पटियाला के पंजाबी यूनिवर्सिटी से जुड़े दो अर्थशास्त्रियों द्वारा किया गया ये अध्ययन उन दावों को खारिज करता है कि किसान आंदोलन में ज्यादातर ‘बड़े किसान’ ही हैं. ये अध्ययन पिछले 11 महीनों के विरोध प्रदर्शन के दौरान मारे गए लगभग 600 में से 460 किसानों के आंकड़ों पर आधारित है.
चंडीगढ़: पटियाला के पंजाबी यूनिवर्सिटी से जुड़े दो अर्थशास्त्रियों द्वारा किए गए अध्ययन में पता चला है कि किसान आंदोलन के दौरान मारे गए लोगों के पास औसतन 2.94 एकड़ से अधिक भूमि नहीं थी.
ये आंकड़ा उन दावों को खारिज करता है कि किसान आंदोलन में ज्यादातर ‘बड़े किसान’ ही हैं. अध्ययन के अनुसार, पिछले करीब एक साल से चल रहे किसान आंदोलन में कथित तौर पर करीब 600 किसानों की मौत हुई है.
पंजाबी विश्वविद्यालय में अर्थशास्त्र के पूर्व प्रोफेसर लखविंदर सिंह और बठिंडा में पंजाबी विश्वविद्यालय के गुरु काशी परिसर में सामाजिक विज्ञान के सहायक प्रोफेसर बलदेव सिंह शेरगिल द्वारा किए गए अध्ययन से पता चला है, ‘अगर हम भूमिहीन मृतक किसानों को शामिल करते हैं, जो अनुबंधित भूमि पर खेती कर रहे थे, तो खेती के भूखंड का औसत आकार 2.26 एकड़ हो जाता है.’
सिंह के अनुसार, ये अध्ययन पिछले 11 महीनों के विरोध प्रदर्शन के दौरान मारे गए 600 में से 460 किसानों के आंकड़ों पर आधारित है. सिंह ने द वायर को बताया कि अध्ययन के दौरान मृतक के परिवारों से व्यक्तिगत रूप से संपर्क किया गया था.
इस अध्ययन के दौरान ये पुष्टि हुई है कि किसानों के विरोध प्रदर्शन में ज्यादातर छोटे एवं सीमांत किसानों और भूमिहीन किसानों ने अपनी जान गंवाई है. इसमें सबसे ज्यादा पीड़ित पंजाब के मालवा क्षेत्र के थे.
पंजाब में 23 जिले हैं, जो तीन क्षेत्रों में विभाजित हैं. मालवा में 15 जिले हैं, जबकि दोआबा और माझा क्षेत्रों में चार-चार जिले हैं. अध्ययन के अनुसार, मरने वाले किसानों में से 80 फीसदी पंजाब के मालवा क्षेत्र से थे. वहीं इसमें दोआबा और माझा क्षेत्र की हिस्सेदारी क्रमश: 12.83 फीसदी और 7.39 फीसदी थी.
रिपोर्ट के मुताबिक, किसान आंदोलन के दौरान हुईं मौतों में मौसम की स्थिति ने काफी भूमिका निभाई थी. इसके अलावा पर्याप्त भोजन नहीं मिलने के चलते इम्यूनिटी में गिरावट को भी मौतों का एक कारण बताया गया है.
उन्होंने कहा कि लंबे समय तक बारिश, लू और कड़ाके की ठंड का मानव शरीर पर काफी बुरा प्रभाव पड़ता है. अध्ययन में कहा गया है कि आने वाले दिनों में किसान आंदोलन में और मौतें हो सकती हैं.
उन्होंने कहा कि सड़क दुर्घटनाओं के कारण भी किसानों की मौत की संख्या में बढ़ोतरी हो सकती है.
रिपोर्ट के मुताबिक, इन मृतक किसानों की औसत उम्र करीब 57 साल थी. इनमें से कई गरीब किसानों पर काफी कर्ज है और परिवार की स्थिति की दयनीय है.
अध्ययन के अनुसार, कई स्वयंसेवी संगठनों ने मृतक किसानों के परिवारों का सहयोग करने की पेशकश की है. पंजाब सरकार ने प्रभावित परिवारों को 5 लाख रुपये मुआवजा और मृतक किसान के परिवार के एक सदस्य को सरकारी नौकरी देने की घोषणा की है, लेकिन अध्ययन में कहा गया है कि यह समर्थन काफी हद तक अपर्याप्त है.
हालांकि सरकार और एनजीओ द्वारा उठाए गए इन कदमों का किसान आंदोलन पर सकारात्मक प्रभाव पड़ा है.
उन्होंने कहा कि किसानों के आंदोलन की सबसे महत्वपूर्ण विशेषता यह है कि इसने गांधीवादी सिद्धांतों और उच्च स्तर की चेतना का पालन किया है.
राष्ट्रीय स्तर पर इसने आम जनता को प्रतिकूल रूप से प्रभावित करने वाले सरकारी फैसलों के खिलाफ निडर होकर विचार व्यक्त करने के लिए जगह दी है. अध्ययन में कहा गया है कि इसने न्यायपालिका जैसे संस्थानों को स्वतंत्र निर्णय लेने और भारत के संविधान में निहित नागरिकों के अधिकारों की रक्षा के लिए सहयोग प्रदान किया है.
अध्ययन में कहा गया है कि इस आंदोलन ने पिछले 30 वर्षों के आर्थिक सुधारों के कार्यान्वयन के लिए एक वैकल्पिक एजेंडा सामने रखा है.
उन्होंने कहा, ‘किसानों का विरोध आंदोलन सभी राजनीतिक दलों से दूरी बनाए रखने में सक्षम रहा है और उन्हें कभी भी अपने साथ सार्वजनिक मंच पर कब्जा करने की अनुमति नहीं दी. यह न केवल किसान नेतृत्व की परिपक्वता को स्पष्ट रूप से इंगित करता है, बल्कि राजनीतिक नेतृत्व को यह भी महसूस कराता है कि उन्होंने कृषक समुदाय का विश्वास खो दिया है.’
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