मुरादाबाद के ईदगाह इलाके के रहवासी हर रात अपने मुद्दों पर चर्चा करने के लिए इकट्ठा होते हैं. इस दौरान राजनीतिक और आर्थिक दोनों ही तरह के मसलों पर बात होती है.
मुरादाबाद: मुरादाबाद के ईदगाह में अंधेरी संकरी-सी गली हर रात 8 बजे के बाद राजनीतिक चर्चाओं का मंच बन जाती है. दिनभर का अपना काम निपटाने के बाद पुरुषों का एक समूह, जिसमें युवा और वृद्ध दोनों शामिल होते हैं, बड़ी मस्जिद मोहल्ले में इकट्ठा होता है. वे चायवाले को 15-20 कप चाय बनाने के लिए कहते हैं. समय-समय पर बुर्का पहने हुए कुछ महिलाएं भी इस जमावड़े में शामिल होती हैं.
यह चलन 2019 की सर्दियों में शुरू हुआ था, जब मुस्लिम समुदाय के बुजुर्ग और जिम्मेदार लोग नागरिकता संशोधन अधिनियम (सीएए) के खिलाफ अपना विरोध जारी रखने संबंधी रणनीतियों पर चर्चा करने के लिए मिलने लगे. हालांकि, सीएए विरोधी आंदोलन भले ही अब तस्वीर में न हो लेकिन स्थानीय लोगों के इस समूह की बैठक अब भी जारी है.
अब चर्चा इस पर आकर केंद्रित हो गई है कि देश में अल्पसंख्यक किस स्थिति में रह रहे हैं. उत्तर प्रदेश में 2022 में होने वाले विधानसभा चुनाव इन चायकालीन चर्चाओं में एक ज्वलंत विषय होते हैं. बैठक में मौजूद एक बुजुर्ग चायवाले से कहते हैं, ‘जैसे-जैसे लोग आते हैं, तुम चाय लाते जाना.’ वह जवाब देता है, “हां हां, पता है.’
इस चर्चा में शामिल होने के लिए तंग गलियों से बाहर निकल-निकलकर लोग आते हैं, जिनमें छात्र, बच्चे, अधेड़ उम्र के पुरुष और बुजुर्ग शामिल हैं. बैठक स्थल के पीछे स्थित इमारत में एक बल्ब लगा हुआ है, उसी के उजाले से बैठक रोशन होती है. गली के बीचों-बीच एक बिजली का खंबा है.
जैसे ही चायवाला युवक चाय बनाना शुरू करता है, लोग अपनी चर्चा शुरू कर देते हैं. बैठक में हालिया किसान आंदोलन को लेकर चर्चा होती है जिसके चलते प्रधानमंत्री ने विवादित कृषि क़ानूनों को वापस ले लिया था.
इलाके की एक युवा मुस्लिम महिला रौनक़ खान कहती हैं कि किसान आंदोलन की सफलता का एक मुख्य कारण यह था कि मुस्लिम महिलाओं ने सीएए-एनआरसी विरोधी आंदोलन में अहिंसा की मिसाल पेश की थी और इस राह पर चलने के लिए दूसरों को भी प्रेरित किया था.
वे कहती हैं, ‘मुस्लिम महिलाओं ने आगे होने वाले सभी आंदोलनों को रास्ता दिखाने का काम किया था और अहिंसा व दृढ़ता का बेजोड़ नमूना पेश किया था. अगर सीएए-एनआरसी विरोधी प्रदर्शन और किसान आंदोलन नहीं हुए होते तो अब तक भाजपा आधा देश बेच चुकी होती.’
वह आगे कहती हैं, ‘फिर भी सरकार ने सीएए वापस नहीं लिया है और मुस्लिम समुदाय को स्पष्ट संदेश दे दिया है कि उनकी मांगें नहीं मानी जाएंगी.’
खान राजनीति में नई-नई आई हैं और छह महीने पहले ही बतौर मुरादाबाद जिलाध्यक्ष राष्ट्रीय लोक दल (रालोद) में शामिल हुई हैं. वह उन लोगों में से एक हैं जिन्होंने सीएए विरोधी प्रदर्शनों में सक्रिय भागीदारी निभाने के बाद राजनीति में कदम रखा है.
पेशे से वकील वक़ी रशीद भी ऐसे ही एक अन्य शख्स हैं. वे भी मुरादाबाद में सीएए विरोधी अहिंसात्मक प्रदर्शनों का नेतृत्व करने के बाद सक्रिय राजनीति में आए हैं. वे अब ऑल इंडिया मजलिस-ए-इत्तेहाद-उल-मुस्लिमीन (एआईएमआईएम) के शहर अध्यक्ष हैं.
रशीद कहते हैं, ‘यूपी की राजनीति में एआईएमआईएम का प्रवेश इन दिनों बैठकों में अक्सर चर्चा का विषय होता है.’
मुरादाबाद में करीब 47 फीसदी मुस्लिम आबादी है और इसे समाजवादी पार्टी (सपा) का गढ़ माना जाता है. जिले के छह में से चार विधायक सपा से हैं. बाकी दो भाजपा से हैं. आगामी चुनावों में राज्य की 100 से अधिक सीटों पर चुनाव लड़ने की एआईएमआईएम प्रमुख असद्दुदीन ओवैसी की घोषणा ने भी चर्चाओं को बल दिया है.
मुस्लिम प्रतिनिधित्व और नेतृत्व
मुरादाबाद में हालिया आयोजित रैलियों के आलोक में कुछ लोगों का कहना है कि ओवैसी वह बात कह रहे हैं जो वर्तमान समय में सर्वाधिक जरूरी है. वे भारतीय राजनीति में मुस्लिमों के अधिक प्रतिनिधित्व और नेतृत्व की मांग कर रहे हैं. बहरहाल, मुरादाबाद में हुई दो रैलियों ने यह स्पष्ट कर दिया है कि एआईएमआईएम जिले में अच्छे वोट मिलने की उम्मीद में है.
आम धारणा यह है कि एआईएमआईएम का विरोध नहीं किया जा रहा है, लेकिन उसे स्थानीय स्तर के नेताओं की जरूरत है क्योंकि ओवैसी खुद यूपी की राजनीति में एक बाहरी व्यक्ति हैं. रशीद ने बाद की बातचीत में द वायर को बताया कि पार्टी काफी पहले से ही प्रतिभाशाली चेहरों की तलाश में जुट गई है.
रशीद बताते हैं कि मुरादाबाद जिले में सपा का आकर्षण कम हो रहा है, क्योंकि लोगों के मन में यह बात मजबूती से बैठ गई है कि पार्टी नेतृत्व वरिष्ठ सपा नेता आजम खान का समर्थन नहीं कर रहा है जो वर्तमान में कई आरोपों में यूपी की एक जेल में बंद हैं.
उनका कहना है, ‘सपा में लोगों का विश्वास कम हो रहा है क्योंकि वे देख सकते हैं कि पार्टी में कोई भी आज़म खान के लिए आवाज नहीं उठा रहा है. सोशल मीडिया के इस दौर में भी उन्हें लड़ने अकेला छोड़ दिया है. सपा को अब मुस्लिम वोटों को अपनी बपौती नहीं समझना चाहिए, जैसा कि वे बीते समय में समझते आए हैं.’
आज़म खान रामपुर जिले से आते हैं. मुरादाबाद इसका पड़ोसी जिला है. यहां भी आज़म खान का खासा प्रभाव है. क्षेत्र में कई लोगों के लिए आज़म खान ही मुस्लिम नेतृत्व का प्रतिनिधित्व करते हैं.
सपा सदस्य के तौर पर स्थानीय स्तर की राजनीति में सक्रिय भागीदारी रखने वाले मुहम्मद सुहैल रामपुर के मोहम्मद अली जौहर विश्वविद्यालय का हवाला देते हुए कहते हैं कि आज़म खान को इसलिए सजा दी जा रही है, क्योंकि उन्होंने मुस्लिमों के बच्चों को एक विश्वविद्यालय दिया और लिखने के लिए उनके हाथों में कलम थमाई. वे अस्पष्ट तौर पर रशीद की बात को दोहराते हुए कहते हैं कि पार्टी में आज़म खान की निष्ठा और ईमानदारी का सम्मान नहीं किया गया है.
रशीद आगे कहते हैं कि मुस्लिमों से हमेशा झुंडों में वोट करने की उम्मीद की जाती है. वे कहते हैं, ‘हमें अब सिर्फ एक वोट बैंक तक सीमित कर दिया गया है और राजनीतिक दल अपने हित साधने के लिए चालाकी से लगातार हमें अपने इशारे पर नचाते हैं.’
गुरुवार को मुरादाबाद में हुई कांग्रेस महासचिव प्रियंका गांधी वाड्रा की रैली का हवाला देते हुए वे कहते हैं कि यह 2024 लोकसभा चुनावों के लिए तैयारी है. बैठक में शामिल एक व्यक्ति कहते हैं कि मुरादाबाद के लोगों के लिए यह बात अत्यधिक महत्व रखती है कि उम्मीदवार कौन है.
मुरादाबाद नगर के पूर्व विधायक संदीप अग्रवाल का जिक्र करते हुए वे कहते हैं, ‘आरएसएस से जुड़े होने के बावजूद मुसलमानों ने उनको जिताने के लिए तन मन लगा दिया था, सिर्फ इसलिए क्योंकि वे हमारे मुद्दे समझते थे.’
अग्रवाल मुरादाबाद से चार बार के विधायक थे. तीन बार वे भाजपा से चुने गए और एक बार सपा से. ऐसा लोगों का कहना है कि वर्तमान विधायक भाजपा के रितेश गुप्ता खास सक्रिय नहीं हैं. उनके खिलाफ सत्ता विरोधी लहर महसूस की जा रही है. इससे नए चेहरों के लिए जगह बनती है क्योंकि जिले में मुस्लिम नेतृत्व की बड़ी मांग और स्वीकार्यता देखी जा रही है.
मुरादाबाद के नवाबपुरा निवासी बुजुर्ग घनीम मियां भी इस बैठक में शामिल थे. मियां उन लोगों में से हैं जिन्होंने अनेक मौकों पर लोगों और राज्य के अधिकारियों के बीच मध्यस्थ की भूमिका निभाई है. वे मुरादाबाद में फेयर ट्रेड प्राइमरी प्रोड्यूसर्स एसोसिएशन नामक एक श्रमिक संगठन भी चलाते हैं.
वे मानते हैं कि सिर्फ मुस्लिम वोट पर ध्यान केंद्रित करना एआईएमआईएम के लिए पर्याप्त नहीं होगा. उनको जवाब देते हुए रशीद कहते हैं, ‘भले ही एआईएमआईएम सरकार बनाने में सक्षम न हो, लेकिन वह मुस्लिमों को प्रतिनिधित्व देने में सक्षम हो सकती है. हमारा प्राथमिक लक्ष्य विधानसभा में मुसलमानों का पर्याप्त प्रतिनिधित्व होना है, जिससे मुस्लिम समुदाय के मुद्दे उठाए जा सकें.’
घर कारखानों में बदल गए हैं और कारीगर मजदूरों में
चालीस वर्षीय मोहम्मद नोमान मंसूरी एक उद्यमी हैं जो पूजा की सामग्री और गिफ्ट आइटम्स जैसी हस्तशिल्प वस्तुओं का कारोबार करते हैं. घरेलू विक्रय के अलावा, वह विदेशों में भी वस्तुएं निर्यात करते हैं. मुरादाबाद, जिसे पीतलनगरी के नाम से भी जाना जाता है, पीतल के हस्तशिल्प के लिए प्रसिद्ध है.
मंसूरी के अधीन सैकड़ों कारीगर काम करते हैं और मंसूरी के मुताबिक दिन-ब-दिन उनका जीवन बद से बदतर होता जा रहा है. कोविड-19 लॉकडाउन और निर्यात पर पड़े उसके प्रभाव के चलते हालात और भी ज्यादा भयावह हो गए हैं.
उन्होंने कहा, ‘यहां तीन लाख से अधिक लोग सीधे तौर पर पीतल के काम से जुड़े हुए हैं. शहर के प्रदूषण विभाग द्वारा ध्वनि प्रदूषण की लगातार शिकायतों और औद्योगिक क्षेत्र की कमी जैसे मुद्दों के कारण पीतल उद्योग लगातार नुकसान में चल रहा है.’
द वायर ने शहर के करूला इलाके में इस्लाम नगर का दौरा किया. करूला कभी अपनी बेहतरीन शिल्पकारी के लिए प्रसिद्ध था, जहां छोटे-छोटे एक कमरों वाले घर अब दोहरी भूमिका निभाते हुए औद्योगिक इकाइयों में तब्दील हो गए हैं.
धातु को पिघलाने के लिए श्रमिकों को अत्यधिक गर्मी में रहना पड़ता है, जो आवासीय क्षेत्र में खतरनाक साबित हो सकता है.
तत्कालीन कपड़ा मंत्री स्मृति ईरानी ने 2016 में मुरादाबाद की अपनी एकदिवसीय यात्रा पर शिल्पकारों और कारीगरों को बेहतर सुविधाएं प्रदान करने का आश्वासन दिया था, लेकिन पीतल उद्योग में श्रमिक अभी भी विकट परिस्थितियों में रह रहे हैं और अपना पेट भरने के लिए संघर्ष कर रहे हैं. उनमें से अनेकों ने कोरोना के बाद पैसों की कमी के चलते अपने बच्चों को स्कूल भेजना तक बंद कर दिया है.
बैठक में शामिल एक कारीगर मोहम्मद शफीक़ अंसारी कहते हैं, ‘औद्योगिक कार्य के लिए हमारे पास अलग जगह नहीं है. वादों के बावजूद भी कोई भी सरकार हमारे लिए कारीगर पार्क का निर्माण नहीं कर पाई है. फिलहाल उद्योग अलग-अलग मोहल्लों में बिखरा हुआ है. ज्यादातर काम घरों के अंदर ही किया जाता है.’
उन्होंने बताया कि बिजली के निजी और व्यावसायिक मीटर अलग-अलग होना जरूरी है, लेकिन गरीबी के कारण कारीगर दो अलग-अलग मीटर वहन करने में असमर्थ हैं. उन्होंने कहा कि वे सरकार से अनुरोध कर रहे हैं कि कारीगरों को एक मीटर से पांच किलोवॉट तक बिजली उपयोग करने की अनुमति मिले.
वक़ी रशीद ने आगे कहा कि उद्योग से जुड़े कुशल श्रमिक और शिल्पकार खुद को कारीगर के बजाय मजदूर जैसा महसूस करने लगे हैं. उन्होंने आगे कहा कि सरकार को उनकी कुशलता को पहचान दिलाने के लिए कोई सर्टिफिकेट जारी करना चाहिए.
वास्तविक मुद्दे: विकास, गड्ढामुक्त सड़कें, शिक्षा और स्वास्थ्य सुविधाएं
स्थानीय सपा नेता मोहम्मद सुहैल कहते हैं कि मुस्लिम समुदाय से जुड़े मुख्य मुद्दे बहुसंख्यक समुदाय के समान ही हैं. वे कहते हैं, ‘सरकार गड्ढामुक्त सड़कों की बात करती है, लेकिन मैं आपको स्थानीय अखबार की एक ऐसी खबर दिखा सकता हूं जिसमें कुछ दिन पहले ही एक आदमी गड्ढे में गिरने के चलते मर गया.’
वे पूछते हैं, ‘अगर मुसलमान का बच्चा डॉक्टर बनना चाहे तो कैसे बने?’ वक़ी रशीद इसमें आगे जोड़ते हुए बताते हैं कि मुरादाबाद या इसके आसपास के जिलों बिजनौर, रामपुर, अमरोहा और संभल में कोई केंद्रीय विश्वविद्यालय नहीं है. न ही कोई केंद्रशासित सरकारी अस्पताल है.
वे कहते हैं, ‘जब लोगों को सर्जरी या अच्छे इलाज की जरूरत होती है तो उन्हें दिल्ली में एम्स का रुख करना पड़ता है. पीतल उद्योग के श्रमिक सामान्यत: टीबी के रोग से ग्रस्त हैं, लेकिन उचित इलाज तक उनकी पहुंच नहीं है.’
पेशे से वकील और सपा सदस्य विनोद कुमार भी इस बैठक में नियमित रूप से शामिल होते हैं. वे कहते हैं, ‘आरएसएस, बजरंग दल और भाजपा द्वारा हिंदू और मुस्लिमों को बांट दिया गया है. हमारे बच्चों को नफरत का पाठ पढ़ाकर गलत रास्ते पर ले जाया जा रहा है.’
वह आगे कहते हैं, ‘योगी आदित्यनाथ द्वारा प्रयोग की जाने वाली भाषा लोकतांत्रिक नहीं है, वह गुंडों की भाषा है.’ बैठक में शामिल एक अन्य व्यक्ति ने बीच में टोकते हुए कहा कि यूपी सरकार द्वारा राष्ट्रीय सुरक्षा क़ानून (रासुका) का जरूरत से अधिक उपयोग किया जा रहा है.
वे पूछते हैं, ‘हाल ही में यूपीटेट परीक्षा का पेपर लीक हुआ था. मुख्यमंत्री ने कहा कि पेपर लीक करने वालों पर रासुका लगाई जाएगी. क्या यह इस क़ानून का सही इस्तेमाल है? अजय मिश्रा के बारे में क्या कहेंगे, लखीमपुर खीरी कांड के लिए उनके या उनके बेटे के खिलाफ रासुका क्यों नहीं लगाई जानी चाहिए? या फिर वह ऐसे क़ानूनों से इसलिए बचे हुए हैं क्योंकि वे भाजपा का हिस्सा हैं?’
तेईस वर्षीय हुज़ैफा रहमान सीएए विरोधी प्रदर्शनों के दौरान रचनात्मक कला कार्यक्रमों के प्रभारी थे. वे बैठक में मौजूद वरिष्ठ जनों से बीच में टोकते हुए बोलने की अनुमति मांगते हैं.
फिर वह कहते हैं, ‘2000 के बाद की पीढ़ी नफरत में यकीन नहीं रखना चाहती है. ज्यादातर युवा सिर्फ गुणवत्तापूर्ण शिक्षा और रोजगार के अवसर चाहते हैं. युवा गलत रास्ते पर जाएं, उससे पहले ही उन पर ध्यान देना चाहिए.’
मुस्लिम महिलाओं की चिंताएं
अब बोलने की बारी रौनक खान की थी. आधार कार्ड विवाद का जिक्र करते हुए और नागरिकों का वह डेटा जो सरकार के पास हो सकता है, इस संबंध में चर्चा करते हुए वह मुस्लिम महिलाओं में बढ़ते डर और असुरक्षा की भावना के बारे में भी बात करती हैं.
वे बताती हैं, ‘राज्य में महिलाओं के साथ होने वाले यौन अपराधों के बेकाबू हालातों के चलते कई महिलाएं अपनी बेटियों की सुरक्षा को लेकर चिंतित हैं. वह अपने बच्चों की शिक्षा को लेकर भी परेशान हैं.’
लेकिन हालिया वर्षों में एक और डर उनके दिलों में बैठ गया है. वह कहती हैं, ‘उन्हें चिंता रहती है कि उनके पतियों और बेटों को दक्षिणपंथी गुंडे निशाना बना सकते हैं, या पुलिस द्वारा भी प्रताड़ित किया जा सकता है. उन्हें चिंता होती है कि एक दिन उन लोगों को अचानक घर से उठाकर किसी झूठे मामले में फंसाया जा सकता है.’
इस डर की जड़ें सीएए विरोधी प्रदर्शनों में हैं. वह कहती हैं, ‘हम सभी ने देखा है कि प्रदर्शनों के बाद पूरे यूपी में किस तरह पुलिस द्वारा मुस्लिम मर्दों को उठाया गया, पीटा गया और प्रताड़ित किया गया था. प्रदर्शन के दौरान भी दहशत थी. मुरादाबाद में लोग विरोध के लिए आगे आने में डरते थे.’
‘हाथ जोड़ दिए थे पुलिस के आगे’
जब सीएए संसद से पारित हुआ था, उस समय को याद करते हुए घनीम मियां बताते हैं, ‘सीएए प्रस्ताव पारित होकर क़ानून बना था तो कई लोग रो दिए थे. जब हमने इसके खिलाफ प्रदर्शन करना शुरू किया था, तभी हमने ऐसी बैठकें शुरू की थीं. अधिकारियों को इसकी जानकारी लीक न हो, इसलिए फोन पर हम एक-दूसरे ‘वलीमे में आ जाओ’ कहकर बुलाते थे.’
प्रदर्शनों के दौरान कई लोगों को नोटिस थमाए गए और पुलिस द्वारा दस हजार से अधिक लोगों के खिलाफ मामले दर्ज किए गए थे. सीएए विरोधी प्रदर्शनों के संबंध में घनीम मियां उनकी और समाज के अन्य वरिष्ठ सदस्यों की स्थानीय पुलिस के साथ हुई एक बातचीत याद करने लगते हैं.
वे कहते हैं, ‘पुलिस के सामने हमने अपने हाथ जोड़ दिए थे और उनसे अनुरोध किया था कि वे ऐसा कोई कदम न उठाएं जिससे लोग भड़क उठें क्योंकि उस समय लोग गुस्से में थे और कुछ भी हो सकता था.’
नतीजतन, 20 दिसंबर को मुरादाबाद में लाखों प्रदर्शनकारियों की मौजूदगी में सीएए विरोधी प्रदर्शन हुआ, जो सीएए के विरोध में हुआ अपने आप में एक सबसे बड़ा शांतिपूर्ण विरोध प्रदर्शन साबित हुआ. क्योंकि राज्य में दूसरे प्रदर्शन या तो प्रतिबंधित कर दिए गए थे या हिंसा का शिकार हो गए थे, यहां तक कि उनमें मौतें होने की भी जानकारी सामने आई थी.
मुरादाबाद में विरोध प्रदर्शन का नेतृत्व करने वाले लोगों में से एक रशीद का कहना है कि वे कोई भी गलती करने से बचने के लिए शाहीन बाग में मौजूद सीएए विरोधी प्रदर्शनों के आयोजकों के साथ लगातार संपर्क में थे.
आगे घनीम मियां कहते हैं, ‘सीएए विरोधी प्रदर्शनों को जिंदा रखने का एकमात्र तरीका अहिंसा के महत्व पर जोर देना था. और हम इसे पूरी तरह से अहिंसक रखने में कामयाब रहे.’
वे फिर एक शे’र सुनाते हुए इस बैठक को खत्म करने का इशारा करते हैं, ‘न मैं गिरा और न तो मेरी उम्मीदों के मीनार गिरे, पर कुछ लोग मुझे गिराने में कई बार गिरे.’
इसी शे’र का इस्तेमाल 2019 में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने राजनीतिक प्रतिद्वंद्वियों के लिए अपने एक संबोधन में किया था. वहीं, यूपी चुनावों के कुछ महीनों पहले घनीम मियां इसे पूरी तरह से अलग संदर्भ में इस्तेमाल करते नज़र आते हैं.
अचानक से चायवाला बीच में टोकते हुए करीब 25 पुरुष और तीन महिलाओं के इस समूह से पूछता है, ‘हां, मगर जीतेगा कौन?’
इस पर बैठक में शामिल एक व्यक्ति ने कहा, ‘हम नहीं जानते, लेकिन भाजपा हारेगी.’ 22 वर्षीय छात्र अबु बकर अंसारी कहते हैं, ‘जो हमें हिस्सेदारी देगा, हम उसको वोट देंगे.’
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