गृह मंत्री अमित शाह ने हाल ही में एक साक्षात्कार में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी पर ‘तानाशाह’ होने के आरोपों पर सफाई देते हुए कहा कि देश में उनसे ज़्यादा लोकतांत्रिक नेता हुआ ही नहीं है, जिस पर अमेरिका की प्रख्यात टेनिस खिलाड़ी मार्टिना नवरातिलोवा ने चुटकी ली थी.
गृह मंत्री अमित शाह संसद टीवी पर अपने चहेते पत्रकार को साक्षात्कार देकर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के विरुद्ध आम हो चले तानाशाहों जैसे बर्ताव के आरोपों की सफाई देते हुए कहें कि देश में उनसे ज्यादा लोकतांत्रिक नेता तो कोई हुआ ही नहीं और तीन दशक तक टेनिस प्रेमियों के दिलों पर राज कर चुकी अमेरिकी स्टार मार्टिना नवरातिलोवा को उनकी बातें अपने अगले चुटकुले का मसाला लगने लगें, तो इस बाबत किसी सवाल की जरूरत नहीं रह जाती कि भारत के इन दोनों ‘नायकों’ ने दुनिया में कितनी और कैसी ‘प्रतिष्ठा’ अर्जित कर रखी है और उससे देश के लोकतंत्र की, जिसे हम अब तक सबसे बड़ा कहते आए हैं, दुनिया की नजरों में कैसी छवि बन रही है?
And for my next joke …😳🤡 https://t.co/vR7i5etQcv
— Martina Navratilova (@Martina) October 10, 2021
अभी देशवासी शायद ही भूले हों कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की गत अमेरिका यात्रा के दौरान वहां की भारतीय मूल की उपराष्ट्रपति कमला हैरिस ने उन्हें लोकतांत्रिक बर्तावों का कितना कड़वा उपदेश पिलाया था. मार्टिना द्वारा ली गई चुटकी को उस उपदेश के साथ जोड़ दें तो हैरत होती है कि कैसे कुछ लोग अभी भी दावा करने का साहस जुटा ले रहे हैं कि मोदी ने अपने सत्ताकाल में अंतरराष्ट्रीय समुदाय में भारत के सम्मान को नई बुलंदियों पर पहुंचा दिया है.
हां, उनके इस रवैये में इतनी अच्छी बात भी है कि वे देश की छवि बिगाड़ने का ठीकरा विपक्षी दलों के नेताओं के बयानों पर फोड़कर प्रकारांतर से ही सही स्वीकार कर ले रहे हैं कि अब विदेशों में उनके नेताओं के मुकाबले विपक्ष के नेताओं को ज्यादा सुना व समझा जा रहा है.
बहरहाल, गौरतलब है कि मार्टिना ने यह चुटकी ऐसे समय ली है, जब भारतीय जनता पार्टी गुजरात से लेकर केंद्र तक नरेंद्र मोदी के सत्ता में दो दशक पूरे होने का जश्न मना रही और उनकी ‘उपलब्धियों’ के बखान के बहुविध जतन कर रही है. कहते हैं कि गृह मंत्री का उक्त साक्षात्कार भी इसी सिलसिले में था, जिसमें वे इस दावे तक चले गए कि पूर्ववर्ती मनमोहन सरकार के दौरान देश हर क्षेत्र में नीचे की ओर जा रहा था और वैश्विक मंचों पर उसका कोई मान ही नहीं रह गया था.
जैसे कहा जाता है कि झूठ के पांव नहीं होते, गृह मंत्री की इस बात के भी पांव नहीं ही हैं, क्योंकि वे नहीं बता सकते कि अगर वाकई ऐसा था तो मनमोहन की किस विदेश यात्रा के दौरान किस राष्ट्राध्यक्ष या उसके डिप्टी ने उन्हें लोकतंत्र का वैसा पाठ पढ़ाने की कोशिश की, जैसा मोदी को कमला हैरिस ने पढ़ाया?
या कि कब लोकतंत्र के अंतरराष्ट्रीय सूचकांकों में भारत इतने नीचे के पायदान पर आया और सूचकांक जारी करने वाली एजेंसियों ने उसके लोकतंत्र को लगड़ा और उसके नागरिकों की आजादी को आंशिक बताया?
मनमोहन के वक्त उन पर और उनकी सरकार पर अन्य जैसे भी आरोप लगते रहे हों, विदेश तो क्या देश में भी किसी ने उन पर तानाशाह होने, ‘हम दो हमारे दो’ की सरकार चलाने, विपक्ष का अनादर करने, क्रोनी कैपिटलिज्म को प्रोत्साहित करने और असहमतियों को कुचलने के आरोप नहीं लगाए. उस भाजपा ने भी नहीं, जिसकी ओर से अब मोदी और शाह सत्ता संचालक हैं.
मनमोहन के सत्ताच्युत होने के बाद प्रधानमंत्री बने नरेंद्र मोदी ने भी अब तक उन पर संसद के अंदर ‘डॉ. मनमोहन सिंह के रेनकोट पहनकर नहाने में कुशल होने’ से बड़ा आरोप नहीं लगाया है. इसके उलट मोदी के तानाशाह बर्ताव की शिकायत तो उनकी पार्टी के वे नेता भी किया करते हैं, अलबत्ता अनौपचारिक वार्तालापों में, जो अन्यथा सार्वजनिक मंचों पर उनके महिमा गान को मजबूर हैं.
कई प्रेक्षकों के अनुसार, गृह मंत्री अमित शाह के पास भी प्रधानमंत्री की सफाई देने और तारीफ करने के अलावा कोई चारा नहीं था. क्योंकि वे उन पर लगाए जा रहे तानाशाह होने के आरोपों पर मोहर लगाकर पार्टी में या अपने पद पर कैसे बने रह सकते थे? गुजरात में उनके चहेते विजय रूपाणी को तो मोदी के भुकुटियां टेढ़ी कर लेने के बाद मुख्यमंत्री पद पर एक दिन रहना भी मयस्सर नहीं हुआ.
अमित शाह की मजबूरी को इस तरह भी समझा जा सकता है कि अब, जब नोटबंदी और संविधान के अनच्छेद 370 के उन्मूलन के वक्त जम्मू कश्मीर में सीमापार से प्रायोजित आतंकवाद के खात्मे के बढ़-चढ़कर किए गए दावे हवा में उड़ गए हैं.
देश का वह सबसे संवेदनशील सीमावर्ती राज्य फिर से नब्बे के दशक की खूरेंजी की ओर बढ़ चला है, सरकार को उसकी समस्या के सांप्रदायिकरण की अंधेरी गुफा में ही ‘रोशनी’ दिख रही है, पूर्वी लद्दाख में घुसा बैठा चीन वहां पुरानी स्थिति की बहाली को तैयार नहीं हैं, उन्हें प्रधानमंत्री द्वारा देश की चाकचौबंद सुरक्षा व्यवस्था के नाम पर की गई सर्जिकल व एयरस्ट्राइकों के गुन गाने पड़ रहे हैं.
क्योंकि साफ-साफ कह नहीं सकते कि दुश्मन को घर में घुसकर मारने का दावा करते-करते उन्होंने चीन को घर में घुसा लिया है, ‘मूंदहु आंखि कतहुं कछु नाहीं’ की तर्ज पर उसकी ओर पीठ कर ली है और विपक्ष पर बरसे जा रहे हैं कि वह हालात को ढके-तोपे रखने में उनकी मदद नहीं कर रहा.
लेकिन जो भी हो, अब वे और उनके समर्थक, अपना जो एक काम बेहद सुभीते से संपन्न होने की उम्मीद कर सकते हैं, वह मार्टिना नवरातिलोवा की निंदा का अभियान चलाने का है क्योंकि उन्हें ऐसे अभियानों का पुराना अनुभव है. इसी अनुभव से उन्होंने मशहूर गायिका रिहाना का खलनायकीकरण करने में तब कोई कोर-कसर नहीं उठा रखी थी, जब उन्होंने राजधानी दिल्ली की सीमाओं पर चल रहे किसानों के आंदोलन का समर्थन कर दिया था.
तब उन्होंने दुनिया भर में मुक्तिकामी आंदोलनों के समर्थन की भारत की नीति को मुंह चिढ़ाते हुए रिहाना के कृत्य को भारत के आंतरिक मामले में हस्तक्षेप करार दिया था और सोशल मीडिया पर उनकी लानत मलामत की बाढ़-सी ला दी थी. अब मार्टिना पर आंतरिक मामलों में वैसे दखल का नहीं तो ‘तेजी से बढ़ते’ भारत की ‘उपलब्धियों’ से खुन्नस का आरोप तो चस्पां किया ही जा सकता है.
अलबत्ता, इस राह में भी एक दिक्कत है. यह कि मार्टिना मोदी की ही नहीं उनके दोस्त और अमेरिका के पूर्व राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप की भी आलोचक हैं और लोकतांत्रिकता के लिहाज दोनों को, ट्रंपकाल से ही, तराजू के एक ही पलड़े पर रखती आई हैं. गत वर्ष अप्रैल में उन्होंने दोनों की एक सुर से आलाचना करते हुए ट्वीट किया था,‘ सच्चाई यह है कि अगर सच राजनीतिक हितों के हिसाब से फिट नहीं बैठता तो ट्रंप और मोदी जैसे सत्ताधीश सच को ज्यादा से ज्यादा दबाने लग जाते हैं.’
निस्संदेह, उनके इस ट्वीट के आलोक में शाह के साक्षात्कार को चुटकुले का मसाला बताने के पीछे उनकी ‘भारत से खुन्नस’ साबित नहीं की जा सकेगी. तिस पर, जो लोग ऐसा साबित करने के फेर में पड़ेंगे, मार्टिना को ही सही सिद्ध करने लग जाएंगे. यह जताकर कि वे लोकतंत्र तो लोकतंत्र, अपनी आलोचना बर्दाश्त करने के उसके लक्षण से भी महरूम हैं. इसलिए बेहतर होगा कि यह मानकर चुप बैठ जाएं कि जब अपना ही सोना खोटा है तो परखने वाले का भला क्या दोष?
किसी शायर ने ठीक ही कहा है: शक्ल तो जैसी है वैसी ही नजर आएगी, आप आईना बदलते हैं, बदलते रहिए. जैसा कि प्रधानमंत्री खुद भी एक अवसर पर कह चुके हैं: धूल चेहरे पर पड़ी हो तो आईना साफ करने से कुछ हासिल नहीं होता.
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं.)