कपास की फसल में लगे कीड़ों ने पंजाब और हरियाणा के किसानों को बर्बाद कर दिया है

कपास की फसल गुलाबी सुंडी के हमले के चलते ख़राब होने के बाद पंजाब के कई किसानों द्वारा ख़ुदकुशी के मामले सामने आए हैं. किसानों का कहना है कि सरकार फसलों को हुए नुकसान का प्रारंभिक सर्वे करने में भी देरी कर रही है.

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मनसा जिले के मूसा गांव में कपास की फसल ख़राब होने के बाद अपनी जान लेने वाले किसान गुरप्रीत सिंह की तस्वीर दिखाते उनके भाई. (सभी फोटो: प्रभजीत सिंह)

कपास की फसल गुलाबी सुंडी के हमले के चलते ख़राब होने के बाद पंजाब के कई किसानों द्वारा ख़ुदकुशी के मामले सामने आए हैं. किसानों का कहना है कि सरकार फसलों को हुए नुकसान का प्रारंभिक सर्वे करने में भी देरी कर रही है.

मनसा जिले के मूसा गांव में कपास की फसल ख़राब होने के बाद अपनी जान लेने वाले किसान गुरप्रीत सिंह की तस्वीर दिखाते उनके भाई. (सभी फोटो: प्रभजीत सिंह)

मनसा/फतेहाबाद: पंजाब और हरियाणा में कपास के खेतों में सन्नाटा पसरा है. किसानों ने कई बार कीटनाशकों का छिड़काव किया लेकिन कोई फायदा नहीं हुआ तो अब वे दिल पर पत्थर रखकर खेत से पौधे उखाड़ रहे हैं.

गुलाबी सुंडी (पिंक बॉलवॉर्म) ने उत्तर भारत में कपास की फसल को तबाह कर दिया है. मुख्य रूप से पंजाब में बठिंडा व मनसा जिले और हरियाणा में फतेहाबाद, सिरसा व हिसार अधिक प्रभावित हैं.

ऐसा ही तबाही का मंजर 2017 में महाराष्ट्र के विदर्भ क्षेत्र में भी देखा गया था, जिसने इस ‘सफेद सोने’ को उगाने के लिए प्रयोग किए जाने वाले जेनेटिकली मोडिफाइड बीजों की क्षमता पर बहस शुरू कर दी थी.

कई किसानों ने गुलाबी सुंडी के हमले के कारण 100 फीसदी तक फसल के नुकसान की शिकायत की है. इसका नतीजा पंजाब के मालवा क्षेत्र (मनसा और बठिंडा) में किसानों के बीच आत्महत्या की घटनाओं में वृद्धि भी है.

मनसा जिले के मूसा गांव के 43 वर्षीय किसान गुरप्रीत सिंह की पांच एकड़ कपास की फसल भी गुलाबी सुंडी ने तबाह कर दी, जिसके चलते 22 अक्टूबर को अपने खेत से लौटने के बाद उन्होंने सल्फास की गोलियां खा लीं.

खेती गुरप्रीत का पारिवारिक व्यवसाय था. उन्होंने इसमें बने रहने के लिए 3 लाख रुपये के संस्थागत ऋण के अलावा पिछले कई सालों में साहूकारों से भी 4 लाख रुपये का ऋण लिया था.

स्थानीय अखबारों की खबरों के मुताबिक, कपास बेल्ट में 28 सितंबर 2021 को एक ही दिन में दो और आत्महत्या की घटनाएं हुईं. चट्ठेवाला गांव में जसपाल सिंह की ढाई एकड़ ज़मीन सार्वजनिक नीलामी के लिए अधिसूचित की गई थी क्योंकि वे करीब 15 लाख रुपये का बैंक ऋण नहीं चुका सके थे और डिफॉल्टर घोषित कर दिए गए थे.

वहीं, गुरमीत सिंह खेतिहर मजदूर थे जिन्होंने चीमा गांव में ठेके पर खेती के लिए (कांट्रेक्ट फार्मिंग) ज़मीन का एक टुकड़ा लिया था.

सामाजिक कार्यकर्ता किरणजीत कौर झुनीर ने द वायर  को बताया, ‘किसानों में आत्महत्या की घटनाएं नवंबर-दिसंबर में बढ़ जाती हैं, जब बैंकों के अधिकारी और साहूकार फसल (कपास और धान की खरीफ फसल) कटने के बाद सभी बकायेदारों के घरों के चक्कर लगाते हैं.’

वे बताती हैं, ‘अगर हम 2002 से 2015 तक तीन जिलों (मनसा, बठिंडा और संगरूर) में तीन विश्वविद्यालयों द्वारा किए गए आधिकारिक सर्वे देखें तो आत्महत्या से 16,606 मौतें हुईं, जिसका अर्थ है कि एक दिन में कम से कम तीन आत्महत्याएं हुईं.’

मनसा के भामा खुर्द गांव में जरनैल सिंह ने अपने खराब हुए कपास के दो एकड़ खेत को समतल कर दिया था और कपास की पत्तियां मवेशियों के लिए चारा बन गईं.

जरनैल के साथी किसान हरिंदर सिंह ने कहा कि जुलाई के अंतिम सप्ताह में फसल खराब होने के साफ और स्पष्ट संकेत थे, जब इल्ली जैसे जीव के आने के संकेत देते हुए संभावित बिंदु के रूप में फसल पर काले धब्बे दिख रहे थे.

उन्होंने बताया, ‘हमने एक महीने से ज्यादा समय पहले सूंडों के अंदर गुलाबी सुंडी देखी और दहशत फैल गई, लेकिन तब तक बहुत देर हो चुकी थी. दो महीने के खूब हंगामे के बाद भी जिम्मेदार अधिकारी चुप हैं, और बीज आपूर्तिकर्ताओं ने कह दिया कि वे असहाय हैं. इसमें उनकी कोई गलती नहीं है.’

फसल खराबी की समस्या से निपटने संबंधी सरकारी उपायों पर निराशा व्यक्त करते हुए तलवंडी अक्काली गांव के जसबीर सिंह कहते हैं, ‘यह स्पष्ट है कि हमें खराब बीज की आपूर्ति की गई थी और यह किसानों को कमजोर करने के लिए जानबूझकर किया गया हो सकता है.’

जसबीर सिंह खुशकिस्मत थे कि उन्होंने नौ एकड़ ज़मीन पर धान बोया, जिस दो एकड़ ज़मीन पर उन्होंने कपास बोई थी, वह बर्बाद हो गई.

मनसा जिले के दानेवाला गांव में भी कपास उत्पादक 26 वर्षीय रशमिंदर सिंह की 11 एकड़ फसल पूरी तरह बर्बाद हो गई. खेत से लौटकर उन्होंने कीटनाशक की गोलियां खा लीं.

शोक में डूबे उसके भाई जसप्रीत ने बताया कि फसल बचाने के लिए उन्होंने 45 दिनों की अवधि में छह बार कीटनाशकों का छिड़काव किया था, लेकिन तब तक गुलाबी सुंडी अपना काम कर चुकी थी.

उन्होंने बताया, ‘जब शुरुआत में दो बार कीटनाशक छिड़कने पर भी कोई फायदा नहीं हुआ तो हमने और कीटनाशक खरीदने के लिए एक साहूकार से 50,000 रुपये उधार लिए.’ उन्होंने बताया कि उनके पास पहले से ही चुकाने के लिए बैंक का 4.6 लाख रुपये कर्ज़ है.

रशमिंदर ने 3 अक्टूबर को अपनी जान ले ली.

दानेवाला गांव में रशमिंदर की तस्वीर के साथ जसप्रीत और उनकी मां.

सात अक्टूबर को मुक्तसर जिले के कालांवली गांव में एक और कपास उत्पादक किसान रंजीत सिंह ने भी मौत को गले लगा लिया. उनके पास डेढ़ एकड़ जमीन थी. इसी तरह मनसा में घुड्डूवाला गांव के एक और किसान दर्शन सिंह ने भी छह अक्टूबर को आत्महत्या कर ली थी.

भामा खुर्द गांव के पंचायत सदस्य राज सिंह ने बताया कि गुलाबी सुंडी के हमले के कारण किसानों को 100 फीसदी फसल का नुकसान हुआ है. उन्होंने कहा, ‘हमें नहीं पता कि बीज दोषपूर्ण है या वास्तव में बीटी बीज पर एक ऐसे कीट ने हमला किया है, जिसे हम अपने जीवन में पहली बार देख रहे हैं.’

उन्होंने बताया कि हमला अचानक हुआ था, जब से क्षेत्र में 2004 में पहली बार बीटी बीज बोया गया था, तब से ऐसा हमला पहली बार हुआ है.

उन्होंने कहा, ‘विभाग के अधिकारी जुलाई के अंत में यहां आए थे, जब हमने सूंडों पर धब्बे देखकर खतरे की सूचना दी थी, लेकिन उन्होंने धब्बों को मामूली बताया कि केवल 10 फीसदी फसल पर हैं.’

मनसा जिले के एक गांव में कपास में लगी गुलाबी सुंडी दिखाते एक किसान.

राज सिंह ने आगे कहा कि जब पहली फसल कटाई के दौरान कपास आंशिक रूप से खिल उठा तो वे सभी हैरान रह गए. उन्होंने बताया, ‘हम इस पहली कटाई में केवल 10 फीसदी कपास निकाल सके, और अब आप देख सकते हैं कि दूसरी कटाई के लिए कपास ही नहीं है.’

सितंबर के दूसरे पखवाड़े में खिलने वाली बीटी कपास की फसल को चुनने के लिए किसान आदर्श रूप से तीन चरणों से गुजरते हैं.

राज सिंह ने बताया, ‘यहां किसी ने 120 किलो को पार नहीं किया जो पहली कटाई में आदर्श पैदावार का महज 10 फीसदी है, और यह आंकड़ा भी उन पौधों का है जो आंशिक रूप से सड़े हुए और कीट से पीड़ित थे.’

क्या कहती है प्रारंभिक सरकारी रिपोर्ट 

विशेषज्ञ समिति की एक प्रारंभिक आधिकारिक रिपोर्ट कहती है, ‘पहले से ही अतिसंवेदनशील मौसमी परिस्थितियों का एक संयोग, जो कीट के लिए अनुकूल था और उन्हें नियंत्रित करने वाले उपायों के लिए प्रतिकूल था, ने सभी संभव उपायों के बावजूद फसल के आखिरी चरण में अचानक से भारी संक्रमण का नेतृत्व किया. जिससे किसी भी फसल-आधारित हस्तक्षेप के जरिये नुकसान की भरपाई संभव नहीं.’ पंजाब सरकार ने यह रिपोर्ट 30 सितंबर को अधिसूचित की.

रिपोर्ट में दर्ज हैं, ‘कई मामलों में बठिंडा और मनसा जिलों में, नुकसान 75% से अधिक था.’ हालांकि, रिपोर्ट विभिन्न स्थानों पर किसानों को हुए न्यूनतम नुकसान पर चुप्पी साध लेती है.

राज्य कृषि विभाग और पंजाब कृषि विश्वविद्यालय (पीएयू) के विशेषज्ञ दल ने बीटी बीज में किसी भी कमी को खारिज कर दिया और निष्कर्ष निकाला, ‘किस्मों के अंतर या गैर-बीटी बीज के साथ बीटी बीज के मिश्रण (दिशानिर्देशों के अनुसार एक बीज पैकेट के भीतर) ने गुलाबी सुंडी की घटना के स्तर को प्रभावित नहीं किया.’

हालांकि, यह बयान पीएयू के बठिंडा क्षेत्रीय केंद्र निदेशक परमजीत सिंह के पुराने बयान के एकदम विपरीत है, जिसमें उन्होंने पहले कहा था कि ‘कीट लार्वा महाराष्ट्र और कर्नाटक समेत दक्षिण-पश्चिम राज्यों से कपास के बीज की खेप के साथ राज्य में पहुंच रहा है.’

नवतेज सिंह बैंस पीएयू में प्लांट ब्रीडर वैज्ञानिक हैं और विशेषज्ञ दल के एक सदस्य थे. उन्होंने कहा कि उस बॉलगार्ड-3 बीज के उपलब्ध होने की अभी कोई संभावना नहीं है जो  कम से कम अगले दो साल तक गुलाबी सुंडी से मुकाबला कर सकता है.

बता दें कि पिछले साल भी कुछ गांवों में कपास बेल्ट के अपेक्षाकृत कम लोकप्रिय हिस्से में गुलाबी सुंडी का प्रकोप देखा गया था.

जब नवतेज से उस हमले के बाद से बीटी बीज की प्रमाणिकता के संबंध में किसानों के संदेह के बारे में पूछा गया तो उन्होंने कहा, ‘यह बठिंडा जिले के जोधौर माणा और गुरुसर गांवों में था, जहां कटाई के तीसरे चरण में गुलाबी सुंडी ने फसल पर हमला किया था, और तब हमने बीज का परीक्षण किया था और पाया था कि यह वास्तव में बीटी था.’

उन्होंने बताया, ‘बीटी पर गुलाबी सुंडी का प्रकोप बहुत पहले 2014 में सामने आया था, और 2017 और 2018 में महाराष्ट्र जैसे दक्षिणी राज्यों में पहली बार बड़े पैमाने पर सुंडी का हमला हुआ था.’

साथ ही उन्होंने बताया, ‘गुलाबी सुंडी का सामना करने के लिए पीएयू में मोनसेंटो कंपनी का परीक्षण 2015 तक चला और फिर पेटेंट विवाद के कारण बीच में ही बंद हो गया.’

सरकारी कार्रवाई में देरी

सुंडी द्वारा ख़राब किया गया कपास का फूल दिखाते कैलाश.

हिसार में हरियाणा कृषि विश्वविद्यालय से महज 40 किलोमीटर दूर फतेहाबाद जिले के सुलीखेड़ा गांव के किसान कैलाश गोदारा अपने बर्बाद कपास के खेतों के सूखे पौधों की झाड़ियों में खड़े मायूसी में खोए हुए थे.

55 वर्षीय कैलाश ने बताया कि बीटी कपास पर सुंडी का ऐसा हमला उन्होंने अपने जीवन में पहली बार देखा है. उन्होंने भी संदेह जताया कि ऐसा बीटी बीज के कारण है, और कहा कि जब उन्होंने विक्रेता से इस संबंध में शिकायत की तो उसने कहा कि वह इस बारे में कुछ नहीं कर सकता है.

उन्होंने बताया, ‘ऐसा पहले कभी नहीं हुआ, बीटी फसल पर सुंडी ने पहले कभी हमला नहीं किया.’

कैलाश ने अपनी लागत के अलावा करीब 10,000 रुपये और खर्च करते हुए सात बार कीटनाशकों का छिड़काव किया. वह अब तक फसल पर ‘20,000-22,000 रुपये प्रति एकड़’ खर्च कर चुके हैं.

सुलीखेरी में ही एक बगल के खेत में एक युवा किसान राजीव सिंचर ने भी कृषि विभाग को लेकर रोष प्रकट किया और पूछा कि उन्होंने जो बीज इस्तेमाल किया वह बीटी था या नहीं.

उन्होंने बताया, ‘हमने सितंबर के दूसरे सप्ताह में इल्ली के हमले को देखा और पाया कि सूंड के अंदर एक गुलाबी सुंडी थी. दहशत ने किसानों को जकड़ लिया.’

उन्होंने आरोप लगाया कि कृषि विभाग को अगस्त में ही सुंडी के हमले के बारे में पता था लेकिन अधिकारी इस पर चुप्पी साधे रहे.

राजीव ने बताया, ‘हमें बताया गया था कि हमें बीटी बीज मिले हैं, और यहां तक कि खेत में हमारे बुजुर्गों ने भी बीटी कपास पर कीट का ऐसा हमला कभी नहीं देखा है. हम समूहों में जिला कृषि अधिकारी के पास गए लेकिन वे इस मसले पर चुप्पी साधे रहे.’

कैलाश सवाल उठाते हुए पूछते हैं, ‘अब एक सर्वे हो रहा है. लेकिन अगर अधिकारी यहां देर से पहुंचते हैं तो विभाग नुकसान का आकलन कैसे करेगा?’

यह सवाल पूछने के पीछे कैलाश जो कारण बताते हैं वह यह है कि किसान जल्द ही नवंबर के पहले सप्ताह में गेहूं बोने के लिए अपने खेतों को साफ कर देंगे, फिर कपास की खेती के बर्बाद होने का कोई भी निशान नहीं बचेगा.

कैलाश ने अपनी आर्थिक स्थिति बताते हुए कहा कि उन पर एक बैंक का ढाई लाख रुपये का कृषि ऋण है और करीब 60,000 रुपये का निजी साहूकार का कर्ज़ भी चुकाना है.

उन्होंने बताया, ‘मुझे इस बार कपास की उपज से बहुत ज्यादा उम्मीदें थीं लेकिन अब भारी कर्ज़ के लिए पैसा न होने के चलते मैं बर्बाद हो गया हूं.’

राजीव पूछते हैं, ‘हिसार कृषि विश्वविद्यालय इस जगह से मुश्किल से 40 किलोमीटर दूर है लेकिन क्या कोई हमें बता सकता है कि उस विश्वविद्यालय ने अब तक हमें कैसे फायदा पहुंचाया है?’

उनका कहना है कि बीज वितरण तक का भी कोई नियम-कायदा नहीं है. वे कहते हैं, ‘अगर ऐसे विश्वविद्यालयों या (कृषि) विभाग की कोई जवाबदेही होती, तो हम निजी बीज आपूर्तिकर्ताओं पर निर्भर नहीं होते.’

कई किसानों ने बीमा कंपनियों के बारे में भी शिकायत की कि उन्होंने पूर्व में फसल नुकसान का भुगतान करने से इनकार कर दिया था. राजीव आगे बताते हैं, ‘मैं फसल बीमा के लिए हर छह महीने बाद 1,680 रुपये प्रति एकड़ का भुगतान करता हूं, लेकिन इस फसल नुकसान को लेकर मेरे द्वारा क्लैम करने के एक महीने बाद भी किसी ने कोई सुध नहीं ली है.’

फतेहाबाद में एक अन्य किसान दिलीप कुमार ने भी फसल का भारी नुकसान झेला है. वे बताते हैं कि उन्होंने अपने फसल बीमा के दावे के संबंध में गिर्दवारी (नुकसान का आकलन करने के लिए आधिकारिक सर्वे) के लिए इस महीने चार बार स्थानीय पटवारी से संपर्क किया, लेकिन अब तक कोई भी नहीं आया.

हरियाणा कृषि विभाग ने सितंबर मध्य में आधिकारिक तौर पर इस प्रकोप का ऐलान किया था, लेकिन किसानों की फसल के नुकसान के लिए मुआवजे के संबंध में अभी तक कोई भी आधिकारिक प्रतिक्रिया सामने नहीं आई है.

(इस रिपोर्ट को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें.)