सरदार उधम फ़िल्म के पास कहने को बहुत कुछ नहीं है…

इस दौर में जब देशभक्ति का नशा जनता को कई शक्लों में दिया जा रहा है, तब एक क्रांतिकारी के जीवन और उसके दौर की बहसों के सहारे राष्ट्रवाद पर सामाजिक विचार-विमर्श अर्थपूर्ण दिशा दी जा सकती थी, लेकिन यह फ़िल्म ऐसा करने की इच्छुक नहीं दिखती.

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फिल्म के एक दृश्य में अभिनेता विकी कौशल. (साभार: प्राइम वीडियो)

इस दौर में जब देशभक्ति का नशा जनता को कई शक्लों में दिया जा रहा है, तब एक क्रांतिकारी के जीवन और उसके दौर की बहसों के सहारे राष्ट्रवाद पर सामाजिक विचार-विमर्श अर्थपूर्ण दिशा दी जा सकती थी, लेकिन यह फ़िल्म ऐसा करने की इच्छुक नहीं दिखती.

फिल्म के एक दृश्य में अभिनेता विकी कौशल (साभार: प्राइम वीडियो)

दूसरी बैठक में सरदार उधम फ़िल्म पूरी की. आम तौर पर यह नहीं होता. एक ही बैठक में फ़िल्म और वह भी जब वह एक क्रांतिकारी के जीवन पर हो, देखा जाना स्वाभाविक है. लेकिन दो रोज़ पहले फ़िल्म देखना शुरू किया और आधी से भी कम में मन उचट गया.

शूजीत सरकार द्वारा निर्देशित फ़िल्म की शानदार सिनेमेटोग्राफी के बावजूद यह साफ़ हो गया था कि इसके पास कहने को बहुत कुछ नहीं है. जबकि वह एक ऐसे चरित्र और दौर के बारे में थी जिसको लेकर आज के भारत में बहसें खत्म होने को नहीं आतीं.

उधम सिंह के विषय में यह फिल्म कुछ ऐसा भी नहीं बतलाती कि तकरीबन 50 साल पहले जो जानता था उसमें कुछ इज़ाफ़ा हो. यह कि बालक उधम सिंह पर जलियांवाला बाग़ संहार ने गहरा असर डाला था और उसके प्रतिशोध की आग को वह सीने में लिए घूमते रहे और कोई 20 साल बाद लंदन में पंजाब के तत्कालीन प्रशासक माइकेल ओ’डायर की हत्या करके वह आग उन्होंने ठंडी की.

हां! भगत सिंह के साथ उधम सिंह की दोस्ती की तरफ फिल्म संकेत करती है जो दोनों के विषय में सामान्य ज्ञान में योगदान है. लेकिन इससे आगे कुछ भी नहीं.

इस दौर में जब देशभक्ति का नशा जनता को कई शक्लों में दिया जा रहा है, तब एक क्रांतिकारी के जीवन और उसके दौर की बहसों के सहारे राष्ट्रवाद पर सामाजिक विचार-विमर्श अर्थपूर्ण दिशा दी जा सकती थी. लेकिन यह फ़िल्म ऐसा करने को इच्छुक नहीं दिखती क्योंकि उसकी कोई बौद्धिक तैयारी हो इसकी झलक फ़िल्म में नहीं है.

दो घंटे 42 मिनट की फ़िल्म लंबी होती है और उसमें इसकी पर्याप्त गुंजाइश थी कि कम से कम 1919 से 1940 तक के दौर में एक क्रांतिकारी के सफ़र की पेचीदगियों को खोला जा सके. लेकिन यह फ़िल्म अपनी बौद्धिक गहराई की कमी को शानदार दृश्यांकन के ज़रिये भरना चाहती है.

अफगानिस्तान और सोवियत संघ के लंबे बर्फ़ीले वीरानों में उधम सिंह को भटकते हुए या जलियांवाला बाग़ संहार को विस्तार से दिखलाने में यह फिल्म ख़ासा वक्त ज़ाया करती है.

फ़िल्म दो स्तरों पर चलती है. एक तो उधम सिंह की यात्रा. पहली गिरफ़्तारी के बाद से लेकर 1940 में लंदन में माइकेल ओ’डायर की हत्या तक की यात्रा में कोई नाटकीयता नहीं है. यह दौर दुनिया और भारत में भी अनेक प्रकार की सामाजिक और राजनीतिक तब्दीलियों का दौर है. भारत में भी उपनिवेशवाद विरोधी आंदोलन एक नहीं है.

उधम सिंह और सोवियत संघ की कम्युनिस्ट पार्टी के बीच किस तरह का संबंध था? भारत में गांधी के नेतृत्व में बड़ा आंदोलन चल रहा था और क्रांतिकारियों की उनसे खासी बहस थी. जलियांवाला बाग़ कांड के बाद रवींद्रनाथ टैगोर द्वारा अपनी उपाधि लौटाने से लेकर गांधी के नेतृत्व में तथ्य संग्रह और जांच का काम, फ़िल्म को जैसे इनकी जानकारी ही नहीं है.

जो वैचारिक बहसें चल रही थीं और क्रांतिकारी भी जिनमें हिस्सा ले रहे थे, फिल्म उन्हें बस छूकर निकल जाती है. मानो वह कोई स्टैंड लेने को मजबूर न हो जाए.

दूसरा स्तर है उधम सिंह की स्मृतियों का. फिल्म में भगत सिंह और सरदार उधम सिंह की दोस्ती दिखलाई गई है. बार-बार हिंदुस्तान रिपब्लिकन सोशलिस्ट आर्मी या एचआरएसए का जिक्र आता है. लेकिन इस संगठन का कार्यक्रम क्या था? आर्मी और एसोसिएशन के बीच का अंतर क्या है?

भगत सिंह और एचआरएसए के सदस्यों के बीच गपशप के दृश्य हैं लेकिन वे भी अत्यंत सतही हैं. भगत सिंह के चरित्र में कोई गहराई नहीं है. वहां भी लगता है फ़िल्म उन प्रश्नों से कतरा रही है जिनसे खुद क्रांतिकारी जूझ रहे थे. या उसका तर्क यह है कि उसके विषय यानी उधम सिंह को इन सवालों में कोई रुचि न थी और उनका मकसद सिर्फ जलियांवाला बाग़ संहार का बदला लेना था?

भगत सिंह की दोस्ती एक अच्छा आधार था कि उनके द्वारा उठाए गए सवालों पर भी उनके मित्र के ज़रिये बात हो. फ़िल्मकार की दिलचस्पी उसमें भी नहीं है. जबकि वे सारे सवाल आज ज़िंदा हैं और उन पर बहस नातमाम है. लेकिन फ़िल्मकार को जैसे उन पर बात करने में संकोच है.

मसलन, संप्रदायवाद का प्रश्न या हिंसा-अहिंसा के बीच की बहस! संप्रदायवाद और धर्म के प्रश्न भगत सिंह और उनके समूह के लिए महत्त्वपूर्ण थे. क्या उधम सिंह ने उन पर कुछ न सोचा होगा? फिल्मकार यह तर्क देकर बच सकते हैं कि उनके पास कोई ऐतिहासिक दस्तावेज नहीं थे कि वे यह कर सकते. लेकिन फिल्म का हर दृश्य कल्पना से खाली हो, यह भी नहीं.

ऐतिहासिक विषय पर फिल्म बनाते हुए कलाकार की कल्पना उस विषय की सत्यता को और उजागर कर सकती है. आखिर इस फिल्म में प्रेम के प्रसंगों के चित्रांकन में कल्पना का सहारा लिया ही गया है.

उधम सिंह के पास इसीलिए संवाद नहीं हैं क्योंकि फ़िल्मकार के चरित्र के पास कहने को बहुत कुछ है नहीं. ऐसा करके निर्देशक ने उधम सिंह के साथ भी अन्याय किया है क्योंकि पूरी फिल्म देख जाने के बाद उनकी असाधारणता का अनुमान करना कठिन है.

ओ’डायर और उधम सिंह के संवाद भी साधारण हैं. ओ’डायर पूरी ताकत के साथ ब्रिटिश राज या साम्राज्यवाद का तर्क पक्ष करता है. वहां उधम अवश्य प्रतिकार करते हैं लेकिन वह भी अस्फुट-सा है.

लंदन में ट्रेड यूनियन, कम्युनिस्ट पार्टी, आयरिश रिपब्लिकन आर्मी आदि की उपस्थिति का पता चलता है लेकिन इनका तत्कालीन महत्त्व क्या है, इस पर विचार करने का समय भी फ़िल्म के पास नहीं. द्वितीय विश्व युद्ध शुरू हो चुका है. लेकिन फासिज़्म को लेकर कोई चिंता दिखलाई नहीं पड़ती.

ऐसा नहीं कि फिल्म के पास वक्त की कमी है. लेकिन वह तकरीबन आधा घंटा जलियांवाला बाग़ की खूंरेजी पर खर्च करती है. वैसे ही जैसे वह बर्फ़ीले विस्तार के फिल्मांकन में रम जाती है. वह भूल जाती है कि आखिर इस भटकन का कोई अर्थ होना चाहिए. 20 साल की अवधि में एक चरित्र का प्रायः अपरिवर्तित रह जाना कोई प्रशंसा की बात नहीं.

बड़े बजट की और तकनीकी रूप से दक्ष टीम के द्वारा बनाई गई यह फ़िल्म अपने समय में कोई हस्तक्षेप नहीं कर पाती, इस पर अफ़सोस ही किया जा सकता है.

(लेखक दिल्ली विश्वविद्यालय में पढ़ाते हैं.)