सरकार ने करोड़ों ख़र्च किए, लेकिन पंजाब में पराली जलाने का व्यावहारिक विकल्प खोजने में विफल रही

पिछले चार सालों में केंद्र सरकार ने पराली जलाने की समस्या का समाधान करने के लिए पंजाब को 1,050.68 करोड़ रुपये दिए हैं, लेकिन अभी भी भारी तादाद में खेतों में पराली जलाए जा रहे हैं. पंजाब प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड के आंकड़ों के मुताबिक, सिर्फ़ एक से सात नवंबर के बीच क़रीब 22,000 पराली जलाने के मामले रिपोर्ट किए गए हैं.

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Amritsar: Farmers work in a field as smoke rises due to the burning of the paddy stubbles at a village on the outskirts of Amritsar, Friday, Oct 12, 2018. Farmers are burning paddy stubble despite a ban, before growing the next crop. (PTI Photo) (PTI10_12_2018_1000107B)
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पिछले चार सालों में केंद्र सरकार ने पराली जलाने की समस्या का समाधान करने के लिए पंजाब को 1,050.68 करोड़ रुपये दिए हैं, लेकिन अभी भी भारी तादाद में खेतों में पराली जलाए जा रहे हैं. पंजाब प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड के आंकड़ों के मुताबिक, सिर्फ़ एक से सात नवंबर के बीच क़रीब 22,000 पराली जलाने के मामले रिपोर्ट किए गए हैं.

Amritsar: Farmers work in a field as smoke rises due to the burning of the paddy stubbles at a village on the outskirts of Amritsar, Friday, Oct 12, 2018. Farmers are burning paddy stubble despite a ban, before growing the next crop. (PTI Photo) (PTI10_12_2018_1000107B)
(फाइल फोटो: पीटीआई)

नई दिल्ली: पराली जलाने की समस्या का समाधान करने के लिए केंद्र सरकार ने पिछले चार सालों में 2,000 करोड़ रुपये से अधिक की राशि खर्च की है, लेकिन इसके बावजूद दिल्ली-एनसीआर, पंजाब और हरियाणा की वायु गुणवत्ता खराब श्रेणी रही है.

इस राशि में से 1,050.68 करोड़ रुपये पंजाब को दिए गए थे, लेकिन यहां अभी भी भारी तादाद में खेतों में पराली जलाए जा रहे हैं.

पंजाब प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड (पीपीसीबी) के आंकड़ों के मुताबिक, एक से सात नवंबर के बीच पराली जलाने के करीब 22,000 मामले रिपोर्ट किए गए हैं. राज्य के अधिकारियों ने दावा किया कि राज्य में 31 अक्टूबर तक पराली जलाने के 13,124 मामले दर्ज किए गए थे, जो पिछले साल तक दर्ज किए गए मामलों की तुलना में 50 प्रतिशत कम हैं.

पराली जलाने के प्रतिदिन 5,000 से अधिक मामले सामने आने के साथ बीते 6 नवंबर को यह आंकड़ा 35,000 का आंकड़ा पार कर गया.

पीपीसीबी अधिकारियों के मुताबिक, पंजाब में इस साल पराली जलाने के 62 फीसदी मामले सिर्फ एक से सात नवंबर के बीच आए हैं, जिसके कारण वायु गुणवत्ता ‘गंभीर’ स्थिति में पहुंच गई है.

दिल्ली भी ‘गंभीर श्रेणी’ में हवा की गुणवत्ता के साथ एक ‘गैस चैंबर’ में बदल गया है, क्योंकि पराली जलाने के साथ दिवाली पर आतिशबाजी पर प्रतिबंध की अवहेलना करने वालों ने पटाखे जलाकर शहर में प्रदूषण के स्तर को बढ़ा दिया है.

पीपीसीबी के सदस्य सचिव क्रुनेश गर्ग ने द वायर को बताया कि दिल्ली में प्रदूषण के स्तर के लिए पंजाब में पराली जलाने को जिम्मेदार नहीं ठहराया जा सकता है.

लेकिन केंद्रीय पृथ्वी विज्ञान मंत्रालय के वायु गुणवत्ता निगरानी केंद्र, सिस्टम ऑफ एयर क्वालिटी एंड वेदर फोरकास्टिंग एंड रिसर्च (सफर) ने छह नवंबर को खुलासा किया था कि पंजाब और हरियाणा में पराली जलाने ने दिल्ली के पीएम 2.5 कणों ने प्रदूषण में 41 फीसदी का योगदान दिया है.

द एनर्जी रिसोर्सेज इंस्टिट्यूट (टीईआरआई), दिल्ली के शोधकर्ताओं द्वारा किए गए एक नवीनतम अध्ययन में पाया गया कि पराली जलाने से पंजाब में किसानों के स्वास्थ्य पर बड़ा प्रभाव पड़ा है.

राज्य के छह गांवों में 3,000 लोगों पर किए गए इस सर्वे में पता चला कि पराली जलाने से फेफड़ों की कार्यक्षमता में काफी कमी आई है और यह ग्रामीण पंजाब में महिलाओं के लिए विशेष रूप से हानिकारक है.

पंजाबी विश्वविद्यालय में अर्थशास्त्र विभाग के पूर्व प्रोफेसर और प्रमुख लखविंदर सिंह ने कहा कि पराली जलाने का समाधान सही तरीके से नहीं निकाला गया है. महज सब्सिडी देने से इस समस्या को हल नहीं किया जा सकता है और इसके लिए सरकार ही जिम्मेदार है.

उन्होंने कहा कि पहले पराली जलाने की स्थिति उत्पन्न नहीं होती थी, क्योंकि पंजाब में हाथ से कटाई की जाती थी. हरियाणा में छोटे और सीमांत किसान अभी भी हाथ से कटाई करते हैं, इसलिए पंजाब की तुलना में यहां कम पराली जलाने के मामले सामने आते हैं.

सिंह ने कहा कि जब हाथ से कटाई होती है तो पराली की समस्या उत्पन्न नहीं होती है, क्योंकि कटाई के साथ ही पूरा खेत साफ हो जाता है, लेकिन मशीन से काटने पर पराली बच जाती है, जिसे जलाकर किसान अगले सीजन की बुवाई के लिए खेत तैयार करते हैं.

उन्होंने कहा कि किसान इसलिए पराली जलाता है, क्योंकि अन्य तरीकों की तुलना में यह सस्ता पड़ता है. चूंकि खेती में लागत बढ़ती जा रही है, इसलिए किसान अतिरिक्त लागत का बोझ उठाने की स्थिति में नहीं हैं.

वहीं एक अन्य अर्थशास्त्री सुचा सिंह गिल ने द वायर को बताया कि धान की कटाई और गेहूं की बुवाई के बीच का समय घटने के वजह से पराली जलाने की समस्या बढ़ रही है.

उन्होंने कहा कि पहले धान मई में बोया जाता था और सितंबर या अक्टूबर के शुरुआत तक कटाई की जाती थी. इसलिए किसान के पास पराली का समाधान करने के लिए एक महीने से अधिक का समय बचता था.

लेकिन बाद में सरकार ने मध्य जून से पहले धान की बुवाई पर रोक लगा दी थी. ऐसा इसलिए किया गया था, ताकि धान की बुवाई में मानसून के पानी का इस्तेमाल किया जा सके और भूमिगत जल पर किसानों की निर्भरता कम हो सके.

इसके कारण धान की कटाई अब अक्टूबर अंत तक होती है और फिर किसान को जल्दी-जल्दी में अगले सीजन की गेहूं वगैरह की बुवाई करनी होती है. नतीजतन पराली का समाधान निकालने के लिए किसान के पास समय नहीं बचता है और उन्हें इसे खेत में ही जलाना पड़ता है.

भारतीय कृषि अनुसंधान संस्थान ने बायो-डिकम्पोजर बनाया है, जो खेत में ही पराली को मिट्टी में मिला देता है, लेकिन इसके लिए कम से कम तीन से चार हफ्ते का समय चाहिए होता है. पंजाब में जिन किसानों ने पहले ये पद्धति अपनाई थी, अब उन्हें दोबारा से पराली जलाने पर लौटना पड़ा है.

पराली को खत्म करने के लिए सरकार सब्सिडी पर सुपर-सीडर या हैप्पी सीडर जैसी मशीनें मुहैया कराती है, लेकिन बड़े किसान ही इसका लाभ उठा पा रहे हैं.

बीकेयू-दकोंडा के महासचिव और संयुक्त किसान मोर्चा के प्रवक्ता जगमोहन सिंह ने कहा कि सैकड़ों करोड़ रुपये की सब्सिडी के बावजूद पराली जलाना बंद नहीं हुआ है, यह इस बात का स्पष्ट संकेत है कि सब्सिडी पर मशीन देने की व्यवस्था काम नहीं कर रही है.

उन्होंने कहा, ‘यह योजना काम नहीं कर सकती है, क्योंकि पंजाब में अधिकांश किसान सीमांत और छोटे हैं. उनकी आर्थिक स्थिति खराब है. वे सब्सिडी पर भी ऐसी मशीन खरीदने की स्थिति में नहीं हैं. इसके अलावा इस मशीन को चलाने के लिए 7-8 लाख रुपये की लागत वाले बड़े ट्रैक्टर की जरूरत होती है.’

जगमोहन ने कहा कि बड़े किसान ही कृषि अधिकारियों के साथ सांठ-गांठ करके सब्सिडी का पूरा फायदा ले रहे हैं.

उन्होंने कहा कि केवल नकद प्रोत्साहन ही किसानों को पराली से निपटने में मदद कर सकता है.

सुप्रीम कोर्ट ने साल 2019 में पंजाब, हरियाणा और उत्तर प्रदेश की राज्य सरकारों को किसानों को वित्तीय सहायता प्रदान करने का निर्देश दिया था, ताकि वे पराली का प्रबंधन कर सकें और पराली जलाने से बच सकें, लेकिन राज्य सरकारों ने सब्सिडी वाली मशीनों को समाधान के रूप में बढ़ावा देने पर अधिक ध्यान केंद्रित किया, जो स्पष्ट रूप से काम नहीं कर रही है.

(इस रिपोर्ट को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)