बीते दिनों कश्मीर के बारे में ‘विटनेस’ नाम की एक किताब आई है. ये किताब कश्मीर की बदलती स्थितियों की गवाह है. तस्वीरों के माध्यम से ये कश्मीर के 30 साल (1986-2016) के घटनाक्रमों को बयान करती है.
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इस किताब में शामिल की गई जावेद डार की तस्वीरों की बात करें तो उनमें कश्मीर का दर्द झलकता है. जैसे जावेद ने एक महिला की तस्वीर ली है, जिसमें वो एक क्षतिग्रस्त घर के सामने खड़ी हैं. उस घर में आग लगी हुई है और धुंआ उठ रहा है. इतनी भयावह परिस्थिति में वह असहाय नज़र आ रही हैं, लेकिन उनका चेहरा बेहद शांत नज़र आता है.
इस किताब का पूरा नाम ‘विटनेस/ कश्मीर 1986-2016/ नाइन फोटोग्राफर्स’ है. इसे डॉक्यूमेंट्री फिल्ममेकर संजय काक ने संकलित किया है. इस किताब को नौ फोटोग्राफरों की तस्वीरों से आकार मिला है.
ये फोटोग्राफर हैं- मेराज़-उद-दीन, जावीद शाह, डार यासीन, जावेद डार, अल्ताफ़ क़ादरी, सुमित दयाल, शौक़त नंदा, सईद शहरयार, अज़ान शाह. इन फोटोग्राफरों की तस्वीरें कश्मीर की आम ज़िंदगी और वहां की प्रमुख घटनाओं की गवाह हैं, जिसे इन्होंने अपने कैमरे में क़ैद किया है.
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मेराज़ की तस्वीरें ऐतिहासिक दस्तावेज़ की तरह हैं. इनसे पता चलता है कि कश्मीर में किस तरह आतंकवाद ने अपनी जड़ें जमाईं. उनकी एक तस्वीर मक़बूल भट्ट को मौत की सज़ा सुनाने वाले जस्टिस नीलकंठ गंजू का शव सड़क पर पड़ा है और लोग खड़े तमाशा देख रहे थे.
1993 में बिजबेहारा की घटना, जब सुरक्षा बलों ने लोगों पर गोलियां चला दी थीं. मेराज़ उस वक़्त बिजबेहारा में ही थे. एक तस्वीर में सड़क पर बिखरे लोगों के जूते-चप्पल नज़र आ रहे हैं, जिन्हें सेना का एक जवान देख रहा है. ये तस्वीर उस भयावह घटना की झलक दिखाती है.
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किताब में कुछ कमियां भी नज़र आती हैं. जैसे कश्मीरियों के दर्द को तो दिखाया गया है, लेकिन सुरक्षा बलों के संघर्ष और उनकी दिक्कतों को दर्ज़ करती तस्वीरों की कमी नज़र आती है. इसके अलावा कश्मीरी पंडितों के पलायन की तस्वीरें भी न के बराबर हैं, जबकि ये कश्मीर का बड़ा मुद्दा है. कश्मीरी पंडितों के नाम पर उनके पलायन के बाद खाली घरों की कुछ तस्वीरें ही नज़र आती है. इन्हें छोड़ दें तो ये किताब कश्मीर और वहां की समस्याओं को बखूबी दर्शाता है.
किताब के संपादक संजय काक कहते हैं, ‘उन दशकों की कुछ महत्वपूर्ण और बहुचर्चित घटनाएं उस समय की फोटो पत्रकारिता में दर्ज़ नहीं हैं. उदाहरण के लिए घाटी से दो लाख पंडितों का पलायन. ये डर और हिंसा से पीड़ित कश्मीरी बोलने वाले हिंदू अल्पसंख्यक थे. इनका पलायन 90 के दशक से शुरू हुआ और पूरे दशक जारी रहा. ऐसा लगता है कि बड़े पैमाने पर हुए इस पलायन को दर्ज़ नहीं किया गया. इस वजह से ये कश्मीर और भारतीय मीडिया के फोटोग्राफी अभिलेखों में नहीं मिलता.’