पुस्तक समीक्षा: हुमरा क़ुरैशी की किताब ‘द इंडियन मुस्लिम्स- ग्राउंड रियालिटीज़ ऑफ लार्जेस्ट मायनॉरिटी इन इंडिया’ आजा़दी की 75वीं सालगिरह मनाने के इस दौर में ‘हिंदोस्तां के मुसलमान’ किस तरह अपने सबसे ‘स्याह दौर’ से गुजर रहे हैं, इसका ज़िक्र करते हुए यह आशंका ज़ाहिर करती है कि ‘अगर सांप्रदायिक विषवमन नियंत्रित नहीं किया गया तो आपसी विभाजन बदतर हो जाएगा.’
आग मुसलसल जेहन में लगी होगी
यूं ही कोई आग में जला नहीं होगा
असम के ‘अतिक्रमणकारी’ के मृतप्राय शरीर पर कूदते फोटोग्राफर का वीडियो वायरल हुआ है.
‘अतिक्रमणकारियों’ को हटाने गई पुलिस की गोलियों से वहीं लगभग ढेर हुआ वह शख्स- जिसका नाम मोइनुल था- और सुरक्षाबलों की मौजूदगी के बीच पुलिस द्वारा ही तैनात उपरोक्त फोटोग्राफर की सरेआम उसके शरीर पर कूदने की वह रिकॉर्डिंग किसी भी संवेदनशील व्यक्ति को विचलित कर सकती है.
अलबत्ता यह भी सुनने में आया है कि दक्षिणपंथी दायरों में उस वीडियो को लेकर लगभग उन्माद की स्थिति दिखी है, उसे वायरल करने में उनकी कम भूमिका नहीं रही है.
जब तक आप इन पंक्तियों को पढ़ेंगे, यह तय बात है कि इस वीभत्स नृत्य के लिए जिम्मेदार उस फोटोग्राफर को जमानत मिल गई होगी- याद रहे चूंकि वह समूची घटना बाकायदा रिकॉर्ड की गई थी, इसलिए पुलिस ने उसे गिरफ्तार किया था- और वह उन्हीं दक्षिणपंथी दायरों में महिमामंडित किया जा रहा होगा, जिसने अपनी ‘मन की असली भावना’ को प्रकट करने में, अपनी ‘मर्दानगी’ को उजागर करने में संकोच नहीं किया और वह भी उन लोगों के खिलाफ जिन्हें मौजूदा हुकूमत के एक अग्रणी कर्णधार ‘दीमक’ के तौर पर संबोधित करते हैं.
असम की वह पूरी घटना निश्चित ही मन को वितृष्णा से भरने वाली थी, अलबत्ता यह भी सही है कि इसमें कोई अचरज वाली बात नहीं थी.
ऐसे लोग जो किसी भी सभ्य, मानवीय, न्यायपूर्ण समाज में अपनी करतूतों के लिए हिकारत से देखें जाएंगे, उनके समाज के ‘नए नायक’ के तौर पर उभरने की यह घटना न पहली है और न ही आखिरी. हम याद कर सकते हैं कि ग्राहम स्टींस एवं उनके दो बच्चों को जिंदा जलाने वाले दक्षिणपंथी गिरोह से जुड़े दारा सिंह को किस तरह महिमामंडित किया गया था, किस तरह शंभू रैगर नामक भी ‘हीरो’ बना दिया गया था, जिसने अल्पसंख्यक समुदाय के एक व्यक्ति की सुनियोजित हत्या की थी और पूरे मसले की रिकॉडिंग करके वह वीडियो वायरल किया था.
विगत कुछ सालों में हम सभी ऐसी घटनाओं को लेकर, जहां निरपराधों पर इसी किस्म की बर्बरताएं ढाई जाती हों- देखने, सुनने के अभ्यस्त हो गए हैं. महज संदेह के आधार पर लोगों को सरेआम मार दिया गया है, घटना की बाकायदा रिकॉर्डिंग की गई है, जिसे सोशल मीडिया में खूब वायरल किया गया है.
अपनी पसंद की लड़की से प्यार करने के लिए युवक का गला रेत दिया गया है- चूंकि वह लड़की उसके गोत्र, जाति या समुदाय से भिन्न थी, शांतिपूर्ण ढंग से आंदोलन कर रहे किसानों पर सत्ताधारियों की शह पाए लोगों द्वारा गाड़ियां दौड़ाई गई हैं, वंचित-शोषित-उत्पीड़ित समूहों, समुदायों पर राज्य तथा गैर राज्य कारकों द्वारा गोया कहर बरपाया जा रहा है, कानून एवं व्यवस्था के रखवाले ऐसी घटनाओं को लेकर नज़रे फेरते दिख रहे हैं, समाज का मानस अधिकाधिक सुन्न किया जा रहा है.
लेखक-स्तंभकार-पत्रकार हुमरा कुरैशी की किताब ‘द इंडियन मुस्लिम्स- ग्राउंड रियालिटीज ऑफ लार्जेस्ट मायनॉरिटी इन इंडिया’ ‘( आकार बुक्स, 2021), जो विगत कुछ सालों के उनके लेखन पर आधारित है, उसे पढ़ते और पलटते हुए आप विचलित हुए बिना नहीं रह सकते.
किताब एक स्तर पर आज़ादी के बाद भारत के सबसे बडे़ धार्मिक अल्पसंख्यक समुदाय के साथ क्या हो रहा है, उनकी वर्तमान स्थिति, किस तरह आज की तारीख में ‘क्या खाएं, पहनें या बोलें’ इस पर उभरती शंकाओं एवं डर को बयां करती है. आजा़दी की 75 वीं सालगिरह मनाने के इस दौर में ‘हिंदोस्तां के मुसलमान’ किस तरह अपने सबसे ‘स्याह दौर’ से गुजर रहे हैं, इसका जिक्र करती है और यह भी आशंका प्रकट करती है कि ‘अगर सांप्रदायिक विषवमन नियंत्रित नहीं किया गया तो आपसी विभाजन बदतर हो जाएगा और आने वाली पीढ़ियों को प्रभावित करेगा.’ (पेज- 17)
आप देख सकते हैं कि साथ ही साथ यह किताब लेखक की अपनी जिंदगी का बयान भी है, जो किताबों के पन्नों में, अनुभवकथनों के साथ रफ्ता-रफ्ता उद्घाटित होता रहता है. ऐसे अनुभव जो उनके अपने ही हैं, लेकिन वह उस समुदाय के आम अनुभवों के साथ मेल खाने वाले हैं, जिसमें वह पैदा हुई हैं और उसी के बारे में बता रही हैं.
पाठक को उत्तर प्रदेश के हिस्सों में बिताए उनके बचपन की झलक दिखाई देती है, उसके बचपन की बातें मालूम पड़ती हैं, शाहजहांपुर का उनका ननिहाल और पिताजी के पुरखों के आंवला कस्बे की उसकी यात्रा और इंजीनियर पिता के साथ पूरे परिवार की अलग-अलग स्थानों की यात्रा, लखनऊ के अंग्रेजी माध्यम स्कूल में पढ़ाई आदि तमाम प्रसंग, लेकिन यही वह दौर है जब वह एक ‘वंचित समुदाय’ की पीड़ा से भी परिचित होती जाती है, बंटवारे की प्रचंड पीड़ा झेल रहे उसके दादा-दादी या नाना-नानी का परिवार, जिनके कई अपने बंटवारे के वक्त़ पाकिस्तान चले गए थे, उससे उपजा भावनात्मक तनाव, उनके ‘सामाजिक और वित्तीय हालात’ पर उसका विपरीत प्रभाव और जवाहरलाल नेहरू की मौत पर उनकी दादी आमना बेगम को फूट-फूट कर रो पड़ना क्योंकि उनके लिए ‘नेहरू मुल्क की अवाम के मुक्तिदाता थे.’ (पेज-10)
आलम ऐसा था कि उन दिनों कोई उधर से इधर आ जा सकता था, लेकिन महज इसी डर से कि बाद में पुलिस या सरकारी अफसरान पीछे न पड़ जाएं, लेखक के पिता- जो इंजीनियर के अच्छे ओहदे पर थे- रिश्तेदारी में पाकिस्तान गए पिता के वहीं इंतक़ाल पर उनके अंतिम संस्कार में या बाद में भी नहीं जाते.
हम गौर करते हैं कि लेखक की रचना संपदा विविधतापूर्ण है और गौरतलब है, उन्होंने न केवल देश के तमाम ज्वलंत सामाजिक-राजनीतिक मुद्दों पर किताबें लिखी हैं बल्कि साथ ही साथ कहानियां रची हैं, उपन्यास भी लिखे हैं.
यहां उनकी रचना संपदा में से कुछ का जिक्र करना मौजूं होगा: ‘कश्मीर- द अनएंडिंग ट्रैजेडी’, कश्मीर: द अनटोल्ड स्टोरी, ‘व्यूज: यूअर्स एंड माइन’ यह उनकी वे किताबें हैं जो मौजूं सामाजिक-राजनीतिक मुद्दों पर बात करती हैं. कहानियों के दो संग्रह भी प्रकाशित हुए हैं ‘बैड टाइम्स टेल्स’ और ‘मोर बैड टाइम टेल्स’, ‘डिवाइन लिगेसी: डागर्स एंड ध्रुपद’, ‘मीर’ नाम से एक उपन्यास भी प्रकाशित हुआ है; गौरतलब है कि जाने-माने पत्रकार खुशवंत सिंह के साथ उन्होंने मिलकर दो किताबों की भी सहरचना की है.
किताब की शुरुआत ‘ऑथर्स नोट’ से होती है जिसमें वह अपने सरोकार, अपनी चिंताएं, अपनी व्याकुलता बयां करती हैं, जिसका ताल्लुक देश की लगातार खराब होती स्थिति से है, बदलते ‘राजनीतिक वातावरण/पैटर्न (पेज- 8) से है और उस माहौल से है जो हुक्मरान द्वारा तैयार किया गया है, जहां ‘आप को अन्य महसूस कराया जाता है.’
अपने बचपन के अनुभवों को बयां करने के बाद वह विगत कुछ दशकों में बदलते घटनाक्रम की तरफ मुड़ती हैं, जहां वह ‘समाज के कथित मानिंदों’ (supposed who’s who) द्वारा बढ़ती सांप्रदायिक टिप्पणियों की बात करती हैं, ‘अलग अलग आयोगों और मंत्रालयों द्वारा… सांप्रदायिक गोलबंदी बढ़ते जाने के खिलाफ कदम उठाने में अक्षमता’ (पेज- 13) की बात करती हैं.
वे इस बात को भी रेखांकित करना नहीं भूलतीं कि आखिर ‘उनके गैर मुस्लिम दोस्त आखिर समुदाय की असुरक्षाओं और आशंकाओं के बारे में’ क्यों नहीं समझ पाते हैं और आगे किताब लिखने के पीछे अपना मकसद भी बताती हैं कि ‘इसके जरिये वह समूचे तथ्यों और कारकों को’ प्रस्तुत करना चाहती हैं ताकि देश के नागरिक ‘जमीनी हक़ीकत को बखूबी समझें.’
एक तरह से लेखक की यह प्रस्तावना आने वाले 275 पन्नों के तेरह अध्यायों में किस बात की चर्चा होने वाली है, इसका सारांश प्रस्तुत करती है.
मिसाल के तौर पर किताब के पहले अध्याय ‘पॉलिटिकल क्लाइमेट अननर्विंग, हियर एंड आउट देयर’ में वह भारतीय राजनीति के हालिया घटनाक्रम पर रोशनी डालती हैं- नोटबंदी से लेकर, प्रसिद्ध चरखे से ‘गांधी को हटाने का प्रसंग’ (2017), उसी साल हजारों की तादाद में किसानों का नई दिल्ली पहुंचना और अपनी आवाज़ बुलंद करना या आज भी दिल्ली की सरहदों तथा देश के अन्य भागों में जारी किसानों का शांतिपूर्ण आंदोलन.
वे बाबरी मस्जिद-राम मंदिर विवाद के मामले में आए फैसले, ‘बीफ का डर’ किस तरह ‘सामाजिक-सांस्कृतिक पैटर्न’ (पेज- 23) को प्रभावित कर रहा है या किस तरह ‘डरों और दुश्चिंताओं के बीच’ जगह-जगह चल रहे लोगों के विस्थापन, मीडिया द्वारा प्रस्तुत भटकाने वाली भूमिका, समुदाय का घेटटोकरण (Ghettoisation) या किस तरह अरब जगत के घटनाक्रम यहां के अवाम पर असर डालते हैं और यह बात कि अगर अरब शासकों ने उनके ऊपर मंडराते अमेरिकी साम्राज्यवाद और रूढ़िवाद की चुनौती को ठीक से समझा होता और रास्ता निकाला होता तो निश्चित ही स्थितियां यहां भी बेहतर होतीं.
अध्याय ‘आनस्लॉटस, डिसअपॉइंटमेंट्स, शॉकर्स’ भारत में बढ़ती संकीर्ण मानसिकता, ‘अन्य’ के चलते आप को झेलने पड़ते अपमान, ऐसे मुद्दों पर फिल्म उद्योग का बढ़ता मौन आदि की बात करता है. इसी अध्याय में लेखक जाने-माने अभिनेता और बाद में कांग्रेस के सांसद सुनील दत्त के उस सुझाव का भी जिक्र करती है, जिसमें वह बताते हैं कि अगर भारत की जनता को हम आपसी दूरी, दुर्भावना और उसके चलते बढ़ने वाले सामाजिक तनाव आदि के बारे में संवेदनशील बनाना चाहते हैं तो ‘हमें सोमालिया में जारी गृहयुद्ध की तस्वीरें देश के स्कूलों, कॉलेजों, चौराहों पर लगानी चाहिए ताकि लोग समझ सकें कि ‘आंतरिक युद्ध और नागरिक असंतोष आप के साथ क्या सलूक कर सकता है.’ (पेज-57)
यहां यह बताना समीचीन होगा कि वर्ष 2005 में ही दिवंगत हुए इस मशहूर अभिनेता एवं सांसद से यह बात जब हुई थी तब सोमालिया में गृहयुद्ध अपनी चरम सीमा पर था.
‘बाबरी मस्जिद’ प्रसंग पर केंद्रित अध्याय में वे बताती हैं कि किस तरह इस विवाद ने ‘धर्मनिरपेक्ष और सांप्रदायिक के बीच एक तीखी सीमा रेखा खींच दी’ जो ‘प्रगतिशील उदारवादी बनाम सांप्रदायिक के बीच थी और किस तरह उस विवाद ने अल्पसंख्यक समुदाय के अंदर यह भावना पैदा की कि समुदाय को अब अपने भरोसे पर ही आगे बढ़ना होगा, खासकर ‘शिक्षा के मोर्चे पर’ (पेज-75) और किस तरह इस विवाद ने ‘एक दूसरे के नज़रिये और भावनाओं के सम्मान के युग का अंत कर दिया.’ (पेज-76)
यह अध्याय बाबा बुल्ले शाह की दो लाइनों के साथ खत्म होता है, (वैसे हर अध्याय के अंत में वह जाने-माने शायरों की चंद पंक्तियां प्रस्तुत करती हैं)
‘मस्जिद ढा दे, मंदिर ढा दे, ढा दे जो कुछ ढहदा
पर किस्सी का दिल ना ढावी, रब दिल विच रहंदा है’
‘गुजरात पोग्रोम- अनदर जोल्ट,’ ‘रियालिटीज नॉट गेटिंग रिपोर्टेड- व्हाय?’ ‘अरेस्टस, इंप्रिजनमेंट्स एंड एक्विटल्स,’ ‘हू इज ए टेररिस्ट टुडे’ आदि अध्याय राज्य तथा गैर राज्य कारकों के हाथों समुदाय को झेलनी पड़ती प्रताड़ना, भेदभाव, हम और वे की बातें अब किस तरह स्कूलों-कॉलेजों, यहां तक कि बच्चों की किताबों तक भी पहुंच रही हैं, इसको बताती हैं.
‘प्रॉब्लम्स विदइन द कम्युनिटी’ अर्थात समुदाय की अंदरूनी समस्याएं, यह अध्याय इस मामले में काबिलेगौर है कि इसमें वह बेहद खुलेपन के साथ इस मुद्दे पर आत्ममंथन करती हैं.
वे बताती हैं कि किस तरह ‘देश के मुसलमानों का बड़ा हिस्सा’ जो खासकर उत्तरी इलाकों से है आज भी अतीत के नवाबी भ्रमों में ही उलझा हुआ है (पेज- 187) या किस तरह वह ‘समाज के सामने खड़े किसी गंभीर मुद्दों के बारे में सोचने को तैयार नहीं हैं, जैसे गैर कानूनी गिरफ्तारियां, सरकारी मशीनरी की पक्षपातपूर्ण भूमिका, समुदाय के बारे में फैलाए जा रहे मिथक और गलत अवधारणाएं, भड़काए जाते दंगे (वही) या यह बात कि ‘पूरे समुदाय पर हो रहे हमलों के बावजूद.’ उसके अंदर सामूहिक तौर पर सोचने-समझने की परंपरा विकसित नहीं हो रही है’ (पेज 188), समाज के अग्रणियों द्वारा जो सरकारी स्तरों पर भी अच्छे अच्छे ओहदों पर है उनके बारे में उनका मानना है कि वह समुदाय के लिए जरूरी आंतरिक सुधारों पर नहीं बोलते हैं. (पेज- 199)
किताब का एक अध्याय- जो सबसे बड़ा है- वह ‘भारतीय मुसलमानों के बारे में व्याप्त ‘मिथस एंड मिसकॉन्सेप्टशंस; पर विस्तार से बात करता है. अपने निष्कर्षात्मक अध्याय ‘होप बरिड ऑर नॉट’ लेखक ‘जीवित’ मुसलमानों के सामने खड़े द्वंद की चर्चा करती हैं कि उन्हें क्या करना चाहिए’ क्या उन्हें जोर से बोलना चाहिए या उन्हें अपने दिलों में ही वह दर्द को संभाले रखना चाहिए.’ (पेज- 208)
इस चर्चा को आगे बढ़ाते हुए वह साफ करती हैं कि हिंदू समुदाय को लेकर विचलित होने की आवश्यकता नहीं है, दरअसल अल्पसंख्यक समुदाय में यह एहसास बहुत गहरा है कि ‘हम लिबरल हिंदुओं के चलते ही सांस लेने की स्थिति में हैं’ (पेज- 209) और हमें ‘हिंदुत्व ब्रिगेड और देश के दक्षिणपंथी शासकों के बारे में अधिक बेचैन रहना चाहिए.’ (पेज- 209)
बोलने की जरूरत को रेखांकित करते हुए वे इस बात को स्पष्ट करती हैं कि समुदाय आधारित प्रतिक्रिया समय की मांग नहीं हैं. हालांकि वे पूछना नहीं भूलतीं कि आखिर विशिष्ट समुदाय को ही क्यों बोलना चाहिए जब उस पर अत्याचार हो और वह इस बात पर जोर देती हैं कि हमें ‘इस सच्चाई को स्वीकारना होगा कि सांप्रदायिकता को दक्षिणपंथ ने खास एजेंडा के तहत आगे बढ़ाया है- ताकि वह विभाजन पैदा करें, तबाही मचा दें और फिर शासन कर सकें.’ और देश की सेकुलर पार्टियां- कांग्रेस, सपा, बसपा, तृणमूल और वाम- हिंदुत्व की ताकतों को शिकस्त नहीं दे सकी हैं (पेज- 211) एक तरह से कहें, तो सांप्रदायिकता से निपटने के लिए पार्टियों और संगठनों के व्यापक गठजोड़ की कल्पना करती हैं.
अध्याय का अंत व्याकुलता भरे इन लफ्जों के साथ होता है ‘अपने देश और अपने देश के नागरिकों के भविष्य को लेकर मैं चिंतित हूं.’ (पेज- 219)
(सुभाष गाताडे वामपंथी एक्टिविस्ट, लेखक और अनुवादक हैं.)