भाजपा उम्मीद कर रही है कि अयोध्या में बहुप्रतीक्षित मंदिर निर्माण आरंभ करने के बाद अब काशी विश्वनाथ को अभूतपूर्व भव्य स्वरूप दे देने से उन्होंने आम हिंदू वोटर के दिल को छू लेने में सफलता प्राप्त कर ली है.
काशी विश्वनाथ धाम के प्रथम चरण के उद्घाटन पर नारा दिया गया ‘दिव्य काशी-भव्य काशी.’ काशी की प्राचीन ‘धार्मिक दिव्यता’ से सभी परिचित हैं. सो उसमें कोई नई बात नहीं.
नई चीज़ है भव्यता. भाजपा उम्मीद कर रही है कि अयोध्या में बहुप्रतीक्षित मंदिर निर्माण आरंभ करने के बाद अब काशी विश्वनाथ को अभूतपूर्व भव्य स्वरूप दे देने से उन्होंने आम हिंदू वोटर के हृदय को छू लेने में सफलता प्राप्त कर ली है.
आगामी यूपी विधानसभा चुनाव के परिप्रेक्ष्य में सितंबर के अंत में किए गए पहले अध्ययन के बाद यह मेरी टीम के द्वारा किया गया दूसरा अध्ययन है. हमने पाया कि काशी में हुए आयोजन से आम हिंदू प्रसन्न ही नहीं वरन गदगद है. आगे हम इसी ख़ुशी और चुनाव पर उसके संभावित परिणाम का विश्लेषण करेंगे.
विकास वो है जिसे जनता विकास समझे
एक वरिष्ठ पत्रकार ने काशी के आयोजन पर गहरा दुख प्रकट करते हुए कहा कि मोदी जी ने विकास और गवर्नेंस के बजाय मंदिर पर इतना खर्च कर दिया.
आपको काशी विश्वनाथ धाम विकास या गवर्नेंस नहीं लगता, ठीक है. अगर विकास से आपका तात्पर्य अस्पताल आदि बनवाने से है तो हमें भी नहीं लगता. लेकिन अब जनता को अगर यह विकास लगता है और वो उस आधार पर वोट देती है तो हमारे दुखी होने से जनता की विचारधारा तो प्रभावित नहीं होती.
हमें इस यथार्थ को स्वीकारना होगा कि चुनाव में सच वो नहीं होता जो वास्तव में सच है; सच वो होता है जो बहुसंख्य जनता को सच प्रतीत होता है या जिसे बहुसंख्य जनता सच मानती है.
चुनावी विश्लेषण में यह बात ध्यान में रखनी चाहिए कि पिछले सात दशकों से वोटर यथार्थ (रियलिटी) और तथ्यों (फैक्ट्स) पर वोट न देकर अपने अवचेतन में बने प्रभाव (इम्प्रेशंस), धारणाओं (नोशंस) और आभास (अपीयरेंस) या प्रतीति पर वोट देते आए हैं.
ऐसा न होता तो नोटबंदी और कमरतोड़ महंगाई के हाहाकार के बावजूद जनता 2019 में मोदी को दोबारा मौक़ा नहीं देती. सर्जिकल स्ट्राइक और पुलवामा ने भाजपा की देश के सामरिक हितों के प्रति प्रतिबद्धता के इम्प्रेशन की ऐसी आंधी चला दी जिसमें सारे पुराने शिकवे उड़ गए.
एक बात अच्छी तरह से लोगों के दिमाग़ में बैठ गई है कि काशी विश्वनाथ धाम से वाराणसी के धार्मिक पर्यटन को खूब बढ़ावा मिलेगा और वह भी विकास ही है. पर्यटन से लाखों लोगों की आमदनी बढ़ने की आशा में कोई भी ये सुनने को तैयार नहीं है कि इस तामझाम में व्यवस्था प्रधान हो गई है और आस्था गौण.
काशी विश्वनाथ धाम की भव्यता का असली चुनावी और सामाजिक रहस्य
काशी विश्वनाथ धाम की भव्यता में एक रहस्य है जिसे पत्रकारों ने समझा ही नहीं है. पांच लाख वर्ग फुट में 800 करोड़ के खर्च से बना यह धाम इतना भव्य है कि इसके बगल में स्थित ज्ञानवापी मस्जिद जो कभी विश्वनाथ मंदिर को चुनौती देती सी खड़ी हुआ करती थी, आज अपनी बदहाली पर रोती प्रतीत होती है.
यह विसंगति जहां एक तरफ हिंदुओं को ‘विजय गर्व’ की अनुभूति करा रही है, वहीं मुसलमानों को ‘दूसरे दर्जे के नागरिक’ जैसा होने का अपमान बोध करा रही है.
हमारी टीम ने भारी संख्या में लोगों से बात की और सबका समवेत स्वर में मानना है कि मोदी ने हिंदुओं का सदियों से खोया सम्मान वापस लौटा दिया है और बाबा विश्वनाथ के पुनरुद्धार में मोदी-योगी ने वो कर दिखाया है जो कभी अहिल्याबाई होलकर, रणजीत सिंह और नेपाल नरेश मिलकर भी नहीं कर पाए थे.
इस ‘विजय गर्व’ की अनुभूति को और पुष्ट करने के लिए ही भाषण में औरंगजेब द्वारा मंदिर तोड़कर उस पर मस्जिद बनाने का ज़िक्र किया गया था. आयोजन के अवसर पर एक पुस्तिका भी वितरित की गई, ‘श्री काशी विश्वनाथ धाम’.
इसमें मुस्लिम शासकों द्वारा ग्यारहवीं शताब्दी (कुतबुद्दीन ऐबक) से लेकर पंद्रहवीं शताब्दी (महमूद शाह शर्क) और सत्रहवीं शताब्दी (औरंगजेब) में मंदिर के तोड़े जाने का ज़िक्र है और यह भी कि औरंगजेब ने मंदिर के गर्भगृह को तोड़कर या उसके ऊपर ही ज्ञानवापी मस्जिद बनवा दी.
इसमें यह भी बताया गया है कि शाहजहां ने भी इसे तोड़ने का प्रयास किया था जो जनता के प्रबल विरोध के कारण असफल हो गया, लेकिन 63 अन्य मंदिर उसने तोड़ डाले.
हमें अपने अध्ययन में पूरे उत्तर प्रदेश में कहीं ऐसा कोई व्यक्ति नहीं मिला जो ये न कहता हो कि ज्ञानवापी मस्जिद हिंदुओं के ऐतिहासिक अपमान का प्रतीक नहीं है. वे मानते हैं कि उस अपमान का प्रतिशोध अगर उसे बाबरी मस्जिद की तरह ध्वस्त करके नहीं तो उसे तुच्छ प्रतीत कराके ले लिया गया है.
एक वरिष्ठ पत्रकार ने कहा कि एक भारत वो है जो महंगाई-बेरोज़गारी-निजीकरण की मार झेलकर, सड़कों पर सरकार के ख़िलाफ़ प्रदर्शन कर रहा है; दूसरा भारत वो है जिसको ये लोग अयोध्या के बाद अब काशी-मथुरा का सपना दिखा रहे हैं.
उन्होंने चुनाव को ‘विकास की मांग बनाम धार्मिक उन्माद’ के रूप में देखना चाहा है. दुर्भाग्य से उन्हें यह नहीं पता कि आईटी सेल ने इसका उत्तर दे रखा है.
जनता की आय न बढ़ पाने पर प्रचार है कि पैसा तो फिर भी आ जाएगा, धर्म चला गया तो कभी नहीं आएगा. ‘हिंदू खतरे में हैं’ यह राग तो निरंतर चल ही रहा है पर काशी-मथुरा को यूं पेश किया जा रहा है जैसे वो हिंदू धर्म को बचाने का आखिरी मौक़ा हो.
सांप्रदायिकता की राजनीति बुरी चीज़ है लेकिन दुर्भाग्य से देश में उसी का युग चल रहा है.
योगी शासन की आकर्षक पैकेजिंग
ऐसा नहीं है कि चुनाव में रोज़गार कोई मुद्दा ही नहीं है. लेकिन कुछ लोगों के ये कह देने मात्र से कि क्या मंदिर से हमारा पेट भर रहा है, पूजा तो हम घर पर भी कर लेंगे, उन लाखों लोगों पर कोई असर नहीं पड़ रहा जिन्हें हिंदू के सम्मान और सम्मान के प्रतीकों यानी मंदिरों के नाम पर वोट देना है. वे यह भी कहते हैं कि मुसलमान भी तो मस्जिद मांगते हैं.
दो करोड़ नौकरियां और पकौड़े बेशक जुमले थे, लेकिन ये सभी मानते हैं कि बेरोज़गारी पहले भी थी.
यूपी में जब भी कोई सनसनीखेज वारदात होती है तो विपक्ष कानून व्यवस्था की स्थिति पर विलाप करने लग जाता है. लेकिन जनता की निगाह में ये कोई ठोस मुद्दा नहीं है.
जनता की आम धारणा ये है कि सपा शासन काल में गुंडों और माफियाओं का बोलबाला था जो अब जेलों में बंद हैं.
नेशनल क्राइम रिकॉर्ड्स ब्यूरो के अनुसार, उत्तर प्रदेश में 2015 यानी सपा शासन के दौरान हत्याओं की क्राइम रेट (प्रति लाख आबादी पर अपराधों की संख्या) 2.2 थी जबकि 2020 में यह 1.7 रह गई. इन वर्षों में हत्याओं की राष्ट्रीय औसत क्राइम रेट 2.6 और 2.2 थी. बलात्कारों के मामले में भी 2020 में राष्ट्रीय औसत क्राइम रेट 4.2 है जबकि यूपी में यह 2.5 है.
योगी ने अभियुक्तों के घरों पर बुलडोज़र चलवा देने की जो परंपरा आरंभ की है, भले ही वो क़ानूनी दृष्टिकोण से उचित न हो, पर जनता उससे प्रसन्न है.
सपा की विडंबना
सोशल मीडिया पर तथाकथित उदारवादी लोग ये कहते पाए जा रहे हैं कि उत्तर प्रदेश चुनाव में भाजपा हार रही है और अखिलेश जीत रहे हैं.
देश में ‘प्रबुद्ध लोकतंत्र’ है, इस मिथक के टूटने का दर्द बुद्धिजीवियों से बर्दाश्त नहीं होता. देश के इस कटु यथार्थ को स्वीकार कर पाने के नैतिक साहस का अभाव होने के कारण वे इंटरव्यू भी लेते हैं तो उन्हीं लोगों से बात करते हैं जो वह बोलते हैं जो वो सुनना चाहते हैं.
एक पत्रकार महोदय कार से घूम-घूमकर पूरे प्रदेश को रौंदे हुए हैं. लेकिन एक बार भी इन्होने न तो भाजपा की कोई रैली कवर की है न ही किसी भाजपा समर्थक से बात की है. लिहाजा सपा की रैलियों में उन्हें अखिलेश की जय-जयकार ही सुनाई पड़ती है.
किसान आंदोलन लगभग 750 मौतों की कटु स्मृति भले छोड़ गया हो लेकिन वह इतिहास की वस्तु हो गया है. किसान कृषि कानूनों के वापस लेने को अपनी विजय मानते रहें, सच ये है कि ये एक ज़बरदस्त राजनीतिक चाल थी और इसे चल कर मोदी ने विपक्ष को मुद्दा विहीन कर दिया.
इसके अलावा योगी ने लखीमपुर कांड के बाद चौबीस घंटों के अंदर-अंदर राकेश टिकैत को समझौता करने पर बाध्य कर दिया जिससे किसानों के बीच टिकैत की विश्वसनीयता को भारी चोट पहुंची. फिर तमाम टालमटोल के बावजूद मंत्री-पुत्र गिरफ्तार भी कर लिए गए.
कुल मिलाकर जो लोग किसान आंदोलन की गाड़ी पर सवार होकर लखनऊ पहुंचने का स्वप्न देख रहे थे, उनके सपने टूट गए हैं. जो लोग कह रहे हैं कि ये फैसला हार के डर से लिया गया, नहीं जानते कि राजनीति में सिर्फ जीत मायने रखती है, जीत कैसे हासिल की गई ये नहीं-चाहे वो खुशामद करके ली गई हो या यूएपीए जैसे कानून से डराकर.
सपा के पास घूम-फिरकर अपने सीमित जातिगत जनाधार के ऊपर वोट मांगने के सिवा कोई विकल्प नहीं है. लेकिन धर्म हमेशा ही जाति पर भारी पड़ता आया है.
सपा एक जाल में फंस-सी गई है. भाजपा के विरुद्ध वे जो कुछ भी करेंगे उससे जातिगत समीकरणों के बाहर जाकर हिंदू वोटों का ध्रुवीकरण होगा और उसका लाभ भाजपा को मिलेगा.
वरिष्ठ पत्रकार वीर सांघवी ने एकदम सही पकड़ा कि विश्वनाथ धाम का दांव चलकर मोदी ने विपक्ष को अपने बनाए नियमों पर खेलने को बाध्य कर दिया है.
विपक्ष हिंदू की बात करे तो भाजपा से बेहतर नहीं कर सकता; और ऐसा कुछ भी करे जो कहीं से हिंदू-विरोधी दिखाया जा सके तो उनका नुकसान ही नुकसान है.
ओवैसी 100 सीटों पर लड़ने की बात कर रहे हैं. जो स्वयं अपने गढ़ हैदराबाद म्युनिसिपल चुनाव में अपनी इज्ज़त बचा नहीं पाए, वे यूपी में भाजपा को चुनौती दे पाएंगे, ऐसा मानने का कोई कारण नहीं है. कुल मिलाकर वे भाजपा के खिलाफ पड़ने वाले वोटों को कटवाने का काम ही कर पाएंगे.
हमने यह भी पाया कि चूंकि मायावती लगभग रेस के बाहर हैं इसलिए बसपा के जातिगत जनाधार के वोट भाजपा की झोली में जाने को बाध्य हैं.
पिछड़े और दलित दोनों पर शासन की विभिन्न कल्याणकारी योजनाओं का अच्छा असर पड़ पाया गया है.
सांप्रदायिक ध्रुवीकरण अब जीवन का यथार्थ है, स्वीकार करना होगा
भाजपा द्वारा एक बार पुनः अपना सिद्ध हिंदुत्व कार्ड चलने पर उदारवादियों द्वारा नैतिक आधार पर कितनी भी आपत्ति क्यों न की जाए, हमने वोटरों को कोई आपत्ति करते नहीं पाया.
शिक्षाविद सुहास पल्शिकर ने अफ़सोस प्रकट किया कि विश्वनाथ धाम का यह भव्य समारोह एक हिंदू राष्ट्र के लिए आम राय बनाने की दिशा में एक ‘सोशल कॉन्ट्रैक्ट’ है.
संभव है. लेकिन सांप्रदायिक ध्रुवीकरण जीवन का यथार्थ बन चुका है और हमने कहीं भी जनता में किसी को भी उसे घृणास्पद समझता नहीं पाया.
जैसा कि वीर सांघवी ने भी नोट किया, प्राचीन हिंदू परंपरा और महानता की दुहाई देकर एक सीमा तक ही वोट लिए जा सकते हैं लेकिन सांप्रदायिक नफ़रत फैलाकर और मुसलमानों को धार्मिक उन्मादी के रूप में प्रस्तुत करके असीमित मात्रा में वोट बटोरे जा सकते हैं.
ज़्यादातर हिंदू शासन के हर उस कार्य की प्रशंसा करते पाए गए हैं जिससे मुसलमानों के आत्मसम्मान को ठेस पहुंचती हो या उन्हें क़ानूनी कुचक्र में फंस कर परेशान होना पड़ता हो, जैसे गुड़गांव में नमाज़ के मसले पर.
राजनीति वो बाज़ार है जहां बिकाऊ सामान की अच्छाई का अपने आप में विशेष महत्व नहीं है, सिर्फ सेल्समैन अच्छा होना चाहिए. और देश में इस वक़्त मोदी जी से अच्छा सेल्समैन कोई नहीं है. कुल मिलाकर यूपी चुनाव की स्थिति अभी भी योगी जी के पक्ष में है.
(लेखक रिटायर्ड आईपीएस अधिकारी हैं, जो केरल के पुलिस महानिदेशक और बीएसएफ व सीआरपीएफ में अतिरिक्त महानिदेशक रहे हैं.)