बीते 20 सालों में हिरासत में मौत के 1,888 मामले, 26 पुलिसकर्मियों को दोषी पाया गया: रिपोर्ट

एनसीआरबी और क्राइम इन इंडिया की 2001-2020 की रिपोर्ट्स से तैयार किया गया डेटा बताता है कि कुल 1,888 में से 893 में पुलिसकर्मियों के ख़िलाफ़ केस दर्ज किए गए और 358 के ख़िलाफ़ आरोपपत्र दायर हुए. हालांकि इन सालों में केवल छब्बीस पुलिसकर्मियों को दोषी साबित किया जा सका.

(इलस्ट्रेशन: परिप्लब चक्रवर्ती/द वायर)

एनसीआरबी और क्राइम इन इंडिया की 2001-2020 की रिपोर्ट्स से तैयार किया गया डेटा बताता है कि कुल 1,888 में से 893 में पुलिसकर्मियों के ख़िलाफ़ केस दर्ज किए गए और 358 के ख़िलाफ़ आरोपपत्र दायर हुए. हालांकि इन सालों में केवल छब्बीस पुलिसकर्मियों को दोषी साबित किया जा सका.

(इलस्ट्रेशन: परिप्लब चक्रवर्ती/द वायर)

नई दिल्ली: आधिकारिक रिकॉर्ड्स दिखाते हैं कि बीते बीस वर्षों में देश में हिरासत के मौत के 1,888 मामले सामने आए हैं.

इंडियन एक्सप्रेस के अनुसार, राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो (एनसीआरबी) और क्राइम इन इंडिया (सीआईआई) की 2001-2020 की रिपोर्ट्स से तैयार किया गया डेटा बताता है कि कुल 1,888 में से 893 में पुलिसकर्मियों के खिलाफ केस दर्ज किए गए और 358 पुलिसवालों के खिलाफ आरोपपत्र दायर हुए. हालांकि  महज 26 पुलिसकर्मियों को दोषी साबित किया जा सका.

इन निराशाजनक आंकड़ों का महत्व बीते दिनों उत्तर प्रदेश (यूपी) के कासगंज में एक हिंदू लड़की की गुमशुदगी के मामले में हिरासत में लिए गए 22 वर्षीय अल्ताफ की थाने में मौत की घटना के आलोक में समझा जा सकता है.

इस मामले में कासगंज के कोतवाली थाने के पांच पुलिसकर्मियों को निलंबित किया गया है. पुलिस का दावा है कि अल्ताफ ने शौचालय के दो फीट के करीब ऊंचे नल के पाइप से अपने जैकेट की डोरी को बांधकर आत्महत्या की है. अल्ताफ के परिवार सहित काफी लोगों द्वारा पुलिस के दावे पर सवालिया निशान खड़े के गए हैं.

उधर अधिकारियों का कहना है कि इस मामले में विभागीय जांच और मजिस्टेरियल जांच साथ-साथ चल रही है.

एनसीआरबी के आंकड़ों से पता चलता है कि हिरासत में हुई मौतों के लिए दोषी ठहराए गए 11 पुलिसकर्मियों की सबसे अधिक संख्या साल 2006 में यूपी में- सात और मध्य प्रदेश में- चार थी. हालांकि डेटा यह नहीं स्पष्ट करता है कि क्या दोषसिद्धि का आंकड़ा उसी वर्ष से संबंधित है जिसमें पुलिस हिरासत में हुई मौतें हुई थीं.

नवीनतम आंकड़ों के अनुसार, साल 2020 में हिरासत में 76 मौतें हुईं, जिसमें गुजरात में सबसे अधिक 15 रहीं. सूची में अन्य राज्य आंध्र प्रदेश, असम, बिहार, छत्तीसगढ़, हरियाणा, कर्नाटक, केरल, मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र, ओडिशा, पंजाब, राजस्थान, तमिलनाडु, तेलंगाना और पश्चिम बंगाल हैं. हालांकि, इस साल कोई दोषसिद्धि नहीं हुई.

साल 2017 से एनसीआरबी हिरासत में मौत के मामलों में गिरफ्तार पुलिसकर्मियों पर डेटा जारी कर रहा है. पिछले चार सालों में हिरासत में हुई मौतों के सिलसिले में 96 पुलिसकर्मियों को गिरफ्तार किया गया है. हालांकि बीते कुछ सालों का यह डेटा उपलब्ध नहीं है.

राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों द्वारा प्रस्तुत आंकड़ों के आधार पर संकलित अपने रिकॉर्ड में एनसीआरबी ने ‘पुलिस हिरासत/लॉकअप में मौत’ को दो श्रेणियों में बांटा है- रिमांड पर नहीं लिए गए व्यक्ति और रिमांड में लिए गए व्यक्ति.

पहली श्रेणी में वे लोग शामिल हैं जिन्हें गिरफ्तार किया गया है लेकिन उन्हें अदालत में पेश नहीं किया गया, और दूसरी श्रेणी में वे लोग शामिल हैं जो पुलिस/न्यायिक रिमांड में हैं.

ब्यूरो के आंकड़ों से पता चलता है कि 2001 के बाद से ‘रिमांड पर नहीं लिए गए व्यक्तियों’ की श्रेणी में 1,185 हिरासत में मौतें हुईं और ‘रिमांड में लिए गए लोगों’ की श्रेणी में 703 मौतें दर्ज की गईं. पिछले दो दशकों के दौरान हिरासत में हुई मौतों के संबंध में पुलिसकर्मियों के खिलाफ दर्ज 893 मामलों में से 518 उन लोगों से संबंधित हैं जो रिमांड पर नहीं थे.

इन आंकड़ों को लेकर इस मसले पर जब इस अख़बार द्वारा पूर्व आईपीएस अधिकारी प्रकाश सिंह से संपर्क किया गया, तब उन्होंने कहा कि ‘पुलिस के कामकाज की खामियों को स्वीकारते हुए उन्हें ठीक किया जाना चाहिए.’

यूपी और असम के डीजीपी रहे सिंह ने कहा, ‘पुलिसकर्मी इन मामलों की ठीक से जांच नहीं करते हैं. वे अपने सहयोगियों को बचाने की कोशिश करते हैं, जो निश्चित रूप से गलत है. जब किसी व्यक्ति की हिरासत में मृत्यु हो जाती है, तो जिम्मेदार व्यक्ति को जवाबदेह ठहराया जाना चाहिए और पुलिस को यह सुनिश्चित करना चाहिए कि उसे उचित सजा मिले.’

हालांकि सिंह ने यह भी कहा कि20 वर्षों में हिरासत में हुई 1,888 मौतें ‘भारत के आकार और आबादी वाले देश के लिए कोई बड़ी संख्या नहीं है.’

उन्होंने आगे कहा, ‘पर महत्वपूर्ण यह है कि पुलिसकर्मी थर्ड-डिग्री तरीकों का इस्तेमाल करते हैं, हिरासत लिए गए व्यक्ति को चोट पहुंचाते हैं. यह गलत प्रथा है. पुलिसकर्मियों को संवेदनशील और शिक्षित करने की जरूरत है. साथ ही उन्हें जांच के वैज्ञानिक तरीकों और उचित पूछताछ तकनीक पर भरोसा करना चाहिए.’

उल्लेखनीय है कि बीते दिनों दिल्ली हाई कोर्ट ने एक मामले की सुनवाई करते हुए कहा था कि पुलिस को पूछताछ के दौरान मारपीट करने का अधिकार कोई कानून नहीं देता है.

हाईकोर्ट दो लोगों की याचिका पर सुनवाई कर रहा था, जिन्हें कथित तौर पर अवैध रूप से हिरासत में लिया गया और दिल्ली पुलिस के कर्मचारियों ने इस दौरान उन्हें बेरहमी से पीटा था.