अपना अधिकार जता रहा है?
वह जाहिर है भारत का या की मतदाता है. नागरिक तो है ही. भारत के नागरिक एक तरह के नहीं हैं. कुछ नागरिक ऐसे हैं जिन्हें कभी यह कहना न पड़े कि भारत के प्रधानमंत्री पद पर उनका अधिकार है. वह इसलिए कि वह अधिकार स्वयंसिद्ध है. यहां व्यक्ति जाहिर है, व्यक्ति मात्र नहीं है, वह व्यक्ति किसी एक समुदाय का सदस्य भी है. बल्कि इस कविता में वह उस समुदाय के सदस्य के तौर भी बोल रहा/रही है.
समुदाय भी भारत में एक आधार पर नहीं बनते. लेकिन सबसे पहचाना हुआ आधार जाति का है. भारत के जातीय समूहों में जिन्हें ‘उच्च जातीय समूह’ कहेंगे, उन्हें यह दोहराने की जरूरत ही नहीं, इस पर बल देने की मजबूरी नहीं कि प्रधानमंत्री के पद पर वे दावा कर सकते हैं. वह इसलिए भारत में आज़ादी के बाद से जितने प्रधानमंत्री हुए, वे इन्हीं जातीय समूहों में से हुए इसलिए इन समूहों को तो इसे लेकर फिक्र नहीं.
प्रधानमंत्री भी सिर्फ प्रधानमंत्री नहीं. वह प्रतीक ही है. प्रतीक राजनीतिक सत्ता का. सत्ता तंत्र में सर्वोच्च स्थिति का. सर्वोच्च से ज़्यादा प्रभावकारी स्थिति का. जिस पद से आप समाज और राज्य के जीवन की योजनाएं बना सकते हैं, उसे संचालित कर सकते हैं, बना और बदल सकते हैं, उस पद का. या वैसे पदों का.
जैसा हमने शुरू में कहा, कविता का संदर्भ संसदीय जनतंत्र का है. चुनाव पर आधारित जनतंत्र का. अन्य जनतंत्रों की तरह ही भारत में वयस्क मताधिकार रखने वाले नागरिकों द्वारा नियमित रूप से चुनावों में अपने मत के द्वारा अपनी सरकारें चुनने का रिवाज है.
वे अपने प्रतिनिधि चुनते हैं. उन प्रतिनिधियों में ही जिनका बहुमत होता है, वे सरकार बनाते हैं. लेकिन प्रतिनिधि भी, वह पार्षद हो, विधायक हो या सांसद हो, एक प्रभावकारी स्थिति है.
मताधिकार तो सार्वभौम है. इस मामले में भारत का संविधान क्रांतिकारी था कि उसने पहली ही बार में भारत के हर वयस्क, स्त्री हो या पुरुष, धनी या गरीब, किसी भी सामाजिक स्थिति का, साक्षर या निरक्षर को मताधिकार दिया. यह मामूली बात न थी अगर दुनिया में दूसरे जनतंत्रों का इतिहास सामने रखें जहां ये अधिकार क्रमशः ही उन समूहों तक मिले जिन्हें श्रेष्ठजन के आगे हीन माना जाता था.
निरक्षर, संपत्तिहीन, औरतें और काले लोग: इन्हें बराबर का मताधिकार लेने के लिए लंबा संघर्ष करना पड़ा. मताधिकार के बाद प्रतिनिधि के रूप में दावेदारी का. भारत में ये दोनों अधिकार एकबारगी सबको दिए गए.
लेकिन अधिकार देने से क्या वे वास्तविक रूप में मिले भी? तो वे कौन हैं जो रघुवीर सहाय की इस कविता में आज़ाद भारत के 25 साल गुजर जाने पर भी मत तो देते हैं, लेकिन प्रतिनिधि के रूप में चुने जाने को लेकर आश्वस्त नहीं हैं? वह कौन है, इसका कुछ अंदाज कविता का तीसरा अंश देता है,
‘भारत के कोई कोने में
मर कर बेमौत जनम लेकर
भारत के कोई कोने में
खोजता रहूंगा वह औरत
काली नाटी सुंदर प्यारी
जो होगी मेरी महतारी’
काली, नाटी और महतारी शब्दों से ही उस ‘मैं’ और ‘हम’ की पहचान जाहिर है. कविता यहां पाठक को भी कुछ सोचने और खोजने के लिए जगह छोड़ देती है या एक पेंच बना देती है. आगे वह ‘मैं’ कहता है,
‘मैं होऊं मेरी मां होवे
दोनों में से कोई होवे
अधिकार हमारा है
भारत का प्रधानमंत्री
होने का अधिकार हमारा है.’
यह मैं क्या दलित ‘मैं’ है या आदिवासी ‘मैं’? कविता का साल देखें तो कह सकते हैं कि बीसवीं सदी के नवें दशक की शुरुआत में इस ‘मैं’ में ‘पिछड़े’ या अन्य पिछड़े समुदाय के ‘मैं’ भी शामिल हैं.
कविता ने अपना भूगोल स्थिर कर दिया है यह लिखकर कि ‘भारत का भावी प्रधानमंत्री होने का अधिकार हमारा है’ लेकिन मुझे यह कविता अमेरिका के संदर्भ में याद आई पहली बार बराक ओबामा के राष्ट्रपति चुने जाने पर. अमेरिका और पूरी दुनिया के काले लोगों की नम आंखों को देखकर.
शब्द बदलकर यह कविता अमेरिका के काले लोगों की तरफ से कह सकती थी, अमेरिका का भावी प्रधानमंत्री होने का अधिकार हमारा है’ में से भावी हटा दीजिए. वह भावी अब वर्तमान है. 2019 में जब एक काली-एशियाई औरत अमेरिका की उपराष्ट्रपति पद की शपथ ले रही थी तो इस ‘मैं’ की शक्ल थोड़ी बदली थी. लेकिन रघुवीर सहाय की कविता ने इस मौके का भी अनुमान किया था,
“मैं होऊं मेरी मां होवे
दोनों में से कोई होवे
अधिकार हमारा है
भारत का प्रधानमंत्री
होने का अधिकार हमारा है.’
एक मां, वह काली, प्यारी महतारी उपराष्ट्रपति हो सकती थी. नहीं, हो चुकी थी. तब वह राष्ट्रपति भी तो हो सकती है. वह अधिकार उसका है. यही कहा कमला हैरिस ने, कि यह जो अमेरिकी जनतंत्र में पहली बार हुआ, वह अंतिम बार होकर नहीं रह जाएगा.
कविता एक नागरिक के देश या राष्ट्र से संबंध की बुनियादी शर्त की कविता है. यह मेरा देश है, यह तो ठीक लेकिन यह देश मुझे अपना देश मानता है, इसका सबूत यही हो सकता है कि यह भारत के ‘प्रधानमंत्री’ पद पर मेरा दावा, मेरा अधिकार कबूल करता है या नहीं. क्या मैं मात्र मतदाता हूं या मैं इस देश का प्रतिनिधि भी हो सकता हूं?
अमेरिका में बराक ओबामा के चुनाव लड़ते समय यह कविता याद आई क्योंकि बार-बार कहा जा रहा था कि ओबामा अमेरिका के राष्ट्रपति पद का सपना देख ही कैसे सकते थे. वे ठहरे काले व्यक्ति, अफ्रीकी मूल के और उनमें मुसलमान अंश भी है. फिर अमेरिका, जिसका रंग गोरा है, ओबामा को यह पद दे ही कैसे सकता है?
यही बात तब कही गई जब कमला हैरिस ने उपराष्ट्रपति पद पर दावा पेश किया. कमला हैरिस की यह हिमाकत कि भारतीय-जमैकन मूल की होकर वे गोरे अमेरिका के नेतृत्व का सपना देखें! लेकिन कमला ने कहा, यह अधिकार हमारा है. और वह अधिकार लिया. और अमेरिका की मतदाता जनता ने इस दावे को स्वीकार किया.
बराक ओबामा और कमला हैरिस के दावे को स्वीकार करके उनकी तरह के ‘मैं’ और अमेरिका के रिश्ते को पक्का किया गया.
इंग्लैंड में प्रीति पटेल, भारतीय मूल की हिंदू गुजराती पृष्ठभूमि के होते हुए कह सकती हैं, ‘इंग्लैंड की भावी प्रधानमंत्री होने का अधिकार हमारा है.’ या उन्हें इस पर ज़ोर देने की ज़रूरत ही क्यों हो? वे उस देश की गृहमंत्री हैं. भारतीय मूल के ऋषि सुनाक इंग्लैंड के वित्त मंत्री हैं. कनाडा का एक सिख कह सकता है कि प्रधानमंत्री होने का अधिकार हमारा है.
कविता लेकिन भारत में लिखी गई है. कवि के मन में शायद उसी का मुल्क रहा हो. उसी के देश भारत के ‘कोई कोने में बेमौत जनम लेकर’ अपनी उस काली, नाटी, सुंदर प्यारी मां को खोजते हुए शख्स की तस्वीर उनके मन में होगी जिसे कहना पड़ रहा है कि भारत के भावी प्रधानमंत्री बनने का उसका अधिकार है.
तो भारत में जितने ‘मैं’ हैं, उनमें से कौन-कौन ‘मैं’ अभी भी रघुवीर सहाय के स्वर में स्वर मिलाकर यह दावा आज पेश करेगा?
मुझे 2017 में यह कविता याद आई जब गुजरात की विधानसभा के लिए चुनाव हो रहा था. भारतीय जनता पार्टी ने अपने मतदाताओं को डराया, गुजरात की जनता को डराया कि अगर उसे वोट नहीं दिया, अगर कांग्रेस पार्टी को वोट दिया तो अहमद पटेल मुख्यमंत्री बन जाएंगे. मानो अहमद पटेल का अधिकार मुख्यमंत्री बनने का हो ही नहीं सकता.
2017 के बहुत पहले 2004 में जब कांग्रेस के नेतृत्ववाला गठबंधन चुनकर आया तो हाय-तौबा मच गई, सोनिया गांधी, एक विदेशी मूल की ईसाई औरत का भारत के प्रधानमंत्री पद पर दावा स्वीकार ही कैसे किया जा सकता है? सोनिया गांधी पीछे हट गईं. अपनी दावेदारी उन्होंने पेश ही नहीं की. पीछे वे हटीं कि भारत हटा?
2017 के चार साल बाद असम के विधानसभा चुनाव में फिर भाजपा ने असम की जनता को डराया, अगर हमें वोट नहीं दिया तो बदरुद्दीन अजमल मुख्यमंत्री बन जाएंगे. तो बदरुद्दीन अजमल नाम का व्यक्ति, जो असम का, भारत का, मतदाता है, क्या असम के मुख्यमंत्री पद पर दावा कर ही नहीं सकता? फिर उसका और असम का क्या रिश्ता है?
2021 के भारत में रघुवीर सहाय की इस कविता के ‘मैं’ को पहचानना कठिन नहीं है. आज के भारत में एक उमर खालिद, एक गुलफिशां, एक सिद्दीक कप्पन, एक इशरत जहां की इस दावेदारी को रघुवीर सहाय के स्वर में हम फिर सुनें,
‘मैं होऊं मेरी मां होवे
दोनों में से कोई होवे
अधिकार हमारा है
भारत का भावी प्रधानमंत्री
होने का अधिकार हमारा है.’
सुनें और कहें, ‘इंशा अल्लाह!’
(लेखक दिल्ली विश्वविद्यालय में पढ़ाते हैं.)