‘हिंदुत्ववादी’ संगठनों की अतीत की अलोकतांत्रिक करतूतों के चलते उनकी कार्रवाइयां अब किसी को नहीं चौंकातीं. लेकिन एक नया ट्रेंड यह है कि जब भी वे किसी कलाकार के पीछे पड़ते हैं, तब लोकतांत्रिक होने का दावा करने वाली सरकारें, किसी भी पार्टी या विचारधारा की हों, कलाकारों की अभिव्यक्ति की आज़ादी के पक्ष में नहीं खड़ी होतीं, न ही उन्हें संरक्षण देती हैं.
भारतीय श्रुति परंपरा कहती है: कविर्मनीषी परिभू स्वयम्भू. यानी कवि मनीषी तो होता ही है, अपनी अनुभूति के क्षेत्र में सब कुछ समेटने में सक्षम होता है और उसके लिए किसी का ऋणी नहीं होता.
‘शब्दकल्पद्रुम’ में तो कवि की परिभाषा देते हुए यहां तक कहा गया है कि ‘कवये सर्वजानाति सर्ववर्णयतीति कविः’ अर्थात कवि वह है, जो सब जानता हो और सारे विषयों का वर्णन कर सकता हो. साफ है कि उससे नवनवोन्मेषशालिनी प्रतिभा से संपन्न होने की अपेक्षा की जाती है. अन्यथा वह ‘जहां न पहुंचे रवि, वहां पहुंचे कवि’ वाली कहावत को सार्थक कर ही नहीं सकता.
इसी कड़ी में आनंदवर्धन कहते हैं कि अपार काव्यसंसार में कवि ब्रह्मा है और उसे संसार में जो जैसा अच्छा लगता है, वैसा ही वह उसका निर्माण करता है.
देशांतर की बात करें तो एक कथा है कि एक समय एक शायर ने अपनी काव्य पंक्तियों में अपनी प्रेमिका की खूबसूरती या किसी अदा पर, ठीक से याद नहीं आ रहा, अपने देश के दो सूबे कुर्बान कर दिए तो कुछ विघ्नसंतोषियों ने बादशाह से उसकी शिकायत कर दी.
बादशाह भी कुथ कम न था. बिना कुछ सोचे समझे शायर को पकड़ मंगाया और घुड़ककर पूछा, ‘क्यों रे, तेरी यह मजाल कि तूने मेरे दो सूबे अपनी प्रेमिका के नाम कर दिए? किसकी इजाजत से किया ऐसा और कहां से पाई इसकी कूवत?’ तब उस शायर ने भी भरे दरबार वही सब बातें कहकर अपनी कूवत सिद्ध की, जो हमारे देश की श्रुति परंपरा में कही गई हैं. अंत में उसने कहा कि ‘काव्य-संसार इतना बड़ा है कि उसमें ऐसी कुर्बानियों के लिए किसी बादशाह की इजाजत की जरूरत ही नहीं पड़ती’ और दरबार से उठकर चला गया.
कवियों-शायरों की अभिव्यक्ति की आजादी से जुड़ी ये बातें दुनिया के लोकतंत्र से रोशन होने से बहुत पहले की हैं और कही भले ही उनके संदर्भ में गई हैं, वह भी शायद इसलिए कि तब तक मनुष्य की मानसिक आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए कविता कहें या शायरी ही सबसे सुलभ साधन थी, लेकिन इनमें कहीं भी दूसरे कलाकारों को कवियों-शायरों से अलगकर उनकी जैसी स्वतंत्रता से वंचित नहीं किया गया है.
यह और बात है कि दुनिया में कभी भी ऐसी सत्ताओं व व्यवस्थाओं की कमी नहीं रही, जो कवियों व कलाकारों द्वारा अभिव्यक्त सत्य से खतरा महसूस कर उनका मुंह या सांसें बंद कराने में अपनी सारी शक्ति लगा देती रही हों.
ऐसी नजीरों से इतिहास भरा पड़ा है, जो सिद्ध करती हैं कि राजनीतिक सत्ताएं हों या धार्मिक, गाहे-बगाहे वे उन्हें अपने अर्दब में लेने, सबक सिखाने और अपना मोहताज बनाने की कोशिशें करती ही रही हैं. बदले में उनके द्वारा दिया जाता रहा राज्याश्रय भी उनकी इन कोशिशों से अलग नहीं सिद्ध होता रहा है.
बहुचर्चित स्टैंडअप कॉमेडियन मुनव्वर फारूकी इस साल के आरंभ से ही जो कुछ झेल रहे हैं और जिसकी अति हो जाने के बाद उन्होंने बेहद निराश होकर ‘नफरत जीत गई, कलाकार हार गया, मैं थक गया, अलविदा’ कहते हुए कॉमेडी कर्म छोड़ देने का फैसला लेने का संकेत दिया है, उसे कलाकारों का मुंह बंद कराने की कोशिशों की इसी कड़ी में देखा जा सकता है.
हां, उनका दुख और निराशा दोनों इस अर्थ में कहीं ज्यादा बड़े हैं कि हमारे ‘लोकतंत्र’ में उन्हें राजतंत्रों जितनी अभिव्यक्ति की आजादी भी नहीं मिल पा रही.
ज्ञातव्य है कि इसी साल एक जनवरी को इंदौर में एक कैफे में हुए उनके एक शो के सिलसिले में पुलिस ने एक भाजपा विधायक के बेटे की इस शिकायत पर उन्हें गिरफ्तार कर लिया था कि उन्होंने हिंदू देवी-देवताओं और केंद्रीय गृहमंत्री अमित शाह पर अभद्र टिप्पणियां कीं. तब उन्हें कोई महीना भर जेल में रहना पड़ा था और वे उच्चतम न्यायालय से जमानत मिलने के बाद रिहा हो पाए थे.
फारूकी पर इस तरह के आरोप इससे पहले भी चस्पां किए जाते रहे हैं, जबकि उनका कहना है कि इंदौर के शो में जिन जोक की बिना पर उनकी शिकायत की गई, उन्होंने सुनाए ही नहीं थे. यही कारण है कि पुलिस अब तक उनके खिलाफ चार्जशीट नहीं दाखिल कर पाई है.
लेकिन खुद को हिंदुत्ववादी कहने वाले कई संगठन तभी से इस तरह उनके पीछे पड़े हैं कि जहां भी उनका शो होना होता है, आयोजकों को धमकाकर रद्द करा देते हैं. उन्हें इससे भी कोई फर्क नहीं पड़ता कि शो वाले राज्य में किस पार्टी का शासन है. कभी उनके डर के मारे आयोजक खुद शो के आयोजन से हाथ खींच लेते हैं और कभी पुलिस ही शांति व्यवस्था को खतरे के नाम पर उसके आयोजन की अनुमति वापस ले लेती है.
इस सबके चलते पिछले दो महीने में उन्हें अपने 12 शो कैंसिल करने पड़े, जिनमें आखिरी बेंगलुरु में होने वाला था और उससे मिलने वाली धनराशि दिवंगत कन्नड़ अभिनेता पुनीत राजकुमार के चैरिटेबल संगठन को दान की जानी थी. इसके बाद एक और कॉमेडियन कुणाल कामरा के शो भी इसी शहर में रद्द किए गए.
बहरहाल, ‘हिंदुत्ववादी’ संगठनों की अतीत की अलोकतांत्रिक व आक्रामक करतूतों के चलते उनकी इस तरह की कार्रवाइयां अब किसी को भी नहीं चौंकातीं, क्योंकि आमतौर पर उनसे लोकतांत्रिक आचरण की उम्मीद ही नहीं की जाती. मामला किसी उन्हें नापसंद कलाकार का हो, तब तो और भी नहीं.
लेकिन इधर एक नया ट्रेंड यह दिख रहा है कि जब भी वे किसी कलाकार के पीछे पड़ते हैं, राजनीतिक कहें, निर्वाचित या खुद के लोकतांत्रिक होने का दावा करती न थकने वाली सरकारें, वे किसी भी पार्टी या विचारधारा की हों, कलाकारों की अभिव्यक्ति की आजादी के पक्ष में नहीं खड़ी होतीं, न ही उन्हें संरक्षण प्रदान करती हैं. ‘जिनपे तकिया था वही पत्ते हवा देने लगे’ को चरितार्थ करने लगती हैं, सो अलग.
उन्हें इससे भी कोई फर्क नहीं पड़ता कि इससे देश की लोकतांत्रिक व्यवस्था की साख व सर्वोच्चता नष्ट होती है, नियम-कायदों व प्रक्रियाओं का पालन भी कलाकारों के काम नहीं आता, उनके संवैधानिक अधिकार की सुरक्षा नहीं हो पाती और ‘अलविदा’ कहने की हद तक निराश होना पड़ता है.
देश का आजादी के बाद से अब तक का इतिहास गवाह है कि जैसे-जैसे हिंदुत्ववादी संगठनों की ताकत बढ़ती गई है, कलाकारों पर नियंत्रण के लिए उन्हें सताने की उनकी बदगुमानियां भी बढ़ती गई हैं.
ठीक है कि नरेंद्र मोदी सरकार के आने के बाद से वे और निरंकुश हो उठे हैं, लेकिन इससे पहले भी वे नापसंद कलाकारों के साथ ‘तूने नहीं तो तेरे बाप ने पानी गंदा किया होगा’ की तर्ज पर ही निपटते थे. सरकारें जब भी उनके खिलाफ कलाकारों का संबल बनने में विफल सिद्ध होती थीं. विश्वप्रसिद्ध चित्रकार मकबूल फिदा हुसैन को यूं ही उक्त संगठनों के विरोध के कारण देश नहीं छोड़ना पड़ा था.
जैसे आज फारूकी की यह सफाई नहीं सुनी जा रही कि उन्होंने वे जोक सुनाए ही नहीं, जिनके आधार पर उन्हें आरोपित कर उनके शो रुकवाए जा रहे हैं, वैसे ही तब न सिर्फ हुसैन बल्कि उनके समकालीन प्रतिष्ठित चित्रकारों की यह बात भी नहीं सुनी गई थी कि हुसैन के बनाए देवी-देवताओं के चित्र अश्लील नहीं बल्कि चित्रकला का उत्कृष्ट नमूना हैं.
इससे आत्मनिर्वासन को विवश हुए हुसैन का फेफड़े के कैंसर की लंबाी बीमारी के बाद 09 जून, 2011 को 95 वर्ष की अवस्था में लंदन के रॉयल ब्राम्पटन अस्पताल में निधन हो गया तो उसे मनमोहन सरकार पर कलंक के तौर पर देखा गया था. लेकिन अब हम ऐसे दौर में पहुंच गए हैं, जहां ऐसे कलंकों की शर्म महसूस ही नहीं की जाती और अविवेकी भीड़ें कलाकारों का विवेक निर्धारित करने के अधिकार से संपन्न हो गई है.
निस्संदेह, इसमें बाजार की शक्तियों का भी हाथ है, जिनके हाथों खेलकर कई कलाकार अभिव्यक्ति और अभिव्यक्ति के धंधे के बीच के फर्क भूल जाते हैं. लेकिन इस बिना पर सरकारों द्वारा उनकी अभिव्यक्ति की आजादी की परवाह किए बिना हिंदुत्ववादियों का अभीष्ट सिद्ध करने वाली कार्रवाइयां करने की कतई ताईद नहीं की जा सकती.
वैसे ही, जैसे इन संगठनों द्वारा कलाकारों को सताने को धर्म नहीं माना जा सकता. अंत में एक और बात. निस्संदेह हमारे देश में यह समय कवियों व कलाकारों से ज्यादा सत्ताओं की कुटिलताओं का है, जिसका सारे कट्टरतावादी लाभ उठा रहे हैं.
ऐसे में मुनव्वर फारूकी के साथ खड़े होना सारे कलाकारों और उनकी अभिव्यक्ति की आजादी के पक्षधरों का नैतिक कर्तव्य है. लेकिन उनकी निराशा के साथ खड़े होने से कहीं ज्यादा जरूरी यह समझना व समझाना है कि इस तरह हथियार डाल देने से हालात बदल नहीं जाने वाले, इसलिए कुटिलताओं का कारगर प्रतिरोध ज्यादा जरूरी है.
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं.)