सिंघू, टिकरी और ग़ाज़ीपुर सीमाएं भारतीय जनतंत्र की यात्रा के मील के पत्थर हैं

किसान आंदोलन इसका जीवित प्रमाण है कि यदि लक्ष्य की स्पष्टता हो तो विचार भिन्नता के बावजूद संयुक्त संघर्ष किया जा सकता है. संयुक्त किसान मोर्चा ने एक लंबे अरसे बाद संयुक्त संघर्ष की नीति को व्यावहारिकता में साबित करके दिखाया है.

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ग़ाज़ीपुर सीमा पर कृषि कानून वापस लिए जाने के निर्णय पर जश्न मनाते किसान. (फोटो: पीटीआई)

किसान आंदोलन इसका जीवित प्रमाण है कि यदि लक्ष्य की स्पष्टता हो तो विचार भिन्नता के बावजूद संयुक्त संघर्ष किया जा सकता है. संयुक्त किसान मोर्चा ने एक लंबे अरसे बाद संयुक्त संघर्ष की नीति को व्यावहारिकता में साबित करके दिखाया है.

ग़ाज़ीपुर सीमा पर कृषि कानून वापस लिए जाने के निर्णय पर जश्न मनाते किसान. (फोटो: पीटीआई)

यह लम्हा किसानों का है. उनके संघर्ष का. उस संघर्ष की महिमा का. उनके धीरज का. उनके जीवट का. अपनी समझ पर किसानों के भरोसे का. अभय का. प्रभुता के समक्ष साधारणता का.

विशेषज्ञता के आगे साधारण जन के विवेक का. शस्त्रबल के आगे आत्मबल का. सत्ता के अहंकार के समक्ष संघर्ष की विनम्रता का. चतुराई, कपट के समक्ष खुली, निष्कवच सरलता का. कटुता के समक्ष मृदुता का. यह क्षण धर्म की सांसारिक प्रासंगिकता का भी है. सत्याग्रह का.

इस क्षण को क्या हम प्रदूषित करें उसकी चर्चा से और उसके शब्दों के विश्लेषण से जो हिंसा, घृणा, अहंकार, अहमन्यता, कपट, संकीर्णता और क्षुद्रता का पर्याय है? इसे उसका क्षण न बनने दें. यह उसकी रणनीतिक चतुराई पर अवाक होने का वक़्त नहीं है.

याद रखें, तानाशाह और फासिस्ट कभी झुकते हुए दिखना नहीं चाहता. जब वह झुके, इसे उसकी चतुराई कहकर उस पर मुग्ध होने की जगह जनता की शक्ति की विजय का अभिनंदन करने की ज़रूरत है.

साल होने जा रहा है जब यह किसान आंदोलन शुरू हुआ था. इसका केंद्र पंजाब था और यह हरियाणा तक फैला. फिर राजस्थान और पश्चिमी उत्तर प्रदेश इसके विस्तार के दायरे में आए.

यह सच है कि भारत के बाक़ी इलाके इस आंदोलन में उस प्रकार शामिल नहीं हो पाए जिस तरह पंजाब, हरियाणा और पश्चिमी उत्तर प्रदेश के किसान थे लेकिन था यह किसान आंदोलन ही. किसानों ने पहले अपने राज्यों में संघर्ष किया और फिर दिल्ली कूच का फ़ैसला किया.

दिल्ली उनकी राजधानी है, सत्ता की नहीं, यह ऐलान उनका था. सत्ता के पास लेकिन पुलिस, सेना, नौकरशाही की ताकत है, हथियारों का बल है. सो, उसके बल पर दिल्ली की सीमाओं पर उन्हें रोक दिया गया. किसानों ने ताकत की आज़माइश आत्मबल के सहारे ही करने का निर्णय किया.

जिन गुरु गोविंद सिंह और तेगबहादुर सिंह के नाम पर हिंदुओं में मुसलमानों के ख़िलाफ़ घृणा पैदा करने की कोशिश की जाती है, उन्हें सत्ता के ख़िलाफ़ संघर्ष का प्रतीक मनाकर यह आंदोलन आगे बढ़ा. एक केंद्रीय सत्ता यदि सबको कुचलना चाहे तो विद्रोह वहां से होगा जिसे परिधि कहते हैं. गुरु तेग बहादुर को इस तरह इस आंदोलन ने सत्ता से मुकाबले के लिए साहस के प्रतीक के तौर पर इस्तेमाल किया.

यह सुमति का अंदोलन था. वह सुमति जिसका महत्त्व जवाहरलाल नेहरू ने मथुरा में एक किसान से समझा था. उसने उनसे और कांग्रेसजन से कहा तुलसी के हवाले से ‘जहां सुमति तहं संपति नाना.’ सुमति जो कुमति को पहचानती है. सुमति जो सरल है लेकिन मूर्ख नहीं है. इसलिए किसानों ने सारे उकसावों को देखा और समझा और उनके जाल फंसने से इनकार कर दिया.

यह आंदोलन इसका जीवित प्रमाण है कि यदि लक्ष्य की स्पष्टता हो तो विचार भिन्नता के बावजूद संयुक्त संघर्ष किया जा सकता है. संयुक्त किसान मोर्चा ने एक लंबे अरसे बाद संयुक्त संघर्ष की नीति को व्यावहारिकता में साबित करके दिखलाया. साझा संघर्ष मुमकिन है अगर चूल्हा साझा हो.

इस आंदोलन से राजनीतिक दलों को भी सबक लेना चाहिए. यह आत्मावलोकन करना चाहिए कि क्या उनेक लिए वे महत्त्वपूर्ण हैं या उनका लक्ष्य.

यह क्षण संघर्ष के महत्त्व को स्थापित करने का है. सत्ता की ताकत कितनी ही हो, वह कितनी ही साधन संपन्न हो, यदि अपने लक्ष्य की पवित्रता और साधन पवित्रता में विश्वास है तो संघर्ष में निराश होने का कारण नहीं है. असल बात है संघर्ष. विजय होगी या नहीं, यह संघर्ष के अलावा अन्य कई कारणों से तय होगा. हम उन कारणों को प्रभावित न कर पाएं तो भी हमारे पास संघर्ष के अलावा और कोई विकल्प नहीं.

पिछले सात साल भारत की जनता के प्रत्येक तबके की तबाही के साल रहे हैं. छोटे व्यापारियों, नौकरीशुदा लोगों, मज़दूरों, नौजवानों के ख़िलाफ़ जैसे इस हुकूमत ने जंग छेड़ दी है. मुसलमानों और ईसाईयों या दलितों की अभी हम बात नहीं कर रहे.

जीएसटी हो या नोटबंदी, उसने साधारण जन की कमर तोड़ दी. लेकिन न तो व्यापारी खड़े हुए न नौजवान. हां मुसलमान, वह भी मुसलमान औरतें खड़ी हुईं. नहीं कह सकते कि वे हार गईं क्योंकि एनआरसी की प्रक्रिया बावजूद सारी डींगों के शुरू नहीं की जा सकी. किसान खड़े हुए थे भूमि अधिग्रहण अधिनियम के विरोध में और उसे रद्द करना पड़ा था.

इस आंदोलन के पीछे एक आंदोलन की शिक्षा है. सीएए के ख़िलाफ़ आंदोलन की. उसके धीरज, धीरज और टिकाव की. उसके सद्भाव की. संविधान और अहिंसा पर उसके ज़ोर की. वह एक स्थगित आंदोलन है. लेकिन वह है, उसका संघर्ष है.

कृषि कानूनों के लागू होने के बाद सारी राजनीतिक पस्ती के बीच किसानों ने संघर्ष पथ पर जाने का निर्णय किया. कृषि विशेषज्ञ व्यंग्य से मुस्कुराए, किसानों पर उन्होंने तरस खाया. राजनीतिक दल पहले ज़रा सकपकाए लेकिन फिर आंदोलन से उन्होंने बल प्राप्त किया. किसानों ने अपने संघर्ष दूषित न होने दिया. सत्ता के सारे दमन और असत्य के बावजूद.

सत्ता के सारे केंद्रों ने किसानों पर आक्रमण किया. अदालत ने चतुराई की. किसानों ने मात्र अपने संघर्ष की सरलता के सहारे शिकस्त मानने से इंकार किया.

सिंघू, टिकरी, शाहजहांपुर और ग़ाज़ीपुर भारतीय जनतंत्र की यात्रा के मील के पत्थर हैं. अभी राजनीति शास्त्र को भी इन्हें समझना शेष है.

जैसा हमने कहा यह पवित्र क्षण है. संघर्ष की निर्विकल्पता की घोषणा का. विजय से कहीं ज़्यादा. अभी हम उसी पर ध्यान केंद्रित करें.

दिल्ली धन्य हुई है कि उसकी सरहदों से जनतंत्र की प्राणवायु इस फासिज़्म के दमघोंटू प्रदूषण में उसकी सांस बचाने उस तक प्रवाहित हुई है. इस विजय के फलितार्थ के विश्लेषण का क्षण भी आएगा.

अभी तो संघर्ष की जय कहें.

(लेखक दिल्ली विश्वविद्यालय में पढ़ाते हैं.)