दिल्ली दंगा: आरोप तय करने में अन्य एफ़आईआर से बयान लेने पर अदालत ने पुलिस को फटकारा

दिल्ली पुलिस ने फरवरी 2020 में हुए दंगे मामले में कथित संलिप्तता के लिए एक आरोपी को आठ मई 2020 को गिरफ़्तार किया था. आरोपी की पैरवी कर रहे वकील ने अदालत को बताया कि पुलिस द्वारा किसी अन्य एफ़आईआर से बयान लेना भारतीय संविधान के तहत उनके मुवक्किल के अधिकारों का उल्लंघन है.

फरवरी 2020 में उत्तर-पूर्वी दिल्ली में हुई हिंसा. (फाइल फोटो: पीटीआई)

दिल्ली पुलिस ने फरवरी 2020 में हुए दंगे मामले में कथित संलिप्तता के लिए एक आरोपी को आठ मई 2020 को गिरफ़्तार किया था. आरोपी की पैरवी कर रहे वकील ने अदालत को बताया कि पुलिस द्वारा किसी अन्य एफ़आईआर से बयान लेना भारतीय संविधान के तहत उनके मुवक्किल के अधिकारों का उल्लंघन है.

फरवरी 2020 में उत्तर-पूर्वी दिल्ली में हुई हिंसा. (फाइल फोटो: पीटीआई)

नई दिल्लीः दिल्ली की एक स्थानीय अदालत ने दो सितंबर को पिछले साल हुए उत्तर-पूर्वी दिल्ली दंगों के आरोपी गुलफाम के खिलाफ आरोप तय करने की सुनवाई के दौरान एक अन्य एफआईआर से बयान लेने पर पुलिस को फटकार लगाई.

एफआईआर संख्या 86/2020 के तहत दायर आरोपों की सुनवाई के दौरान गुलफाम को उनके बयान के आधार पर आठ मई 2020 को गिरफ्तार किया गया था.

लाइव लॉ की रिपोर्ट के मुताबिक, हालांकि, गुलफाम को एफआईआर संख्या 90/2020 के तहत गिरफ्तार कर उनके खिलाफ आरोप लगाए गए थे. इन आरोपों को आईपीसी की धारा 436 के तहत दर्ज किया गया था, जो किसी घर को नष्ट करने के इरादे से आग या विस्फोटक पदार्थ के इस्तेमाल से संबंधित है.

अतिरिक्त सत्र न्यायाधीश (एएसजे) विनोद यादव ने कहा कि यह समझ से परे है कि अभियोजन पक्ष ने एफआईआर संख्या 86/2020 के तहत गवाह के बयान लिए और उन्हें एफआईआर संख्या 90/2020 के तहत मामले की सुनवाई में इस्तेमाल किया.

आरोपी की पैरवी कर रहे वकील अनीस मोहम्मद ने अदालत को बताया कि पुलिस द्वारा किसी अन्य एफआईआर से बयान लेना भारतीय संविधान के अनुच्छेद 20 (2) (दोहरे दंड से संरक्षण यानी किसी भी व्यक्ति को एक ही अपराध के लिए एक से अधिक बार दंडित नहीं किया जा सकता) के तहत गुलफाम के अधिकारों का उल्लंघन है.

अदालत ने कहा कि अगर इस उल्लंघन को दरकिनार भी कर दें और गवाह के बयान को महत्व दें तो भी आईपीसी की धारा 436 के तहत यह मामला नहीं बनता.

अतिरिक्त सत्र न्यायाधीश यादव ने आईपीसी की धारा 436 के तहत गुलफाम को आरोपमुक्त कर दिया. हालांकि, उन्होंने कहा कि आईपीसी की धारा 147 (दंगा करने), 148 (घातक हथियार से दंगा करने), 149 (गैरकानूनी रूप से इकट्ठा होने) और 120(बी) (आपराधिक साजिश) के तहत लगाए गए आरोप जारी रहेंगे और उनकी मुख्य मेट्रोपॉलिटन मजिस्ट्रेट (सीएमएम) के समक्ष सुनवाई होगी.

इंडियन एक्सप्रेस की रिपोर्ट के मुताबिक, हालांकि, वकील अनीस मोहम्मद ने तर्क दिए कि गुलाम को एफआईआर संख्या 86/2020 के तहत उनके बयान के आधार पर गिरफ्तार किया गया था और दंगाई भीड़ में उनकी संलिप्ततता का और कोई साक्ष्य मौजूद नहीं है.

दूसरी तरफ अभियोजन पक्ष ने पुलिस का बचाव करते हुए कहा कि वे दोनों क्षेत्र (दोनों एफआईआर में शामिल) जहां घटनाएं हुईं, वह एक दूसरे के पास थीं और दोनों ही इलाकों में गैरकानूनी रूप से लोग इकट्ठा हुए थे.

सुनवाई के दौरान अतिरिक्त सत्र न्यायाधीश ने मामले की सुनवाई के दौरान फरवरी 2020 में हुए दंगों से जुड़े मामले की जांच में कोई प्रगति नहीं होने पर जांचकर्ता एजेंसी को भी फटकार लगाई.

उन्होंने कहा कि मामले में और गिरफ्तारियां नहीं हुईं और जांचकर्ता एजेंसी भी अभी भी वहीं पर खड़ी है, जहां पहले (अक्टूबर 2020) खड़ी थी.

अदालत ने मुख्य मेट्रिपोलिटन मजिस्ट्रेट को निर्देश दिए कि या तो वह मामले की सुनवाई खुद करे या इसे किसी अन्य सक्षम अदालत या मेट्रोपॉलिटन मजिस्ट्रेट को सौंपे.

अदालत ने आरोपी को 10 सितंबर को मुख्य मेट्रिपोलिटन मजिस्ट्रेट के समक्ष पेश होने के निर्देश दिए.

बहरहाल अतिरिक्त सत्र न्यायाधीश विनोद यादव की इस टिप्पणी से पहले दिल्ली दंगों के विभिन्न मामलों से निपटने के तरीके को लेकर पुलिस पर अदालत हाल के दिनों में कई बार सवाल उठा चुकी है.

दिल्ली की एक अदालत ने बीते दो सितंबर को कहा था कि जब इतिहास विभाजन के बाद से राष्ट्रीय राजधानी में सबसे भीषण सांप्रदायिक दंगों को देखेगा, तो उचित जांच करने में पुलिस की विफलता लोकतंत्र के प्रहरी को पीड़ा देगी.

अदालत ने यह भी कहा था कि मामले की उचित जांच करने में पुलिस की विफलता करदाताओं के समय और धन की ‘भारी’ और ‘आपराधिक’ बर्बादी है.

इससे पहले बीते 28 अगस्त को अदालत ने एक अन्य मामले की सुनवाई करते हुए कहा था कि दिल्ली दंगों के अधिकतर मामलों में पुलिस की जांच का मापदंड बहुत घटिया है.

दिल्ली दंगों से जुड़े एक मामले की सुनवाई करते हुए अतिरिक्त सत्र न्यायाधीश विनोद यादव ने कहा था कि पुलिस आधे-अधूरे आरोप-पत्र दायर करने के बाद जांच को तार्किक परिणति तक ले जाने की बमुश्किल ही परवाह करती है, जिस वजह से कई आरोपों में नामजद आरोपी सलाखों के पीछे बने हुए हैं. ज्यादातर मामलों में जांच अधिकारी अदालत में पेश नहीं नहीं हो रहे हैं.