जिस सुरक्षा को लेकर बीएचयू में पूरा बवाल हुआ, उसकी स्थिति अब भी वैसी ही है. जिस जगह पर छात्रा को छेड़ा गया था, वहां अब भी रोशनी का इंतज़ाम नहीं हुआ है.
इस बात को सबसे प्रमुखता से रखा जाना चाहिए कि काशी हिंदू विश्वविद्यालय में शिक्षा भले ही कितनी आधुनिक हो, उसके प्रसार का तरीका उतना ही पुराना और रूढ़िवादी किस्म का है. 21 सितंबर की रात जो घटना हुई, उसे समझने की कोशिश में बहुत सारी बातें सामने आ जा रही हैं.
लाइब्रेरी से हॉस्टल लौट रही एक लड़की जब बीएचयू में मौजूद भारत कला भवन के पास से गुज़र रही थी, तो तीन लड़कों ने उस लड़की के कपड़ों में हाथ डाल दिया. लड़की जब चिल्लायी तो लड़कों ने पूछा, “रेप करवाओगी, या अपने हॉस्टल जाओगी?”
पीड़ित लड़की जब प्रॉक्टर के पास शिकायत करने पहुंची तो उससे पूछा गया कि वह हॉस्टल के बाहर कर क्या रही थी? अगले दिन से शुरू हो रहे नरेंद्र मोदी के दौरे के मद्देनज़र लड़की को यह भी हिदायत दी गई कि मोदी का दौरा होने वाला है, थोड़ा शांत रहो.
जब लड़की बदहवास होकर हॉस्टल पहुंचकर वॉर्डन से मिली तो वॉर्डन ने कह दिया कि कपड़े में हाथ ही तो डाला है, “ऐसा क्या हो गया?” लड़की समझ नहीं सकी कुछ भी कि इसका जवाब कैसे दिया जाए. लेकिन बात धीरे-धीरे दूसरी लड़कियों तक पहुंच गई तो 21 सितंबर की रात होते-होते काशी हिंदू विश्वविद्यालय में इस सदी का अब तक का सबसे बड़ा गैर-राजनीतिक छात्र आंदोलन जन्म ले चुका था.
अगले दिन गेट खुलते ही लड़कियां गेट पर आ गईं और अगले 42 घंटों तक उन्होंने केवल सुरक्षा की मांग उठाई. सुरक्षा की मांगों को थोड़ा खोलकर देखने पर पता चलता है कि लड़कियां स्ट्रीट लाईट, महिला छात्रावासों के बाहर सीसीटीवी कैमरे और चौबीस घंटों तक गार्ड की तैनाती की बात कर रही थीं.
चूंकि आंदोलन की शुरुआत से ही मामले को भटकाने के प्रयास भी शुरु हो चुके थे तो लड़कियों ने कहा कि इन मांगों को कुलपति से मिलकर सामने रखेंगे ताकि बातचीत सभी के सामने आ सके.
आंदोलनरत लड़कियां कुलपति से विश्वविद्यालय के सिंहद्वार पर ही मिलना चाह रही थीं. वे ऐसा क्यों करना चाह रही थीं, इसका पता 23 सितंबर की शाम को चला. इस दिन शाम 4 बजे लड़कियों को सूचना मिली कि कुलपति प्रो जीसी त्रिपाठी लड़कियों से मिलेंगे लेकिन वे सिर्फ महिला महाविद्यालय के भीतर ही मिलेंगे, मुख्य द्वार पर नहीं. लड़कियों को यह परिस्थिति भी ठीक लगी.
इसके लिए लड़कियां तैयार हो गईं और हम कुछ मीडियाकर्मियों को लेकर वे महिला महाविद्यालय पहुंचीं. लेकिन महिला महाविद्यालय पहुंचते ही सुरक्षाकर्मियों ने साफ़ कर दिया कि महिला महाविद्यालय के अंदर मीडियाकर्मी नहीं जाएंगे. छात्रा कृति यादव ने बताया, ‘इसीलिए हम लोग लगातार कुलपति से सिंहद्वार पर मिलने की बात कर रहे थे. वो मीडिया के सामने बात नहीं करना चाहते हैं, और अकेले में हम लोगों से जो बोलते हैं, उससे मुकर जाते हैं.’
दरअसल कुलपति गिरीशचंद्र त्रिपाठी पर लगे आरोपों की फेहरिस्त में से यह भी एक है कि कुलपति मीडिया का सामना करने से बचना चाहते हैं. लड़कियों पर लाठीचार्ज के दो दिनों बाद कुलपति के दफ्तर में दरबार लग गया था. कई मीडिया चैनल पहुंच गए थे और लगभग किसी को भी इंटरव्यू से रोका नहीं जा रहा था. ऐसे में बनारस के मीडिया सर्किल को कुलपति का यह व्यवहार थोड़ा चमत्कारी किस्म का लगने लगा.
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लड़कियों की बात पर वापस आएं तो पता चलता है कि कुलपति अकेले में जब लड़कियों से संवाद करते हैं, तो उनका रवैया चिढ़ाने और तंज भरा होता है. एक छात्रा बताती है, ‘वे हम सभी लड़कियों को “ऐ लड़की – ऐ लड़की” के संबोधन से बुलाते हैं. फिर बात-बात में हमें ताने मारते रहते हैं, जिनसे बाद में मुकर भी जाते हैं.’
बहरहाल, लड़कियों और कुलपति की मुलाक़ात दो बार किए गए वादों के बावजूद नहीं हुई. थोड़ी देर होते ही कुलपति द्वारा दो बार की गयी वादाख़िलाफ़ी समझ में आने लगी. जब लड़कियों को बताया गया कि कुलपति मिलना चाह रहे हैं, तो कई लड़कियां मुख्यद्वार से उठ गयीं. ऐसा दो बार हुआ.
दरअसल, जीसी त्रिपाठी करना यह चाह रहे थे कि लड़कियां धरनास्थल छोड़कर हॉस्टलों में लौट जाएं, जिसके बाद बाहर पहले से मौजूद सीआरपीएफ और विश्वविद्यालय की सुरक्षाकर्मियों द्वारा उन्हें हॉस्टल के अंदर ही रोक दिया जाए. लड़कियों को यह खेल समझ में आ गया और लड़कियां त्रिवेणी छात्रावास संकुल का गेट तोड़कर बाहर आ गयीं.
अब यहीं से वह खेल शुरू होता है, जब जिला प्रशासन और विश्वविद्यालय प्रशासन के बीच खींचतान शुरू होती है. त्रिवेणी छात्रावास से वापस धरना देने आ रहे छात्राओं और छात्रों को रास्ते में कुलपति वीसी लॉज के भीतर जाते मिले. लड़कियों ने तुरंत उनकी घेराबंदी का प्रयास किया, लेकिन वहां पहले से कुछ संख्या में मौजूद विश्वविद्यालय के सुरक्षाकर्मियों ने इन छात्राओं और छात्रों पर लाठीचार्ज कर दिया.
बमुश्किल रात के दस बजे हुई इस घटना ने एक बड़े चेन रिएक्शन को जन्म दे दिया. लड़के और लड़कियां अपने-अपने हॉस्टलों की ओर भागे, लेकिन अब तक पुलिस भी कैंपस के अंदर दाखिल हो चुकी थी. पुलिस ने सुरक्षाकर्मियों के साथ छात्रों को बिड़ला छात्रावास तक दौड़ाया, जहां छात्रों और पुलिस के बीच लंबे समय तक गुरिल्ला युद्ध जैसी स्थिति बनी रही.
यहां पर विश्वविद्यालय प्रशासन की ओर से दिए गए कई आधिकारिक बयानों में से एक बयान आरोप की तरह सामने आ रहा है कि सुरक्षाकर्मियों और छात्रों के बीच जब टकराव हो रहा था तो छात्रों की ओर से देसी पेट्रोल बम चलाए गए. बम की पुष्टि अभी तक होना बाकी है, लेकिन पत्थर चलाए गए. गाड़ियों में आग भी लगायी गयी. पुलिस और पीएसी पर आरोप हैं कि इन लोगों ने हॉस्टल के कमरों में घुस-घुसकर लड़कों को पीटा.
जब तक यह घटना कैंपस के अंदर घट रही थी, पीएसी की कुछ और टुकड़ियां गेट पर जमने लगी थीं. वेस्ट, हेलमेट, आंसू गैस और रबर बुलेट से लैस ये टीमें तब तक रुकी रहीं, जब तक मौके पर बनारस के एसएसपी और जिलाधिकारी नहीं पहुंच गए. प्रत्यक्षदर्शियों के मुताबिक़, जिलाधिकारी और एसएसपी साथ में पीएसी की टुकड़ियों को लेकर गए और गेट पर लाठीचार्ज शुरू किया.
महिला महाविद्यालय में पढ़ाई कर रही साक्षी सिंह कहती हैं, ‘जब पुलिस कैंपस के अंदर घुस आई और हम लोगों को हॉस्टल के अंदर धकेल दिया गया, तब भी उन लोगों का गुस्सा शांत नहीं हुआ. वे लोग महिला हॉस्टल के अंदर घुस आए और लड़कियों पर लाठीचार्ज करना शुरू कर दिया.’
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बकौल साक्षी, लाठीचार्ज के दौरान भागने में जो लड़कियां गिर गयी थीं, पुलिस ने उनके ऊपर भी चढ़कर पिटाई की. इस बात का सबसे रोचक पहलू यह है कि पुलिस और पीएसी की इन हमलावर टुकड़ियों में एक भी सुरक्षाकर्मी या कॉन्स्टेबल महिला नहीं थी.
अब इस कार्रवाई को लेकर बनारस में नगर प्रशासन ने बीएचयू के वाइस चांसलर पर आरोप लगाया है कि चूंकि विश्वविद्यालय के सुरक्षा कर्मचारियों की वर्दी भी खाकी है, इसलिए बच्चों को यह लगा कि लाठीचार्ज पुलिस कर रही है.
इसी आरोप को आधार बनाते हुए बनारस के जिलाधिकारी योगेश्वर राम मिश्र ने विश्वविद्यालय प्रशासन को यह निर्देश दिया है कि वे तत्काल से विश्वविद्यालय के सुरक्षा कर्मचारियों की वर्दी बदल दें. नगर आयुक्त नितिन रमेश गोकर्ण ने प्रदेश सरकार को 26 सितंबर को सौंपी गयी अपनी रिपोर्ट में पूरी कार्रवाई के लिए कुलपति जीसी त्रिपाठी को दोषी बताया है.
यह बात अंशतः सही है कि इस हिंसक परिस्थिति के लिए कुलपति दोषी हैं. यदि वे लड़कियों की इन बेहद ज़रूरी और गंभीर मांगों को मान लेते तो शायद यह परिस्थिति नहीं जन्म लेती, लेकिन उन्हें सुरक्षा मुहैया कराने के बजाय कुलपति त्रिपाठी ने हिंसा का रास्ता चुना.
त्रिवेणी हॉस्टल में रहने वाली एक छात्रा कहती है, ‘हम कर क्या रहे थे? बस नारा लगा रहे थे और अपने लिए सुरक्षा की मांग कर रहे थे. उससे अलग कुछ भी तो नहीं हो रहा था. क्या इतना करने पर ही वीसी सर ये सब करवा सकते हैं.’
लेकिन यह भी ध्यान देने की बात है कि नगर प्रशासन का रुख इस मसले में कैसा रहा. जिलाधिकारी ने इस बात से कोई दूरी नहीं बनायी है कि उनकी मौजूदगी में पीएसी की टुकड़ी ने लड़कियों पर हमला किया था.
इसके ठीक एक साल पहले भी जब विश्वविद्यालय के हिंदी विभाग के छात्र के साथ कैंपस की भीतर बलात्कार की घटना सामने आई थी, तब भी नगर प्रशासन का रवैया मामले को रफा-दफा करने वाला था. पीड़ित छात्र का बलात्कार चिकित्सा विज्ञान संस्थान के ही एक कर्मचारी और उसके साथियों ने कुलपति आवास से दस मीटर की दूरी पर एक कार के अंदर किया था.
यह नगर प्रशासन की ही कारस्तानी थी कि पुलिस ने लड़के की मेडिकल जांच कराने में दस दिनों का समय लगा दिया था, जिसकी वजह से सारे शारीरिक साक्ष्य मिट गए थे. मौजूदा प्रदर्शन में भी प्रशासन ने विश्वविद्यालय से सामंजस्य और बीच का रास्ता निकालने में देर कर दी थी.
यह बात ध्यान देने की है कि लड़कियां जिन मांगों को लेकर प्रदर्शन कर रही थीं, उन मांगों के लिए विश्वविद्यालय प्रशासन ने कुछ नहीं किया. लेकिन पूरी कार्रवाई के एक दिन बाद यानी 24 सितंबर को जब सभी राजनीतिक दलों, मानवाधिकार संगठनों, आमजन और छात्रों द्वारा जब एक शांति मार्च निकाला गया, तब जाकर जिलाधिकारी और कमिश्नर ने लड़कियों की इन मांगों को मानने का आश्वासन दिया.
ऐसे में यह प्रश्न उठना लाजिम है कि क्या यदि यह कदम जिला प्रशासन को ही लेना था तो लड़कियों की पिटाई करने से पहले यह कदम नहीं उठाया जा सकता था?
पूरे मसले में ‘बाहरी प्रभाव’ की बात सामने आ रही है. कुलपति समेत कई दक्षिणपंथी संगठनों ने यह आरोप लगाया है कि छात्रों का आंदोलन पूरी तरह से राजनीतिक तौर पर प्रभावित था.
मीडिया से बातचीत में गिरीशचंद्र त्रिपाठी ने कहा था, ‘प्रधानमंत्री जी के दौरे की वजह से छात्रों ने यह कदम उठाया है. इसमें बाहर के लोग शामिल हैं.’
चूंकि कुलपति के मुताबिक पूरी घटना में बाहर के लोग शामिल हैं तो इस प्रश्न का जवाब देना थोड़ा मुश्किल है कि तब क्यों विश्वविद्यालय के ही 1,200 से अधिक छात्रों के ख़िलाफ़ मुकदमा दर्ज करने का आदेश दिया गया है?
विश्वविद्यालय के ही छात्र शाश्वत उपाध्याय बताते हैं, ‘लोग कह रहे हैं कि बाहर के लोग शामिल थे, हम लोग राजनीति कर रहे हैं. ये हम पर लगा सबसे बड़ा बेबुनियाद आरोप है. हम सरकार या किसी के ख़िलाफ़ प्रदर्शन नहीं कर रहे थे, हम अपनी मांगों के लिए प्रदर्शन कर रहे थे, जिनको सुन लिया जाता तो ऐसी नौबत नहीं आती.’
इस मामले का जन्म आज का नहीं है. विश्वविद्यालय परिसर के भीतर लंबे समय से छेड़खानी की ऐसी घटनाएं घटती रही हैं. विश्वविद्यालय की छात्राओं के मुताबिक़, उन्होंने जब भी इन घटनाओं की शिकायत करने की कोशिश की है, प्रोफेसरों और हॉस्टलों के वॉर्डनों द्वारा इन्हें भूल जाने या आदती हो जाने के कहा जाता है.
काशी हिंदू विश्वविद्यालय का नाम हालिया तीन सालों में कई बार भिन्न-भिन्न न्यायालयों में मुकदमों में दर्ज हुआ है. इनमें समसामयिक मामला लैंगिक भेदभाव का है, जिसकी सुनवाई आने वाले दिनों में सर्वोच्च न्यायालय में होनी है.
बहरहाल, कुलपति त्रिपाठी इस समय हर तरफ से हमलों का शिकार हो रहे हैं. वादों के बावजूद, विश्वविद्यालय की सुरक्षा व्यवस्था वैसी ही है. वह जगह अभी भी उतनी ही अंधेरी है, जहां पीड़ित छात्रा के कपड़ों में हाथ डाला गया था. यह आंदोलन, संभव है, कि कुछ आगे और जाए लेकिन प्रदेश की योगी सरकार के कूदने के बाद से पूरे मामले के आसान टारगेट कुलपति जीसी त्रिपाठी पर कार्रवाई के बाद अनुत्तरित सवालों से बचा नहीं जा सकता.
(लेखक पत्रकार हैं)