क्या हिंसा की संस्कृति अब भारत की पहचान बनती जा रही है

अगर किसी के ख़िलाफ़ शक़ और नफ़रत समाज में भर दी जाए तो उस पर हिंसा आसान हो जाती है क्योंकि उसका एक कारण पहले से तैयार कर लिया गया होता है. आज हिंसा और हत्या की इस संस्कृति को समझना हमारे लिए बहुत ज़रूरी है इसके पहले कि यह देश को पूरी तरह तबाह कर दे.

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(इलस्ट्रेशन: परिप्लब चक्रवर्ती/द वायर)

अगर किसी के ख़िलाफ़ शक़ और नफ़रत समाज में भर दी जाए तो उस पर हिंसा आसान हो जाती है क्योंकि उसका एक कारण पहले से तैयार कर लिया गया होता है. आज हिंसा और हत्या की इस संस्कृति को समझना हमारे लिए बहुत ज़रूरी है इसके पहले कि यह देश को पूरी तरह तबाह कर दे.

(इलस्ट्रेशन: परिप्लब चक्रवर्ती/द वायर)

इसमें अब कोई संदेह नहीं रह गया है कि भारत में शासक दल भारतीय जनता पार्टी के द्वारा हिंसा भरी जा रही है. उससे भी ज़्यादा फिक्र की बात यह है कि हिंसा को लेकर एक तरह की बेहिस बेपरवाही लोगों में भरती जा रही है. हिंसा और हत्या की इस संस्कृति को समझना हमारे लिए बहुत ज़रूरी है इसके पहले कि यह इस देश को पूरी तरह तबाह कर दे.

लखीमपुर खीरी में एक विरोध प्रदर्शन से लौट रहे किसानों को रौंदते हुए फर्राटे लेती गाड़ियों का दृश्य हतवाक् कर देने वाला था. लेकिन ऐसे लोग हमारे बीच हैं जो इसका औचित्य खोज रहे हैं.

पहले दिन कुछ घंटों तक तो कुछ टीवी चैनलों से यह साबित ही कर दिया था कि वास्तव में यह दुर्घटना थी और इसलिए घटी कि मंत्री की गाड़ियों पर किसानों ने हमला किया था, पत्थरबाजी की थी. थोड़ी ही देर में साबित हो गया कि यह झूठ था.

भारत सरकार के गृह राज्यमंत्री अजय मिश्रा की गाड़ियों ने सड़क पर खामोशी से चल रहे किसान प्रदर्शकारियों को इरादतन कुचला था, यह वीडियो से साफ़ हो गया. फिर भी हिंदी अखबारों और चैनलों ने हत्या को हत्या नहीं कहा. यह बहुत आश्चर्य की बात नहीं. ऐसा पहले भी होता रहा है कि हत्या को हत्या नहीं, हादसा कहा जाए.

2002 में गुजरात में हुई नस्लकुशी के बारे में पूछे जाने पर तत्कालीन मुख्यमंत्री ने, जो आज भारत के प्रधानमंत्री हैं, यही कहा कि उन्हें क्यों नहीं तकलीफ़ होगी, आखिर गाड़ी के नीचे पिल्ला आ जाए तो भी तकलीफ होती है. एक मुख्यमंत्री ने, जिसकी सदारत में यह जनसंहार हुआ, बेपरवाही से खुद को गाड़ी की पिछली सीट पर बैठी सवारी और मार डाले गए लोगों को उस गाड़ी के पहिए के नीचे आ गए पिल्ले में बदल दिया.

गाड़ी और उसके नीचे आकर कुचल गए पिल्ले का यह रूपक याद आ गया जब पढ़ा कि मारे गए किसानों में एक की मां ने कहा कि लोग तो सड़क पर पड़े कुत्ते को भी बचाकर चलते हैं फिर क्या मेरा बेटा उससे भी गया-गुजरा था कि मंत्री की गाड़ियों ने उसे यूं रौंद दिया. क्या किसानों को सड़क पर देखकर गाड़ी के ड्राइवर को अचानक क्रोध आ गया? क्या उसे गुस्से के उबाल में उसने गाड़ी उन पर चढ़ा दी? आखिर क्यों हुआ होगा यह?

इस हिंसा का कारण है. इसके कुछ पहले ही गाड़ी के मालिक, भारत के गृह राज्यमंत्री ने एक खुली सभा में किसानों को धमकी दी थी. ‘सुधर जाओ वरना दो मिनट में ठीक कर देंगे’ और इलाके में रहना दूभर कर देंगे, मंत्री ने यह धमकी आंदोलनकारी किसानों को दी थी.

मंत्री ने अपने इतिहास की याद भी सबको दिलाई थी जिसका अर्थ यह था कि वह एक गुंडे का इतिहास है. इस खुली धमकी के बाद भी उस इलाके में किसान विरोध प्रदर्शन करते रहे और फिर यह हिंसा की गई. तो यह किसानों को ‘ठीक कर देने’ का ही एक नमूना था.

जिस वक्त केंद्रीय मंत्री अजय मिश्रा का किसानों को धमकी देता वीडियो सामने आया उसी के आस-पास एक और वीडियो प्रसारित हुआ. हरियाणा के मुख्यमंत्री मनोहरलाल खट्टर अपने दल के कार्यकर्ताओं को लट्ठ उठाकर किसानों को ‘ठीक कर देने’ का आह्वान करते हुए दिखलाई पड़ रहे हैं. फिर जो होगा, वह देखा जाएगा. अगर वे जेल गए तो कुछ दिन में निकल आएंगे और बड़े नेता बन जाएंगे, यह भरोसा भी दिलाया.

मुख्यमंत्री खुलेआम हिंसा के लिए अपने लोगों को उकसा रहा है, यह देखकर भारत में बाहर के लोग शायद हैरान रह जाएं लेकिन भारत में भारतीय जनता पार्टी के नेताओं को ऐसा करते देखने की अब सबको आदत पड़ गई है. खट्टर के उस वीडियो में उनकी मुद्रा भी गली के दबंग दादा जैसी ही है.

हिंसा का खुलेआम प्रचार और उकसावा कोई अचानक इसी वक्त नहीं किया जा रहा है. किसान आंदोलन शुरू होने के समय ही उसे हिंसा के बल पर दबाने की कोशिश की गई थी. दिल्ली को मार्च करते किसानों पर हरियाणा सरकार की पुलिस ने जिस तरह लाठियां चलाईं, उनके रास्ते को कोड़ दिया, खोद डाला और रुकावटें खड़ी कीं, वह भूलना मुश्किल है. फिर भी किसान यह सब कुछ झेलते हुए दिल्ली की सरहदों तक पहुंच गए और जब दिल्ली पुलिस ने रुकावट खड़ी की, तो वहीं डेरा डाल दिया.

सबने किसानों के धैर्य को देखा,उनके शांतिपूर्ण, अहिंसक आंदोलन ने बहुतों को चकित भी किया. लेकिन सरकारी दल और उनके समर्थक अखबार और टीवी चैनल तब क्या कर रहे थे? वे किसानों को खालिस्तानी, माओवादी बतला रहे थे. वे गैर किसान जनता में और भारत के दूसरे राज्यों में मुख्य रूप से पंजाब से आए इन आंदोलनकारियों के खिलाफ संदेह और घृणा का प्रचार कर रहे थे.

किसी के खिलाफ शक और नफ़रत अगर समाज में भर दी जाए तो उस पर हिंसा आसान हो जाती है क्योंकि उसका एक कारण पहले से तैयार कर लिया गया होता है.

इस घृणा प्रचार के बाद दिल्ली के सिंघू वाले किसान धरने पर और टिकरी पर भी गुंडों के गिरोहों ने हमले किए. धरनास्थल पर आगजनी की गई, तोड़-फोड़ की गई. इन हमलों को यह कहकर उचित ठहराने का प्रयास किया गया कि ये स्थानीय लोगों लोगों के रोष की अभिव्यक्ति हैं क्योंकि किसानों के धरने से उन्हें बहुत परेशानी हो रही थी.

पत्रकारों ने किसानों पर हमला करने वाली भीड़ के चेहरों की पहचान करके बतलाया कि वे कतई स्थानीय न थे. उनमें अधिकतर इसके पहले सीएए के खिलाफ चल रहे आंदोलन और धरनों पर हमला करने वालों में शामिल थे. यानी यह एक संगठित हिंसक गिरोह है जो अलग-अलग समय पर सरकार विरोधी आंदोलनों पर हमला और हिंसा करता है.

किसानों के आंदोलन के पहले दिल्ली और देश के कई हिस्सों में सीएए के खिलाफ आंदोलन हुए. दिसंबर में जामिया मिलिया इस्लामिया और अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी में छात्रों ने विरोध प्रदर्शन शुरूकिया. उस विरोध पर दोनों जगह पुलिस ने क्रूरतापूर्वक हिंसा की. यह पुलिस की साधारण कार्रवाई न थी. इसमें प्रदर्शकारी छात्रों को सबक सिखा देने का इरादा था.

अमूमन पुलिस की हिंसा पर हम बात नहीं करते क्योंकि मान लेते हैं कि यह तो उसका अधिकार है. लेकिन हमें याद रखना चाहिए कि पुलिस को हिंसक होने का अधिकार नहीं है. उसे क़ानून-व्यवस्था बनाए रखनी है. उसमें वह बल प्रयोग करती है. बल प्रयोग जब घृणापूर्ण हिंसा में बदल जाए तो हमें ज़रूर फिक्र करनी चाहिए.

जामिया और अलीगढ़, दोनों जगह ही पुलिस की कार्रवाई व्यवस्था बहाल करने के लिए मजबूरी का बल प्रयोग न था. वह प्रदर्शकारियों के खिलाफ एक विचारधारात्मक हिंसा थी.

ऐसी ही हिंसा उत्तर प्रदेश में सीएए क़ानून का विरोध कर रहे मुसलमानों के खिलाफ भी की गई. राज्य भर में 25 प्रदर्शनकारी मार डाले गए. सबके सब गोली लगने से मारे गए थे लेकिन सरकार ने मानने से इनकार कर दिया कि वे उसकी पुलिस की गोली से मारे गए थे. मुख्यमंत्री ने इन मौतों पर कोई अफ़सोस न जताया, मुआवजा तो दूर की बात है. इन्हें राज्य का शत्रु घोषित किया और धमकी दी कि इनसे बदला लिया जाएगा.

इसके बाद प्रदर्शनकारियों के संवैधानिक पद पर बैठे एक जिम्मेदार की यह भाषा अकल्पनीय थी लेकिन अब यह सामान्य है. बदला लिया गया. प्रदर्शनकारियों और मुसलमानों के नाम और चित्र के बैनर सरकार ने चौराहों पर लगाए और उनकी कुर्की-जब्ती शुरू कर दी.

अदालत के कहने के बावजूद ये बैनर लगे रहे. यानी यह सरकार की तरफ से इनके खिलाफ सार्वजनिक तौर पर हिंसा का ऐलान ही न था बल्कि प्रकारांतर से ‘जनता’ को उनके खिलाफ उकसाने का काम भी था.

सीएए विरोधियों को राज्य दुश्मन बल्कि राष्ट्र विरोधी और हिंदू विरोधी घोषित कर दिया गया था. उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री के पहले देश के प्रधानमंत्री ने अपनी सभा में कहा कि जो क़ानून का विरोध कर रहे हैं, उन्हें उनके कपड़ों के रंग से पहचाना जा सकता है. इशारा साफ़ था. यह कानून का विरोध करने वालों को उनके धर्म के आधार पर परिभाषित करने की कोशिश थी. यानी कानून का विरोध सांप्रदायिक है, यह प्रधानमंत्री कहना चाहते थे. और यह बात उनके मतदाताओं तक पहुंची.

प्रधानमंत्री ने यह कहकर छोड़ दिया कि कानून के विरोधियों को कपड़ों से पहचानो. उनके खिलाफ हिंसा का उकसावा उन्होंने नहीं दिया, यह तर्क वे दे सकते हैं. लेकिन घृणा तो भर ही दी उन्होंने और उनके खिलाफ हिंसा का एक औचित्य गढ़ दिया.

इस घृणा के बाद हिंसा भड़काने का काम प्रधानमंत्री के मंत्रियों ने किया. हमने दिल्ली के विधानसभा चुनाव भारत की संघीय सरकार के गृह मंत्री, वित्त राज्यमंत्री, दिल्ली के भाजपा के सांसद और फिर कई छुटभैय्ये नेताओं को सीएए के विरोधियों के खिलाफ हिंसा का उकसावा करते हुए सुना- देखा. शाहीन बाग़ में बैठे लोगों को करंट लगाने, गद्दारों को गोली मारने, शाहीन बाग़ में बैठे आतंकवादियों और बलात्कारियों से खुद को बचाने के नारे, भाषण सुने गए. फिर हिंसा हुई. 53 लोग मारे गए.

इस बार भी पुलिस ने मुसलमानों के साथ जो बर्ताव किया, वह दुश्मनों जैसा था. दिल्ली में नारे लगे, ‘दिल्ली पुलिस लट्ठ चलाओ, हम तुम्हारे साथ हैं.’ यह नारा भी सुना गया, ‘मोदीजी तुम लट्ठ चलाओ, हम तुम्हारे साथ हैं.’

हिंसा की संस्कृति अब राज्य द्वारा प्रसारित की जा रही है. हाल में असम में दरांग जिले के सिपाझार में अतिक्रमण हटाने के समय पुलिस ने जो हिंसा की उससे पुलिसवाले भी सतब्ध थे. लेकिन असम के मुख्यमंत्री ने मारे गए लोगों के प्रति कोई संवेदना व्यक्त न की. हिंसा का समर्थन किया.

दरांग के पुलिस प्रमुख ने बेदखली का विरोध कर रहे लोगों को धमकी दी कि ज़मीन, आसमान ऊपर-नीचे हो जाए, बेदखली होकर रहेगी. असम के मुख्यमंत्री लगातार बाहरी के नाम पर मुसलमानों के खिलाफ घृणा का प्रचार कर रहे हैं.

उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री की तरह ही उन्होंने भी पुलिस को ठोंक देने की छूट दे दी है. इस आदेश का नतीजा हुआ है अब तक सैकड़ों लोगों को पुलिस द्वारा गोली मारने में. उनमें तकरीबन 100 मारे गए हैं.

कोई यह नहीं कह रहा कि इस तरह पुलिस को हिंसक बनाने का यह खेल राज्य को महंगा पड़ेगा. यह उत्तर प्रदेश में हाल में गोरखपुर के एक होटल में घुसकर एक व्यापारी की पुलिस द्वारा की गई हत्या से स्पष्ट हो जाना चाहिए.

हिंसा के प्रचार का असर मध्य प्रदेश के नरम माने जानेवाले मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान पर भी पड़ा है. ‘डंडा लेकर निकला हूं…’ से लेकर ‘अगर हमारी बेटियों के साथ कुछ करने की कोशिश की तो तोड़ दूंगा, लव जिहाद करने वालों को बर्बाद कर दूंगा‘ तक के उनके बयानों से कई लोग हैरान हुए हैं.

लेकिन यह हिंसा भारतीय जनता पार्टी की राजनीतिक भाषा से अभिन्न है और उसके बिना वह अपनी जनता से बात नहीं कर सकती.

यह हिंसा मुसलमान विरोधी घृणा पर टिकी है. उसके सहारे वह हिंदुओं में स्वीकार्यता हासिल करती है और फिर उनका स्वभाव बनती जाती है. लेकिन इस हिंसा का प्रचार और प्रसार सुनियोजित और संगठित है.

यह अप्रत्यक्ष और प्रत्यक्ष शिक्षात्मक तरीकों से सरस्वती शिशु मंदिरों, एकल विद्यालयों, शाखाओं और बौद्धिकों के जरिये किया जाता है. राजनीतिक प्रचार के तौर भी यह प्रचार किया जाता है जिसे लोग अभिव्यक्ति और विचार की स्वतंत्रता के नाम पर जायज़ ठहराते हैं.

यह हिंसा राजनीतिक संस्कृति और सामाजिकता का निर्माण करती है. फिर जनता इसमें आनंद लेने लगती है और हिंसा की मांग करने लगती है. हिंसा का समाज के दिलो-दिमाग पर कब्जा समाज को खत्म कर देगा, यह उस वक्त कोई नहीं सोचता. फिर हम देखते हैं कि बहुत देर हो चुकी है और हिंसा ने समाज को परास्त कर दिया है. भारत क्या उस रास्ते पर चल रहा है या उस बिंदु पर पहुंच गया है?

(लेखक दिल्ली विश्वविद्यालय में पढ़ाते हैं.)