हिंदू राष्ट्र हो या न हो हम एक ग़ुंडा राज में ज़रूर तब्दील हो गए हैं

पिछले सात साल में बार-बार मुसलमानों और ईसाइयों के ख़िलाफ़ हिंसा के इशारे किए गए और उनके लिए सर्वोच्च स्तर से तर्क दिया गया. जब आप जनसंख्या नियंत्रण के नाम पर, अपनी बेटियों की दूसरे धर्म में शादी रोकने के नाम पर, मुसलमान औरतों को उनके मर्दों से बचाने के नाम पर क़ानून बनाते हैं तो उनके ख़िलाफ़ हिंसा के लिए ज़मीन तैयार करते हैं.

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पिछले सात साल में बार-बार मुसलमानों और ईसाइयों के ख़िलाफ़ हिंसा के इशारे किए गए और उनके लिए सर्वोच्च स्तर से तर्क दिया गया. जब आप जनसंख्या नियंत्रण के नाम पर, अपनी बेटियों की दूसरे धर्म में शादी रोकने के नाम पर, मुसलमान औरतों को उनके मर्दों से बचाने के नाम पर क़ानून बनाते हैं तो उनके ख़िलाफ़ हिंसा के लिए ज़मीन तैयार करते हैं.

(प्रतीकात्मक फोटो: पीटीआई)

हरियाणा के मुख्यमंत्री ने गुड़गांव में शुक्रवार को खुले स्थानों पर नमाज़ अदा करने पर कई दक्षिणपंथी संगठनों द्वारा उठाई गईं आपत्तियों को लेकर एक सवाल के जवाब में गुड़गांव में संवाददाताओं से कहा, ‘यहां (गुड़गांव) खुले में नमाज़ पढ़ने की प्रथा बर्दाश्त नहीं की जाएगी.’

कोई दूसरा सभ्य समाज होता तो उसका मुख्यमंत्री यह कहता, ‘यहां नमाज़ को बाधित करने वाली गुंडागर्दी बर्दाश्त नहीं की जाएगी.’

गुड़गांव में पिछले कई हफ़्तों से जुमे की नमाज़ के समय ‘हिंदू’ समूह जो कर रहे हैं, उसे और कुछ नहीं कहा जा सकता. वे आपत्ति नहीं जता रहे हैं, वे नमाज़ के वक्त नमाजियों पर हमले कर रहे हैं, नमाज़ को बाधित करने के लिए भजन-कीर्तन कर रहे हैं.

इसे निश्चय ही आपत्ति नहीं कहा जा सकता, लेकिन मुख्यमंत्री उन्हीं के साथ बैठकर सौहार्दपूर्ण समाधान निकालने की बात कर रहे हैं. इससे मालूम होता है कि हिंदू राष्ट्र हो या न हो हम एक गुंडा राज में ज़रूर तब्दील हो गए हैं.

पिछले शुक्रवार को एक बार फिर गुड़गांव में नमाज़ की तय जगह पर ‘हिंदुओं’ ने ट्रक, गाड़ियां खड़ी कर दीं, नारे लगाते हुए इकट्ठा हुए और कहा कि वहां वे जनरल रावत के लिए श्रद्धांजलि सभा करेंगे.

इसके पहले हरियाणा के रोहतक से खबर मिली कि ‘हिंदुओं’ की एक भीड़ ने गिरिजाघर में घुसने और उस पर हमला करने की कोशिश की.

द्वारका में उसके पहले ईसाइयों के उपासना स्थल पर हमला किया गया. मध्य प्रदेश की विदिशा में एक मिशनरी स्कूल में घुसकर ‘हिंदुओं’ की भीड़ ने बच्चों को पत्थर मारे और स्कूल में गुंडागर्दी की.

कर्नाटक में जगह-जगह से ईसाइयों की प्रार्थना, उनके गिरजाघरों पर हमलों की ख़बरें आम हो गई हैं. छत्तीसगढ़ में ईसाइयों पर हमले तेजी से बढ़े हैं. सड़क पर किसी पादरी को पीटने से लेकर ईसाइयों के घरों में होने वाले जमावड़ों पर या यों ही उनके ऊपर हमले खबर ही नहीं रह गए हैं.

यह तो यूनाइटेड क्रिश्चियन फ़ोरम या एडीएफ जैसे समूह हैं कि हमें ऐसी हिंसा के बारे में मालूम हो पा रहा है.

इस साल अब तक ईसाइयों के खिलाफ हिंसा की तकरीबन 350 घटनाओं की जानकारी है. इनमें से मात्र 40 मामलों में पुलिस रिपोर्ट दर्ज करने को राजी हुई है. इसका मतलब यह है कि आधिकारिक तौर पर इन्हें अपराध माना ही नहीं जाएगा.

उसी तरह हर शुक्रवार को सामूहिक नमाज़ पर जो हमले किए जा रहे हैं, क्या वे गुड़गांव पुलिस के द्वारा अपराध के तौर पर दर्ज  किए जा रहे हैं? अगर किए जाते तो उन पर कार्रवाई भी होती. वही हिंसक भीड़ बार-बार लौटकर नमाज़ पर हमले नहीं करती.

अगर यह हर शुक्रवार को हो रहा है तो इसका मतलब ही है कि गुड़गांव पुलिस की निगाह में हिंसक भीड़ सम्मानित जन समूह है, जिससे समझौता किया जाना चाहिए. वह भीड़ कह रही है कि हम खुले में नमाज़ नहीं होने देंगे.

खबर है कि बैठक में पुलिस अधिकारी खुशामद के स्वर में उनसे कह रहे हैं कि धीरे-धीरे नमाज़ की जगहें घटाई जाएंगी. आप धैर्य रखें. पुलिस के द्वारा जिस स्थल पर नमाज़ की अनुमति दी गई है अगर उस जगह आराम से ट्रक, गाड़ियां खड़ी कर दी जा रही हैं, तो मानना चाहिए कि पुलिस ऐसा होने दे रही है.

वह नहीं कह सकती कि वह रोकना चाहती थी, रोक नहीं पाई. अब हरियाणा के मुख्यमंत्री ने भी कह ही दिया, जो पिछले  हफ्ते तक ये हिंसक समूह कह रहे थे कि खुले में नमाज़ बर्दाश्त नहीं की जाएगी. तो हिंसा का स्रोत मालूम हो गया.

हिंसा कितनी तरह से की जा रही है, इसके ब्यौरे पढ़ने पर शर्म आने लगती है कि हम इसी मुल्क में रह रहे हैं.

एक पादरी को पीटते हुए उसकी पत्नी को जबरदस्ती सिंदूर लगाने से क्या आनंद मिलता है, यह कल्पना करना भी कठिन है. या शयद इतना भी मुश्किल नहीं.

हमें पता है कि हिंसा का एक विशेष उल्लास होता है. आप किसी पर हिंसा कर सकते हैं, किसी को अपमानित कर सकते हैं, इससे ताकत का जो एहसास होता है वह किसी नशे से भी ज़्यादा है. यह नशा भारत में ‘हिंदुओं’ को बांटा जा रहा है.

आपत्ति की जा सकती है कि गुंडों को हिंदू क्यों कहा जा रहा है. ठीक भी है. लेकिन गुंडागर्दी करते समय कहा जाता है कि यह भारत में हिंदू प्रभुत्व के लिए किया जा रहा है. जो गैर हिंदू हैं, उन्हें इन गुंडा समूहों की बात मानकर अपनी हद में रहना होगा, यह कहा जा रहा है.

कुछ धर्म-निरपेक्ष हिंदुओं को अगर छोड़ दें तो व्यापक हिंदू समाज में इसे लेकर वितृष्णा के चिह्न या उसकी सूचना नहीं है. है तो अप्रत्यक्ष समर्थन जो परिवारों और मित्रों के आपसी, घनिष्ठ संवाद-समूहों में कभी चालाकी से व्यक्त होता है और कभी हिंसा और अश्लीलता के साथ.

किसी हिंदू धार्मिक गुरु ने ऐसी हिंसा की निंदा की हो, इसकी खबर नहीं है. शंकराचार्य तो बस शंकराचार्य ही ठहरे! बाकी नव्य धर्म गुरु खुद घृणा प्रचारक हैं.

गुंडों का समर्थन करने के लिए हम तर्क खोजते हैं. जैसे यह कि आखिर मुसलमान खुले में भीड़ लगाकर नमाज़ ही क्यों पढ़ते हैं. लेकिन फिर इसका क्या उत्तर है कि जब एक गुरुद्वारे ने नमाज़ के लिए दरवाज़ा खोला तो वहां भी यह हिंसक भीड़ पहुंच गई और सिखों पर दबाव डालने लगी कि वे नमाज़ को अपनी जगह न दें. उन्हें गुरु तेगबहादुर की याद दिलाकर शर्मिंदा किया जाने लगा कि वे उनके कातिलों के वंशजों के लिए कैसे अपने दरवाजे खोल सकते हैं.

इसका अर्थ साफ़ है. मसला खुली जगह के दुरुपयोग का नहीं है. समस्या मुसलमानों की नमाज़ से है. या मुसलमानों से ही है. इससे भी कि उन्हें इस भारत में मित्र क्यों मिल रहे हैं. क्या ऐतराज खुली जगह के दुरुपयोग से है? तो फिर उस खुली जगह पर हवन, कीर्तन क्यों? क्यों उस जगह पर लोग अपने ट्रक और गाड़ियां लगा रहे हैं? यह कैसे जायज़ है?

क्या यह तर्क है कि यह हम इसलिए कर रहे हैं कि यह करके हम पहले मुसलमानों के लिए इन जगहों पर आना असंभव कर दें फिर हम भी हट जाएंगे? खुली जगह का इस्तेमाल कैसे हो, क्या अब यह ‘हिंदू’ समूह तय करेंगे?

मुसलमानों या ईसाइयों पर हिंसा के लिए हम तर्क खोजते हैं. जैसे यह कि कुरआन में हिंसा का प्रचार है. लेकिन प्राय: हिंदू देवी-देवता हथियारबंद है  वे ‘असुरों’ के स्थान पर कब्जा करते हैं, उन्हें जंगलों से बेदखल करते हैं, उनकी हत्या करते हैं और गीता हो अन्य ग्रंथ, उनमें हिंसा और मिथ्याचार का समर्थन है, यह कहकर क्या हिंदुओं के खिलाफ हिंसा को जायज़ ठहराया जा सकता है?

यह मूर्खता है या बदमाशी. हम जानते हैं कि सारे धार्मिक ग्रंथ जटिल होते हैं और उनकी व्याख्या अनेक प्रकार से की जा सकती है. कुछ लोग कुरआन या गीता का इस्तेमाल अपनी हिंसा को उचित ठहराने के लिए कर सकते हैं.

जैसे एक अल्पसंख्यक विरोधी संगठन के मुखपत्र ने अपना नाम ही कृष्ण के पाञ्चजन्य पर रख लिया है. उस महाशंख का घोष किसके विरुद्ध युद्ध के लिए? यह नाम ही क्यों?

तो क्या हम हिंदुओं से कहें कि पहले वे गीता या उस राम कथा का सम्पादन करें जिसमें शंबूक की राम ने हत्या की थी, तभी कृष्ण या राम का नाम वे ले सकते हैं, वरना उन पर हमला किया जाएगा, क्योंकि वे हिंसा के समर्थक ग्रंथों के अनुयायी हैं? यह सब कुछ हिंदुओं को कुतर्क लगेगा, लेकिन कुरआन के बारे ऐसा ही कहना उन्हें अटपटा नहीं लगता.

फिर हम तर्क बदल लेते हैं और कहने लगते हैं कि मुसलमान रूढ़िवादी होते हैं, स्त्री विरोधी होते हैं, अशिक्षित होते हैं; आदि-आदि. मानो अगर यह हो भी तो इससे उनके खिलाफ हिंसा का अधिकार अधिक ‘प्रगतिशील’ हिंदुओं को मिल जाता है!

क्या वे उन्हें सुधारने के लिए उन पर हिंसा कर रहे हैं? क्या हम मुसलमान औरतों के हक़ हासिल करने के लिए मुसलमान मर्द पर हमला करते हैं? जब-जब मुसलमानों पर हिंसा की बात होती है, हम क्यों ये सारे तर्क खोज कर निकाल लाते हैं, क्या इस पर हम विचार करेंगे?

उसी तरह जब आंकड़ों से साबित हो जाता है कि ईसाई मत में धर्मांतरण का षड्यंत्र या अभियान नहीं चल रहा, कि भारत की जनसंख्या में ईसाइयों की संख्या बरसों से लगभग स्थिर है या जब यह मालूम होता है कि मुसलमान बच्चों की जन्मदर घटती जा रही है तो हम आंकड़ों पर यकीन नहीं करना चाहते.

फिर हम उनकी चंगाई सभाओं में प्रभु के चमत्कार का हवाला देकर कहना चाहते हैं कि इन्हें ठीक करना ज़रूरी है. ढेर सारे बाबाओं के सत्संग में जो अनर्गल प्रलाप होता है, उसके कारण हम इन अनुयायियों पर हमले को जायज़ ठहराएंगे?

हम भले ही हमलों में खुद शरीक न हों, हम खुद को यकीन दिलाना चाहते हैं कि इन हमलों के पीछे कुछ वैध कारण हैं. और वे खोज कर हम निकाल लाते हैं. हम जो हिंसा खुद कभी नहीं करते. हिंसा की एक साझा ज़मीन तैयार होती है. इस पर हिंसा करने वाले और उसका तर्क खोजने वाले एक साथ खड़े होते हैं. तो जो हिंसा में सक्रिय नहीं हैं, क्या उससे पल्ला झाड़ सकते हैं?

लेकिन साथ ही यह भी कहा जाना चाहिए कि इन पूर्वाग्रहों या भ्रामक धारणाओं के जोर से हम हिंसा करने नहीं निकल पड़ते. मन में जमे पूर्वाग्रह, गलतफमियों के बावजूद हम साथ रहते हैं, एक दूसरे से कारोबार करते हैं, एक दूसरे के पड़ोस में भी रहते हैं.

हिंसा संगठित की जाती है, उसका आयोजन होता है. प्राय: हर हिंसा स्थानीय हिंसा लगती है, लेकिन इसकी प्रेरणा का स्रोत एक सत्ता है. वहां से इशारे किए जाते हैं. जैसे कर्नाटक में अभी जो ईसाई विरोधी हिंसा का उबाल आ गया है तो ऐसा नहीं कि हिंदू जनता अपनी धारणाओं के कारण ईसाइयों को खोज-खोज कर उन पर हमले करने लगी. जब कर्नाटक की भाजपा सरकार ने धर्मांतरण विरोधी कानून, चर्च सर्वेक्षण आदि की चर्चा शुरू की, ईसाइयों पर हमले बढ़ गए.

जाहिर है कि कर्नाटक सरकार की इस घोषणा और सड़क पर हिंसा के बीच रिश्ता है. यही बात मुसलमानों पर हमलों के बारे में कही जा सकती है. मुसलमानों को लेकर हिंदुओं के मन में कई पूर्वाग्रह हैं. और ये जमाने से हैं. लेकिन 2014 के बाद से उन पर हमलों और उनके खिलाफ घृणा प्रचार में जो बाढ़ आई है, वह पहले वैसी क्यों नहीं थी? क्योंकि एक सक्रिय मुसलमान विरोधी राजनीतिक दल पूर्ण बहुमत के साथ सत्ता में आया.

जब सत्ता के शीर्ष पर मुसलमान विरोधी हिंसा का प्रचार करने वाले पहुंच गए और उनके हाथ  में राज्य की वे सस्थाएं आ गईं जो हिंसा को काबू करती हैं, तब  मुसलमान विरोधी पूर्वाग्रहों का इस्तेमाल करके उनके विरुद्ध हिंसा करना आसान हो गया.

यह इत्मीनान हुआ कि इस हिंसा का रोका नहीं जाएगा. जिसने इस हिंसा को रोकने को कोशिश की उसका हश्र क्या होगा  उत्तर प्रदेश के पुलिस अधिकारी सुबोध कुमार सिंह की हत्या से इसका पता चल गया. जिसने इस घृणा प्रचार को नियंत्रित करने का प्रयास किया उसे क्या झेलना होगा, यह केंद्रीय सरकार के अधिकारी आशीष जोशी के निलंबन से मालूम हो  गया.

पिछले 7 साल में बार-बार मुसलमानों और ईसाइयों के खिलाफ हिंसा के इशारे किए गए और उनके लिए सर्वोच्च स्तर से तर्क दिया गया. जब आप जनसंख्या नियंत्रण के नाम पर, अपनी बेटियों की दूसरे धर्म में शादी रोकने के नाम पर, मुसलमान औरतों को उनके मर्दों से बचाने के नाम पर कानून बनाते हैं तो उनके खिलाफ हिंसा के लिए ज़मीन तैयार करते हैं.

7 साल में हर राज्य में गांवों-कस्बों में अचानक कैसे हिंसक संगठन कैसे दिखलाई पड़ने लगे? क्यों हर जगह मुसलमानों और ईसाइयों पर हमले होने लगे? क्या सत्ताधारी राजनीति और इस हिंसा के बीच सीधे रिश्ता नहीं?

सारा राजकीय संस्थान-तंत्र, यहां तक कि सेना का बड़ा हिस्सा भी इस हिंसक विचारधारा के समर्थन में बार-बार खड़ा दिखाई पड़ा. पहले से मुसलमान और ईसाई विरोधी हिंसा की विचारधारा वाला राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का विशाल तंत्र और यह राजकीय सत्ता- इनके घातक मेल ने इस हिंसा को ईंधन दिया है.

जब तक सत्ता से इस विचारधारा को बेखल नहीं किया जाएगा, इस हिंसा में कमी आने की संभावना नहीं है. इसलिए हम यह न कहें कि लोगों के मन से हिंसा निकालनी है. वह असंभव है.

उस हिंसा को व्यक्त करने पर दंडित होने का भय ही उसे मन में ही रखेगा. मन से निकलकर सड़क पर आते ही उसकी कीमत चुकानी होगी, यह सबको मालूम होना चाहिए. इस वजह से हिंसा से रोका जाना ही अभी आवश्यक है.

मैं अपने खिलाफ आपके मन के पूर्वाग्रह को दूर नहीं कर सकता लेकिन आपको उसके बहाने अपने ऊपर हिंसा का अधिकार नहीं दे सकता. इसके लिए मेरे साथ राज्य का होना ज़रूरी है. वह राज्य अभी भारत के मुसलमानों और ईसाइयों के खिलाफ है.

(लेखक दिल्ली विश्वविद्यालय में पढ़ाते हैं.)