भारतीयता, परंपरा और आधुनिकता का असल अर्थ क्या है

भारत में जिस दल की केंद्रीय स्तर पर सरकार है और जो ‘स्वयंसेवी संगठन’ वर्चस्व की स्थिति में है उसका दबाव अकादमिक कार्यक्रमों और लोगों के सामान्य वैचारिक निर्माण पर स्पष्ट है. इस प्रक्रिया में किसी शब्द के अर्थ को इतना संकुचित कर दिया जा रहा है कि उसकी अर्थवत्ता ही संदिग्ध हो जा रही है.

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भारत में जिस दल की केंद्रीय स्तर पर सरकार है और जो ‘स्वयंसेवी संगठन’ वर्चस्व की स्थिति में है उसका दबाव अकादमिक कार्यक्रमों और लोगों के सामान्य वैचारिक निर्माण पर स्पष्ट है. इस प्रक्रिया में किसी शब्द के अर्थ को इतना संकुचित कर दिया जा रहा है कि उसकी अर्थवत्ता ही संदिग्ध हो जा रही है.

​​(प्रतीकात्मक फोटो: पीटीआई)

आजकल अकादमिक सभाओं, संगोष्ठियों और कार्यशालाओं में ‘भारतीयता’, ‘परंपरा और उसकी आधुनिकता’ आदि की चर्चा ख़ूब सुनाई देने लगी है. ऐसा नहीं है कि इस तरह की चर्चाएं पहले नहीं होती थीं लेकिन इनमें गति या इनकी लगभग हर जगह उपस्थिति वर्तमान राजनीतिक परिस्थिति के कारण है.

अभी भारत में जिस दल की केंद्रीय स्तर पर सरकार है और जो ‘स्वयंसेवी संगठन’ वर्चस्व की स्थिति में है उसका दबाव अकादमिक कार्यक्रमों और लोगों के सामान्य वैचारिक निर्माण पर स्पष्ट है. इस प्रक्रिया में किसी शब्द के अर्थ को इतना संकुचित कर दिया जा रहा है कि उसकी अर्थवत्ता ही संदिग्ध हो जा रही है या फिर किसी शब्द के अर्थ को इतना विस्तृत या लचीला कर दिया जा रहा है कि उसके पीछे की अवधारणा ही संकट में पड़ जा रही है.

जैसे ‘भारतीयता.’ भारतीयता के बृहत् अर्थ को संकुचित करके ‘प्राचीन भारत’ तक सीमित कर दिया जा रहा है. या फिर ‘परंपरा.’ परंपरा के अर्थ को भी संकुचित करके ‘प्राचीन भारत’ या ‘संस्कृत’ तक सीमित कर दिया जा रहा है.

‘आधुनिकता’ शब्द के अर्थ का विस्तार कर दसवीं-बारहवीं शताब्दी या उस से भी पीछे ले जा कर उस समय के रचनाकारों, विचारकों और प्रवृत्तियों को आधुनिक कहा जा रहा है. इस वातावरण में यह आवश्यक है कि हम इन शब्दों और अवधारणाओं पर ठहरकर विचार करें.

2021 में भारतीयता का कौन-सा अर्थ हम ग्रहण करते हैं यह इस बात पर निर्भर करता है कि हम कहां और किस बिंदु से भारत को देख रहे हैं? क्या आज के नफ़रत और सामाजिक बहिष्कार के माहौल में एक भारतीय मुसलमान या ईसाई की भारतीयता वही होगी जो एक उत्तर भारतीय मध्यवर्गीय हिंदू की होगी? या फिर उत्तर पूर्व के आदिवासी की वही होगी जो तथाकथित मुख्यधारा की है? एक दलित किस प्रकार की भारतीयता से अपने को संबद्ध समझेगा?

आज भारतीयता को परिभाषित करने वाले कौन-से तत्त्व हैं या हो सकते हैं? आख़िरकार भारतीयता की वह कौन-सी परिभाषा है जिसके ‘आलोक’ में किसी मुसलमान या ईसाई की भारतीयता या ‘देशभक्ति’ कभी भी संदेह के घेरे में आ सकती है?

यहां प्रसिद्ध अभिनेता टॉम ऑल्टर का एक प्रसंग याद आता है. 2013 में उनसे एक प्रेस कॉन्फ्रेंस में पूछ दिया गया कि ‘आप इतनी अच्छी हिंदी कैसे बोल लेते हैं?’ पहले तो टॉम ऑल्टर ने इस सवाल को हंसी में यह कहकर टालने की कोशिश की कि ‘मुंह से.’

फिर उन्होंने पूछने वाले पत्रकार से ही पूछा कि ‘आप इतनी अच्छी हिंदी कैसे बोल लेते हैं? आप किस मुल्क में पैदा हुए हैं?’ तो पत्रकार ने कहा कि ‘मैं यहीं पैदा हुआ हूं.’ फिर टॉम ऑल्टर ने कहा कि ‘मेरे हिंदी बोलने की वजह भी यही है और मैं चालीस साल से इस सवाल का जवाब दे रहा हूं कि मैं इतनी अच्छी हिंदी कैसे बोल लेता हूं?’

यह एक प्रसंग हमारे अवचेतन या चेतन मन में बैठी भारतीयता को स्पष्ट कर देता है. क्या यह कभी संभव है कि जो सवाल टॉम ऑल्टर से पूछा गया वह किसी उत्तर भारतीय हिंदू से पूछा जा सकता था? इसका उत्तर हमेशा नहीं ही होगा. अगर थोड़ी गहराई से हम विचार करें कि उस पत्रकार के मन में ऐसा क्या हुआ होगा जिसके कारण वह टॉम ऑल्टर से वैसा सवाल पूछ पाने की मनोदशा में है?

इसका उत्तर कोई गूढ़ दार्शनिक सिद्धांत नहीं है. उसे यही लगा होगा कि टॉम ऑल्टर ईसाई हैं तो उनकी भाषा तो हिंदी हो ही नहीं सकती. हिंदी पर तो हक़ ‘हिंदुओं’ का ही है. इस से यह भी स्पष्ट होता है कि भारतीयता की अवधारणा कब धीरे से ‘हिंदूपन’ में बदल जाती है यह पता भी नहीं चलता.

अगर ऐसा नहीं होता तो केवल ‘हिंदू नववर्ष’ को कभी भी ‘भारतीय नववर्ष’ कह कर प्रचारित नहीं किया जाता. अगर ‘हिंदू नववर्ष’ भारतीय है तो भारत में चूंकि पारसी भी रहते हैं इसलिए ‘नौरोज़’ भी ‘भारतीय नववर्ष’ है. इसी तरह भारत में होने वाले सभी नववर्ष भारतीय हैं. ठीक यही स्थिति ‘भारतीय परंपरा’ की भी है.

जब भी अकादमिक विचार-विमर्श में ‘भारतीय परंपरा’ की बात होती है तो इसे प्राचीन भारत और संस्कृत तक सीमित कर दिया जाता है. इस पर कभी नहीं विचार किया जाता कि भारतीय परंपरा में सल्तनत काल और मुग़ल काल की कोई जगह है या नहीं? उदाहरण के लिए भारतीय फ़ारसी साहित्य भारतीय परंपरा का अंग है या नहीं?

अब तो सल्तनत काल और मुग़ल काल की सभी स्मृतियों को एक-एक करके मिटा देने का सुनियोजित अभियान चल रहा है. ऐसा नहीं होता तो ‘इलाहाबाद’ का नाम बदल कर ‘प्रयागराज’ कभी भी नहीं किया जाता. परंपरा की वह कौन-सी समझ है जो यह मानती है कि ‘प्रयागराज’ तो भारतीय परंपरा के अनुकूल नाम है और ‘इलाहाबाद’ नाम भारतीय नहीं है?

यह बात समझी ही नहीं जाती कि परंपरा का अर्थ हमेशा ‘परंपराएं’ होता है. मतलब यह कि कोई भी परंपरा इकहरी नहीं होती. इस बात को भारत के संदर्भ में जवाहरलाल नेहरू ने समझा था इसीलिए वे ‘हिंदुस्तान की कहानी’ (‘डिस्कवरी ऑफ इंडिया’ का अनुवाद) में लिखते हैं कि भारत एक पुरानी पांडुलिपि की तरह है जिस पर परत-दर-परत लिखा हुआ है लेकिन कोई भी बाद वाली परत पुरानी परत को पूरी तरह मिटा नहीं पाती.

अत: आज साल 2021 में हम यदि भारतीय परंपरा की बात करते हैं तो हमें अब तक की हमारी यात्रा जो हो चुकी है उसे भी शामिल करना होगा. आज भारतीय परंपरा का तात्पर्य कभी भी केवल प्राचीन भारत या संस्कृत या हिंदू अर्थों में सीमित नहीं हो सकता. ऐसा करके हम भारतीय परंपरा का ही नुकसान करेंगे.

एक उदाहरण से बात और स्पष्ट हो सकती है. हिंदी के प्रसिद्ध लेखक विद्यानिवास मिश्र (जो निश्चय ही वामपंथी नहीं थे और भारतीय जनता पार्टी की ओर से राज्यसभा के सदस्य भी मनोनीत हुए थे.) हिंदी का एक वाक्य उद्धृत करते थे. वाक्य है कि ‘मैं कमरे में घुसा, क़मीज़ उतारकर कुर्सी पर डाल दी, खिड़की खोलकर आकाश की तरफ़ देखा और टेलीविजन चला दिया.’

अब इस वाक्य में अरबी, पुर्तगाली, संस्कृत और अंग्रेजी के शब्दों का इस्तेमाल किया गया है फिर भी यह हिंदी का वाक्य है. ठीक इसी प्रकार भारतीय परंपरा अब तक भारत में शामिल सभी परंपराओं को मिलाकर ही बन सकती है चाहे वह शास्त्रीय परंपरा हो या लोक-जीवन की.

उदाहरण के लिए रामकथा की वाल्मीकि कृत ‘रामायणम्’ ही परंपरा नहीं है बल्कि बिहार-उत्तर प्रदेश में प्रचलित एक सोहर गीत भी है जिसमें ‘हिरण-हिरणी’ का संवाद वर्णित है और जिसमें कौशल्या ‘ममतामयी मां’ नहीं बल्कि अकड़ से भरी ‘महारानी’ के रूप में सामने आती है. रामकथा के इस रूप में पात्रों का महिमामंडन नहीं बल्कि आलोचनात्मक दृष्टि है.

इसी प्रकार आज अगर मंदिर में कीर्तन करना भारतीय परंपरा है तो खुले में नमाज़ पढ़ना भी भारतीय परंपरा है. आज अगर झारखंड के ‘रजरप्पा’ में देवी की पूजा में बलि की परंपरा को भारतीय माना जाता है तो बकरीद में क़ुर्बानी भी भारतीय परंपरा ही है. ऐसे अनेक उदाहरण दिए जा सकते हैं.

परंपरा के संदर्भ में ही आधुनिकता का बिंदु लाया जाता है. ‘आधुनिकता’ के अर्थ को इतना लचीला कर दिया जाता है कि कबीर आदि कवि भी ‘आधुनिक’ कहे जाने लगते हैं. या फिर किसी तरह के शब्द प्रयोग को ध्यान में रख कर आधुनिक का वही अर्थ खोजा जाता है जो आज हम समझते हैं.

उदाहरण के लिए दसवीं-ग्यारहवीं शताब्दी के मिथिला के दार्शनिक उदयन ‘पुराने एवं जर्जर’ नैयायिक जयंतभट्ट से स्वयं को अलग करते हुए ‘वयं आधुनिका:’ कहते हैं. निश्चय ही यहां ‘आधुनिक’ शब्द का प्रयोग है. पर यहां शब्द का इस्तेमाल देख कर आधुनिकता का वही अर्थ नहीं लिया जा सकता जो फ्रांस की क्रांति (1789 ई.) के बाद दुनिया में फैला.

ऐसा इसलिए कि यदि शब्द पर ही विचार करें तो पाएंगे कि ‘आधुनिक’ शब्द संस्कृत व्याकरण के अनुसार ‘अधुना’ शब्द में ‘ठञ्’ प्रत्यय लगने से बनता है. ‘ठञ्’ प्रत्यय के अंतर्गत ‘इक’ जुड़ जाता है. जैसे ‘पक्ष’ से ‘पाक्षिक’, ‘दिन’ से ‘दैनिक’. उसी तरह ‘अधुना’ से ‘आधुनिक’.

इसीलिए संभवत: लगभग चौथी शताब्दी में बने संस्कृत के शब्दकोश ‘अमरकोष:’ में ‘आधुनिक’ शब्द नहीं मिलता. वहां ‘अधुना’ शब्द है जिसके लिए कहा गया है कि ‘पंच अस्मिन्काले इत्यर्थे, एतर्हि सम्प्रतीदानीमधुना साम्प्रतं तथा.’ मतलब यह कि ‘इस समय’ के अर्थ में ‘एतर्हि’, ‘सम्प्रति’, ‘इदानीम्’, ‘अधुना’ और ‘साम्प्रतम्’ का इस्तेमाल होता है.

इसलिए जब उदयन ने ‘आधुनिक’ शब्द का प्रयोग किया होगा तो उन के मन में संभवत: ‘अपने को’ ‘इस समय’ का और जयंतभट्ट को ‘पुराने समय’ का कहने का भाव रहा होगा. वहां आधुनिक का कालगत अर्थ है न कि प्रवृत्ति परक.

फ्रांस की क्रांति से स्वतंत्रता, समानता और बंधुत्व का मूल्य जो पूरी दुनिया में फैला वह आधुनिकता का प्रस्थान-बिंदु है. ऐसा इसलिए कि ‘आधुनिकता’ एक पारिभाषिक शब्द है. इसके अंतर्गत तार्किकता के साथ-साथ वैयक्तिकता, स्वतंत्रता, समानता, न्याय और राजनीतिक चेतना की अवधारणाएं तथा वैज्ञानिक विकास की स्थितियां भी जुड़ी हुई हैं. इसलिए केवल प्रश्नाकुलता को देख कर कबीर आदि कवियों को आधुनिक कहना ठीक नहीं जान पड़ता.

भारतीय परंपरा में रचे-पगे विद्वान हजारीप्रसाद द्विवेदी ने साहित्य के संदर्भ में तो स्पष्ट लिखा है कि ‘वस्तुतः साहित्य में आधुनिकता का वाहन प्रेस है.’

आधुनिकता के प्रसंग में ही ‘देशज आधुनिकता’, ‘प्रारंभिक आधुनिकता’ (अर्ली मॉडर्निटी) की चर्चा की जाती है. ‘देशज आधुनिकता’ का शाब्दिक अर्थ हुआ देश में उत्पन्न आधुनिकता. तब भारत के प्रसंग में यह प्रश्न कैसे हल होगा कि भारत में उत्पन्न आधुनिकता की पड़ताल किन मानकों पर होगी?

भारतीय आधुनिकता की कौन-सी नई परिभाषा गढ़ी जा सकती है जिसके आधार पर यूरोपीय आधुनिकता से बिलकुल ही भिन्न क़िस्म की आधुनिकता भारत में तलाश की जा सकती है? आधुनिक समय में वैयक्तिकता, स्वतंत्रता, समानता, न्याय और राजनीतिक चेतना के समानांतर भारतीय आधुनिकता ने कौन-से नए मूल्य मानवता को प्रदान किए हैं या इनके बारे में ही कौन-सी नई संकल्पनाएं प्रस्तुत की हैं, इनका आलोचनात्मक विश्लेषण भी प्राप्त नहीं होता.

इस प्रक्रिया में कई बार यह होता है कि हास्यास्पद ढंग से पश्चिम के किसी भी आधुनिक वैज्ञानिक आविष्कार को भारत की नकल बता दिया जाता है. महत्त्वपूर्ण संवैधानिक पदों पर आसीन व्यक्ति कई बार ऐसे बयान देते हैं. जैसे महाभारत के प्रसंग में सारथी संजय को मिली ‘दिव्य दृष्टि’ की कथा को ध्यान में लाकर यह कहा गया कि दरअसल यह ‘इंटरनेट’ का उदाहरण है.

इसी प्रकार महाभारत की ही कथा के अनुसार गांधारी के सौ पुत्रों की होने की बात को एक कुलपति ने ‘टेस्ट ट्यूब बेबी’ बता दिया. हमारा ध्यान नहीं जाता कि ऐसा करके हम दो तरह से नुकसान करते हैं. एक तो पश्चिमी मनुष्य की लगनशीलता, अध्यवसाय, नए ज्ञान की खोज के लिए उसके संघर्ष और उसकी सृजनशीलता को हीन बना देते हैं और दूसरी ओर व्यर्थ का गौरवबोध अपने-आप में भरते हैं जो परिणाम के रूप में हीनताबोध को ही सामने लाता है.

इन सबके साथ यह भी होता है कि हम अपनी परंपरा और विकसित प्राचीन सभ्यता का ज़िक्र तो बहुत करते हैं पर उस पर कोई गहन अकादमिक कार्य नहीं करते. जैसे विश्वविद्यालय के प्रसंग में तक्षशिला और नालंदा की चर्चा ख़ूब होती है. पहली बात तो यही है कि क्या विश्वविद्यालय की आधुनिक संकल्पना के आधार पर इन्हें ‘विश्वविद्यालय’ कहना इनके साथ भी न्याय है?

दूसरी बात यह भी इतनी चर्चा के बाद आज कोई यदि यह जानना चाहे कि तक्षशिला गुरुकुल में पाठ्यक्रम कैसा था? अध्यापन का तरीक़ा कैसा था? परीक्षा होती थी या नहीं? यदि होती थी तो किस तरह से? अध्यापकों या आचार्यों की नियुक्ति कैसे होती थी? आवश्यक धन कहां से आता था? राजनीतिक सत्ता और तक्षशिला गुरुकुल का क्या रिश्ता था?

ऐसे ही अनेक प्रश्नों के उत्तर मिल सकें, वैसा कोई उच्चस्तरीय अकादमिक कार्य देखने को नहीं मिलता. तब ऐसी स्थिति में क्या यह कहना उचित होगा कि महान परंपरा का नाम लेना और बात है तथा उसकी वास्तविक समझ एवं पड़ताल और बात!

शायद एक उदाहरण से यह बात और अधिक स्पष्ट हो सके. जब भारत में भारतीय जनता पार्टी की सरकार केंद्रीय स्तर पर गठित हुई और इसके बारे में यह माना जाता है कि यह दल प्राचीनता प्रेमी है तो ‘टूथपेस्ट’ बनाने वाली एक मशहूर कंपनी ने अपने टूथपेस्ट में ‘वेदशक्ति’ विशेषण जोड़ा. इस ‘वेदशक्ति’ का ‘वेद’ से क्या लेना-देना!

जिस मध्यकालीन समय को ‘प्रारंभिक आधुनिकता’ (अर्ली मॉडर्निटी) कहा जाने लगा है उसमें वैज्ञानिक विकास की स्थितियां कैसे और किन रूपों में तलाश की जा सकती हैं? आधुनिक समय में वैज्ञानिक आविष्कार तो पश्चिम में हुए हैं. वे भारत में तो नहीं हुए. इसी तरह वहां स्वतंत्रता, समानता और न्याय की अवधारणाओं की खोज कैसे और किन कसौटियों पर होगी? क्या इस कसौटी पर कबीर या तुलसीदास आधुनिक कहे जा सकेंगे?

हो सकता है कि इन कवियों के लेखन में इन प्रश्नों पर विचार आया हो पर जिन अर्थों में हम आज स्वतंत्रता, समानता और न्याय को समझते हैं उसके हिसाब से ज़्यादा संभावना है कि ये कवि आधुनिक नहीं कहे जा सकते. इतना ही नहीं अधिक से अधिक साहित्य (उदाहरण के लिए हिंदी में तत्कालीन भक्तिकालीन और रीतिकालीन काव्य तथा उर्दू में तत्कालीन ग़ज़ल ) में प्रेम की स्थितियों के संदर्भ में व्यक्ति की उपस्थिति को देख कर ‘वैयक्तिकता’ का भ्रम हो सकता है. लेकिन हमें यह भी ध्यान रखना चाहिए कि ‘व्यक्ति की उपस्थिति’ अलग चीज़ है और ‘वैयक्तिकता’ भिन्न वस्तु.

आधुनिकता का संबंध ‘वैयक्तिकता’ से है. ‘वैयक्तिकता’ व्यक्तित्व की वह ख़ास चीज़ है जो समेकित रूप से दूसरों से एक व्यक्ति को अलग करती है. अत: मध्यकालीन समय को ‘प्रारंभिक आधुनिकता’ (अर्ली मॉडर्निटी) कहना ठीक नहीं लगता. तब सवाल यह है कि भारतीय इतिहास में वह कौन-सा समय है जहां से हम अपने को आधुनिक कह सकते हैं?

दूसरे शब्दों में कहें, तो हम ने अपना आधुनिक कब और किस तरह बनाया? ‘हमारा आधुनिक’ जाति, क्षेत्र, समुदाय, लिंग आदि की विविधताओं और भिन्नताओं को कैसे और किन रूपों में आत्मसात कर एक व्यापक भारतीय नागरिकता विकसित कर सकता है?

इस प्रश्न का एक ही जवाब मिलता है कि जब हम ने संविधान का निर्माण किया और 26 जनवरी 1950 ई. को उसे लागू किया. उसी दिन से सारे भारतीय आधुनिकता में प्रवेश करते हैं. उससे पहले वैचारिक-सामाजिक धरातल पर जाति, लिंग, धर्म आदि के आधार पर भेदभाव तो हैं ही साथ ही न तो स्वतंत्रता है, न समानता और न ही न्याय. उसी दिन से वैचारिक रूप से हम इन सारे विभेदों को समाप्त कर स्वतंत्रता, समानता और न्याय सब के लिए ( माने सब के लिए चाहे वह कोई भी हो, बस वह भारत का नागरिक हो. ) हासिल करते हैं.

निश्चय ही आज भी हम पूरी तरह स्वतंत्रता, समानता और न्याय हर भारतीय नागरिक के लिए व्यावहारिक तौर पर उपलब्ध नहीं करा पाते हैं और इन्हीं अर्थों में हमारे लिए ‘आधुनिकता एक असमाप्त परियोजना है.’

(लेखक दक्षिण बिहार केंद्रीय विश्वविद्यालय में हिंदी पढ़ाते हैं.)