अंतरराष्ट्रीय स्तर पर आई ढेरों रिपोर्ट्स में एक समान बात यह है कि भारत में नरेंद्र मोदी के शासन में मानवाधिकार समूहों पर दबाव बढ़ा है, पत्रकारों और कार्यकर्ताओं को धमकाया गया है और मुसलमानों के प्रति घृणा में उल्लेखनीय वृद्धि हुई है. इस तरह के अभियान की प्रेरणा जो भी हो, मानवाधिकारों के इन उल्लंघनों के बारे में कुछ करने की ज़रूरत है.
कोविड -19 महामारी ने भारत की अर्थव्यवस्था को नकारात्मक और कठिन रूप से प्रभावित किया है. इसने रोजगार और विकास दर पर एक बड़ा प्रभाव पैदा किया, जो पहले से ही जीएसटी के कारण संरचनात्मक तौर से प्रभावित थे. आर्थिक रिपोर्टों ने चालू वित्त वर्ष के लिए भारत के आर्थिक विकास के अनुमान को 300 आधार अंकों से घटाकर 9.5 प्रतिशत कर दिया है.
आईएमएफ ने अपने प्रमुख वर्ल्ड इकोनॉमिक आउटलुक (डब्ल्यूईओ) रिपोर्ट के नवीनतम संस्करण में कहा कि ‘मार्च-मई के दौरान गंभीर कोविड लहर और उस झटके चलते कम हुए आत्मविश्वास को वापस पाने की धीमी गति के कारण भारत में विकास की संभावनाओं में गिरावट दर्ज की गई है.’ इस विषम आर्थिक परिदृश्य के साथ-साथ पिछले कुछ वर्षों में वैश्विक मंचों पर भारत की छवि खराब हुई है.
यूएनडीपी द्वारा जारी एक रिपोर्ट के अनुसार 2020 के मानव विकास सूचकांक (स्वास्थ्य, शिक्षा और जीवन स्तर) में भारत 189 देशों में एक स्थान गिरकर 131 पर आ गया है.
नागरिक स्वतंत्रता पर ‘लोकतांत्रिक गिरावट’ और ‘नागरिक अधिकारों’ पर पाबंदियों के कारण भारत 2020 में इकोनॉमिस्टके लोकतंत्र सूचकांक में 53 वें स्थान पर फिसल गया. द इकोनॉमिस्ट इंटेलिजेंस यूनिट (ईआईयू) ने भारत को ‘त्रुटिपूर्ण लोकतंत्र‘ के रूप में वर्गीकृत किया. रिपोर्टर्स विदाउट बॉर्डर्स ने 2021 में भारत को 142 वें स्थान पर रखा जो 2019 के बाद से दो स्थानों की गिरावट को दर्शाता है.
रॉबर्ट फॉरेस्ट के मिंडोरो फाउंडेशन के स्वामित्व वाले ऑस्ट्रेलिया स्थित एनजीओ ‘वॉक फ्री फाउंडेशन’ ने आधुनिक समय की गुलामी के अपने माप में भारत को अपने वैश्विक दासता सूचकांक में शीर्ष पर, चीन को दूसरे और पाकिस्तान और तीसरे स्थान पर दिखाया है. इंटरनेशनल लेबर ऑर्गेनाइजेशन (आईएलओ) ने अभी तक इस सूचकांक को मान्यता नहीं दी है, लेकिन इसका उल्लेख भारत की छवि को नुकसान पहुंचाता रहेगा.
वैश्विक राजनीतिक अधिकारों और स्वतंत्रता पर अपनी वार्षिक रिपोर्ट में अमेरिका स्थित गैर-लाभकारी फ्रीडम हाउस ने भारत को एक स्वतंत्र लोकतंत्र से ‘आंशिक रूप से मुक्त लोकतंत्र’ में तब्दील होते हुए बताया है. ह्यूमन राइट्स वॉच ने दलितों, अल्पसंख्यकों, आदिवासियों, महिलाओं, एलजीबीटीक्यू+ और जम्मू कश्मीर में उत्पीड़न, गिरफ्तारी और अभियोजन से संबंधित सरकारी कार्रवाइयों पर बड़ी संख्या में दस्तावेज तैयार किए हैं.
संयुक्त राष्ट्र मानवाधिकार उच्चायुक्त के कार्यालय ने ‘भारतीय प्रशासित कश्मीर और पाकिस्तान प्रशासित कश्मीर में मानवाधिकारों की स्थिति’ पर दो रिपोर्ट जारी की. इनमें जम्मू-कश्मीर में भारत के भीड़ को नियंत्रित करने के उपायों, कथित गैर-न्यायिक हत्याओं की जांच और सुरक्षा बलों के लिए कानूनी छूट के बारे में सवाल उठाए गए हैं. ये रिपोर्ट जम्मू कश्मीर और पीओजेके की स्थिति के बीच समानताएं बताती हैं.
विभिन्न संयुक्त राष्ट्र के विशेष दूतों और एमनेस्टी द्वारा इसी तरह के दस्तावेज और भारत में धार्मिक स्वतंत्रता के उल्लंघन पर अमेरिकी कांग्रेस समितियों और यूएससीआईआरएफ के समक्ष नियमित बयानों ने दुनिया में भारत की छवि को नुकसान पहुंचाया है. यह न्यूयॉर्क टाइम्स, वॉशिंगटन पोस्ट, वॉल स्ट्रीट जर्नल, इकोनॉमिस्ट आदि जैसे प्रकाशनों के लेखों में भी दिखाई दे रहा है, जो 2019 में कश्मीर के दर्जे में हुए बदलाव, सीएए के बनने और असम में एनआरसी होने के बाद से महत्वपूर्ण लेख लिख रहे हैं. दिलचस्प बात यह है कि वैश्विक मीडिया का ध्यान राम मंदिर के फैसले पर लंबे समय तक केंद्रित नहीं रहा, जिसके कारण अंततः अयोध्या में निर्माण शुरू हुआ.
सीएए की अंतरराष्ट्रीय स्तर पर निंदा की गई और दुनिया भर में इसके खिलाफ विरोध प्रदर्शन हुए. संयुक्त राष्ट्र मानवाधिकार उच्चायुक्त के कार्यालय ने इस कानून को ‘बुनियादी तौर से भेदभावपूर्ण’ कहा. फरवरी 2020 में संयुक्त राष्ट्र महासचिव ने कहा कि वे सीएए के लागू होने के बाद भारत में धार्मिक अल्पसंख्यकों के भविष्य के बारे में चिंतित हैं. उनका कहना था कि इससे स्टेटलेस होने का जोखिम खड़ा हो सकता है.
मार्च 2020 में संयुक्त राष्ट्र के मानवाधिकार आयुक्त मिशेल बैचेलेट ने सीएए मामले में एमिकस क्यूरी (न्यायमित्र) नियुक्त करने के लिए भारतीय सुप्रीम कोर्ट में अपील दायर की. इससे पहले जनवरी 2020 में यूनाइटेड स्टेट्स कांग्रेस ने वैश्विक धार्मिक उत्पीड़न पर सुनवाई की और नागरिकता कानून और नागरिकता सत्यापन के लिए हो रही प्रक्रियाओं पर चिंता जताई थी.
सीएए आने के बाद यूरोपीय संसद ने इस कानून पर रखे गए एक संयुक्त प्रस्ताव पर बहस की, जहां इसे ‘भेदभावपूर्ण प्रकृति और खतरनाक रूप से विभाजनकारी’ बताया गया.
अंतरराष्ट्रीय धार्मिक स्वतंत्रता के लिए अमेरिकी आयोग (यूएससीआईआरएफ) ने कहा कि अमेरिकी सरकार को भारत के ‘गृह मंत्री और अन्य प्रमुख नेताओं के खिलाफ प्रतिबंधों पर विचार करना चाहिए। मार्च में हुई एक सुनवाई के दौरान एक आयुक्त ने चिंता जताई कि इस कानून के ‘एक नियोजित राष्ट्रीय जनसंख्या रजिस्टर और संभावित राष्ट्रव्यापी एनआरसी के साथ मिलकर लागू होने का नतीजा भारतीय मुसलमानों को व्यापक पैमाने पर मताधिकार से वंचित करना हो सकता है.’
यूएससीआईआरएफ ने लगातार दो वर्षों तक भारत को विशेष चिंता वाले देशों कंट्रीज़ ऑफ पर्टिकुलर कंसर्न) की सूची में रखकर मोदी विरोधी आवाज़ों की चिंता को और बढ़ा दिया है. इन रिपोर्ट में गोहत्या विरोधी कानून, ‘लव जिहाद’ कानून और धर्मांतरण विरोधी कानूनों का प्रमुख तौर पर उल्लेख है. कुछ अवसरों पर यूएससीआईआरएफ के अध्यक्ष टोनी पर्किन्स ने सार्वजनिक रूप से भारत सरकार से ‘आगे की हिंसा को रोकने के लिए कार्रवाई करने’ का आह्वान किया है.
मार्च 2020 में देश में कोविड-19 के प्रसार को धार्मिक आधार पर तैयार किया गया था. भारत के 20 करोड़ मुस्लिम नागरिकों ने देश के कोविड-19 प्रकोप के लिए खुद को दोषी पाया. सत्तारूढ़ दल के सदस्यों जैसे कि उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री और असम के स्वास्थ्य मंत्री ने तब्लीगी जमात और सामान्य रूप से मुसलमानों के खिलाफ टिप्पणी की, उन्हें ‘कोरोना जिहादी‘ कहा.
इन सभी घोषणाओं और घटनाओं का इस्तेमाल विदेशी गैर सरकारी संगठनों, थिंक टैंक, बहुपक्षीय संस्थानों और प्रकाशनों के एक महत्वपूर्ण वर्ग द्वारा किया गया था, खासकर अमेरिका में. वर्तमान सरकार अपनी नीतियों की किसी भी आलोचना के लिए कम सहनशीलता रखती है. इसने किसी भी घरेलू मामले पर विदेशी आलोचना को दरकिनार करने के लिए संप्रभुता के चोले का इस्तेमाल करने का विकल्प चुना है. सरकार के समर्थकों का दावा है कि ये सभी बयान और रिपोर्ट भारत को बदनाम करने की एक बड़ी योजना का हिस्सा हैं, विशेष रूप से पश्चिमी दुनिया के तत्वों द्वारा, जो भारत में गैर-भाजपाई दलों और व्यक्तियों के साथ करीब से जुड़े हुए हैं.
अनेक लोग इस बात पर को लेकर बदगुमान रहते हैं कि लोकतंत्र को परिभाषित करने के लिए कुछ विदेशी प्रकाशन ही हमेशा सामने क्यों आते हैं, निस्संदेह ‘लोकतंत्र’ एक व्यक्तिपरक मामला है, लेकिन भारत की गिरावट परेशान करने वाली है क्योंकि अतीत में इसे मल्टी-एथनिक लोकतंत्र का माना जाता था.
सभी रिपोर्टों में एक समान बात यह है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की निगरानी में मानवाधिकार समूहों पर दबाव बढ़ा है, पत्रकारों और कार्यकर्ताओं को धमकाया गया है और मुसलमानों के प्रति घृणा में उल्लेखनीय वृद्धि हुई है. इस तरह के अभियान की प्रेरणा जो भी हो, मानवाधिकारों के इन उल्लंघनों के बारे में कुछ करने की जरूरत है.
इसको लेकर होने वाली कार्रवाई में हिंसा के दोषियों को न्यायसंगत और उचित सजा देने से लेकर सरकारी एजेंसियों द्वारा सबूतों के साथ इनका जवाब देने से लेकर भारत द्वारा दुनिया के अन्य हिस्सों में मानवाधिकारों के उल्लंघन को उजागर करने वाले गैर सरकारी संगठनों की स्थापना करना हो सकता है.
(वैशाली बसु शर्मा रणनीतिक और आर्थिक मसलों की विश्लेषक हैं. उन्होंने नेशनल सिक्योरिटी काउंसिल सेक्रेटरिएट के साथ लगभग एक दशक तक काम किया है.)