भारतीय समाज में शादी-ब्याह के मामले पेचीदा विरोधाभासों और विडंबनाओं में उलझे हुए हैं. इन्हें किसी क़ानूनी करतब से सुलझाना नामुमकिन है. जब युवा महिलाओं को स्तरीय शिक्षा के साथ वाजिब वेतन पर रोज़गार मिलेगा तब वे सही मायने में स्वावलंबी और सशक्त बन सकेंगी. फिर वे ख़ुद तय करेंगी कि शादी करनी भी है या नहीं, और अगर करनी है तो कब, किससे और कैसे.
मीडिया खबरों के अनुसार महिलाओं की शादी की न्यूनतम कानूनी आयु को 18 से बढ़ाकर 21 करने की तैयारी में बाल विवाह निषेध (संशोधन) विधेयक को संसद की स्थायी समिति को स्वीकृति के लिए भेजा है. बताया जाता है कि यह फैसला 15 दिसंबर की मंत्रिमंडल बैठक में लिया गया, लेकिन इसके आसार लगभग दो साल से दिख रहे थे.
संसद में फरवरी 2020 का राष्ट्रीय बजट पेश करते हुए वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण ने अप्रत्याशित घोषणा की थी कि सरकार महिलाओं की शादी की उम्र बढ़ाने की सोच रही है और इस पर सलाह देने के लिए विशेष समिति नियुक्त की जाएगी.
फिर 15 अगस्त के स्वतंत्रता दिवस भाषण में स्वयं प्रधानमंत्री ने कहा, ‘बेटियों में कुपोषण खत्म हो, उनकी शादी की सही आयु क्या हो, इसके लिए हमने कमेटी बनाई है. उसकी रिपोर्ट आते ही बेटियों की शादी की उम्र के बारे में भी उचित फैसले लिए जाएंगे.’
यह अनपेक्षित और चौंकाने वाली घोषणा थी. जब देश महामारी और मंदी के दोहरे प्रहार को झेल रहा है, और जब समाज के किसी भी तबके ने इसकी मांग नहीं की है, तब सरकार को इस अनावश्यक पहल की ज़रूरत क्यों महसूस हुई?
हाल के आंकड़ों को देखा जाए तो यह कदम और भी आश्चर्यजनक लगता है. राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण (एनएफएचएस) के अनुसार, 2005-06 और 2015-16 के बीच 21 से 24 वर्ष के आयु-वर्ग की स्त्रियों में, 18 साल से कम उम्र की शादियों का अनुपात 46 प्रतिशत से घटकर 27 प्रतिशत हो गया.
इसी सर्वेक्षण के 2019-20 संस्करण का अग्रिम अनुमान है कि (उसी आयु-वर्ग के लिए) यह आंकड़ा अब 23 प्रतिशत तक गिर चुका है. अगर शादी की उम्र सही दिशा में बढ़ रही है (और वह भी अनपेक्षित तेजी से) तो नया कानून बनाने की जल्दी क्यों?
बहरहाल सरकार ने प्रधानमंत्री ने जिस कमेटी का जिक्र किया उसे ‘टास्क फोर्स’ का दर्जा दिया गया, और उसने कई सार्वजनिक संस्थाओं-संगठनों को इस विषय पर अपने विचार रखने के लिए आमंत्रित किया. बाल अधिकार, महिला एवं युवा संगठनों के अलावा मुझ जैसे शोधकर्ता भी टास्क फोर्स के समक्ष अपने-अपने तर्क प्रस्तुत करने पहुंचे.
समिति का ध्यान इस प्रश्न पर केंद्रित था कि क्या शादी की उम्र बढ़ाने से मातृ मृत्यु दर, प्रजनन दर, जच्चा-बच्चा पोषण और स्त्री-पुरुष अनुपात जैसे मानक सुधरेंगे? अपनी प्रस्तुति में मैंने जो तर्क और आंकड़े पेश किए उनका सार यही था कि महिला कल्याण से जुड़े मानकों पर शादी की उम्र का कोई खास असर नहीं पड़ता. इन मानकों का सीधा रिश्ता गरीबी और सरकारी स्वास्थ्य सेवाओं की गुणवत्ता से है.
मेरा आग्रह था कि पर्याप्त रोजगार, उचित वेतन दर, और सुव्यवस्थित स्वास्थ्य एवं शिक्षा सेवाओं के बिना महिलाओं की हैसियत सुधर नहीं सकती. केवल शादी की न्यूनतम आयु को बढ़ाने से महिलाएं खुशहाल हो जाएंगी ऐसा सोचना नादानी है.
अगर कई लोग इस नादानी का शिकार हैं तो इसकी वजह आंकड़ों का भ्रम है. यह सही है कि सतही तौर पर हम पाते हैं कि जिन महिलाओं की शादी देर से हुई हो, उनके स्वास्थ्य, पोषण इत्यादि के आंकड़े उन महिलाओं से बेहतर होते हैं जिनकी शादी कम उम्र में हुई. लेकिन इसका मतलब यह कतई नहीं कि बेहतर स्वास्थ्य का कारण देर से शादी करना है.
अच्छी सेहत की वास्तविक वजह आर्थिक खुशहाली है- संपन्न वर्ग की महिलाओं का स्वास्थ्य विपन्न वर्ग की महिलाओं से नियमित तौर पर बेहतर होता है. और चूकि संपन्न तबकों में महिलाओं की शादियां निम्न वर्ग की महिलाओं के मुकाबले बड़ी उम्र में होतीं हैं, हम इस संयोग से भ्रमित होकर शादी की उम्र को स्वास्थ्य का कारक मान बैठते हैं.
इस सत्य की पुष्टि इस बात से होती है कि जब हम महिलाओं को आर्थिक श्रेणियों में बांटकर देखते हैं तो पाते हैं कि निम्न वर्गीय स्त्रियों की सेहत पर शादी की उम्र का कोई असर नहीं दिखता- शादी जल्दी हुई हो या देर से, उनकी हालत ज्यों की त्यों बनी रहती है.
मिसाल के तौर पर रक्ताल्पता (एनीमिया) के आंकड़े गौरतलब हैं. कुपोषण से उपजी यह बीमारी भारत में मातृ मृत्यु का सबसे बड़ा कारण है, लेकिन प्रत्येक आर्थिक तबके में इसका अनुपात शादी की उम्र से तनिक भी प्रभावित नहीं होता, चाहे यह उम्र पच्चीस वर्ष भी हो.
टास्क फोर्स ने जरूर कहा है कि उसकी सिफारिश जनसंख्या नियंत्रण से नहीं बल्कि महिला सशक्तिकरण से प्रेरित है, लेकिन हमारी सरकार लंबे समय से जनसंख्या नियंत्रण के मुद्दे पर सक्रिय रही है. 1978 में जब शारदा अधिनियम को संशोधित कर शादी की न्यूनतम कानूनी आयु को बढ़ाकर पुरुषों के लिए 21 और महिलाओं के लिए 18 साल किया गया था तो इस संशोधन का बाकायदा घोषित उद्देश्य जनसंख्या नियंत्रण ही था.
इसके अलावा कई शक्तिशाली अंतरराष्ट्रीय संगठन और संस्थाएं हैं जिनका मुख्य एजेंडा है 18 साल से पहले होने वाली शादियों पर प्रतिबंध लगाकर वैश्विक स्तर पर प्रजनन दर को कम करना. 2017 के एक महत्वपूर्ण विश्व बैंक शोध-अध्ययन के अनुसार 18 साल से पहले की शादियों को रोकने से स्वास्थ्य संबंधित निवेश में भारी बचत की जा सकती है- पर इस ‘बचत’ की वजह है कम बच्चे पैदा होना, या दूसरे शब्दों में जनसंख्या नियंत्रण.
काबिल-ए-गौर है कि इस अध्ययन में पाया गया कि शादी की उम्र बढ़ाने से महिलाओं की स्वायत्तता, उन पर हिंसक हमले होने की संभावना, या उन्हें रोजगार मिलने की संभावना जैसे सशक्तिकरण जैसे संबंधित मुद्दों पर कोई असर नहीं पड़ता.
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सारी दुनिया में 18 साल पूर्ण वयस्कता की आयु मानी जाती है. इस आयु को महिलाओं की शारीरिक एवं प्रजनन परिपक्वता की ऊपरी सीमा की मान्यता प्राप्त है. साथ ही अंतरराष्ट्रीय बाल अधिकार अधिवेशनों में (जिनको भारत सरकार स्वीकार कर चुकी है) माना गया है कि किशोर से प्रौढ़ बनने की उम्र भी यही है. अतः प्रस्तावित नया कानून किसी बालिका वधू को असामयिक विवाह से बचाने के बजाए एक वयस्क प्रौढ़ महिला के मौलिक अधिकारों को बाधित करेगा.
बहरहाल हम इस मुद्दे को कानूनी विशेषज्ञों के हवाले कर एक और महत्वपूर्ण सवाल को लेते हैं. सरकार की तरफ से दी जा रही दलीलों में दो अलग-अलग धारणाओं का मिश्रण मिलता है- शादी की न्यूनतम आयु और शादी की उचित आयु.
जाहिर है कि न्यूनतम आयु एक अल्पतम सीमा है, यह कोई वांछित प्रतिमान या आदर्श नहीं है. कानून का काम है न्यूनतम स्तर का निर्धारण, यानी उसकी निगरानी एकतरफा है- केवल तयशुदा निचली सीमा से नीचे जाने पर ही कानूनी कार्रवाई या सज़ा हो सकती है, उस सीमा के ऊपर कानून खामोश हो जाता है क्योंकि उसका काम खत्म हो चुका.
कानून का काम है बंदिश लगाना, यह बताना कि आप क्या नहीं कर सकते. प्रतिबंधित क्षेत्र के बाहर कानून नसीहत नहीं देता कि आपको ऐसा या वैसा करना चाहिए.
शादी की न्यूनतम कानूनी उम्र और शादी की उचित, सही या ‘अच्छी’ उम्र में ज़मीन-आसमान का फर्क है. शादी की उचित आयु किसी कानून द्वारा तय नहीं की जा सकती क्योंकि यह हर व्यक्ति के सामाजिक संदर्भ और निजी हालात पर निर्भर होती है- सभी के लिए एक ही उम्र उचित नहीं हो सकती.
न्यूनतम और उचित में फर्क किए बिना तर्कसंगत बहस असंभव है. इसके बावजूद प्रधानमंत्री समेत सरकारी पक्ष के प्रवक्ता प्रायः ‘सही’ की भाषा बोलते सुनाई देते हैं, वे ‘न्यूनतम’ को भूल जाते हैं.
यहां बुनियादी सवाल शादी की उचित उम्र का नहीं बल्कि साध्य के अनुकूल साधन जुटाने का है. मान लीजिए कि हम सब सहमत हैं कि महिलाओं की शादियां सही उम्र से पहले हो रही हैं, इस ‘सही उम्र’ की परिभाषा चाहे जो भी हो. ऐसी हालत में हमारा साझा उद्देश्य है शादी की उम्र को बढ़ाना. लेकिन कानूनी प्रतिबंध लगाना इस उद्देश्य को पूरा करने का शायद सबसे बुरा तरीका है क्योंकि यह कदम उन परिस्थितियों की बात नहीं करता जिनकी वजह से शादियां कम उम्र में होती हैं.
ज़मीनी सच्चाई सरकारी सोच के ठीक विपरीत है – शादी का कानूनी उम्र बढ़ जाने मात्र से महिलाओं का सशक्तिकरण नहीं होगा. लेकिन अगर उनका सच्चा सशक्तिकरण होता है तो महिलाएं अपने फैसले खुद कर सकेंगी और शादी की उम्र एक ऐसी समस्या नहीं रहेगी जिसे सरकार की दरकार हो.
आज की समस्या यह है कि महिला सशक्तिकरण जिन कारकों पर निर्भर है, उनके लिए कुछ नहीं (या बहुत कम) किया जा रहा है. महिला सशक्तिकरण के मामले में हमारा देश विश्व के सबसे बदतर देशों में गिना जाता है.
यह सही है कि शिक्षा के क्षेत्र में काफी तरक्की हुई है. लेकिन इस महत्वपूर्ण उपलब्धि के बावजूद दुखद सत्य यही है कि इसी दौरान भारत में महिलाओं की बेरोजगारी बढ़ी है. महिला रोजगार में गिरावट 1990 के दशक की आर्थिक तेजी के दिनों में भी कायम रही.
एक और कटु और कठोर सत्य- आंकड़े बताते हैं कि महिलाओं की शादी की उम्र के साथ उनकी बेरोजगारी की दर भी बढ़ती जाती है, यानी जिनकी शादी देर से हुई उन महिलाओं में बेरोजगारी ज्यादा है. वेतनशुदा रोजगार न होने के कारण अधिकांश भारतीय महिलाएं जिंदगी भर खुद को पति पर आश्रित पाती हैं- शादी ही उनका ‘व्यवसाय’ और रोजगार का स्रोत बन जाता है. कम उम्र में शादी का सबसे बड़ा कारक यही है.
महिला रोजगार की चुनौती का सामना किए बिना किसी कानूनी ‘फ्लाईओवर’ के जरिए इस समस्या के समाधान तक नहीं पहुंचा जा सकता.
एक आखिरी तर्क है जो नए कानून के समर्थक दे सकते हैं- माना कि इससे ख़ास फायदा नहीं होगा, लेकिन नीयत साफ और सोच नेक हो तो इसमें क्या नुकसान है?
ऐसा सोचना ग़लत है क्योंकि नए कानून के नुकसान व्यापक और गंभीर हैं. शादी-ब्याह जैसे मामलों में आर्थिक-सामाजिक कारण ही सर्वोपरि होते हैं, कानून की प्रासंगिकता कम होती है.
मौजूदा कानून में महिलाओं के लिए शादी की न्यूनतम आयु 18 साल है और यह कानून 1978 से यानी चवालीस साल से लागू है. इसके बावजूद, जैसा कि हम ऊपर देख चुके हैं, सरकारी आंकड़ों के मुताबिक 23 प्रतिशत महिलाओं की शादी अब भी 18 से कम उम्र में हो जाती है.
नए कानून के साथ भी कमोबेश यही हालात बने रहेंगे. और जब हम 18 से 21 की आयु पर आते हे तो एनएफएचएस के आंकड़ों का संदेश बिल्कुल साफ है – देश के (जनसंख्या के हिसाब से) 20 सबसे बड़े राज्यों में 16 राज्यों में (15-49 आयु-वर्ग की) 75 फीसदी महिलाओं की शादी 21 साल तक हो चुकी थी.
यही नहीं, भारत के छोटे-बड़े सभी 36 राज्यों में एक गोवा को छोड़कर बाकी सभी राज्यों में 50 फीसदी महिलाओं की शादी 21 साल तक हो चुकी थी. ध्यान देने लायक बात यह भी है कि शीघ्र शादी का अनुपात गरीब तबकों में कहीं ज्यादा है.
तो कुल मिलाकर संकेत बहुत स्पष्ट हैं. इसमें निहित नीयत जितनी भी नेक हो, क्रूर तथ्य तो यही है कि प्रस्तावित कानून एक झटके में लाखों महिलाओं की शादियों को अवैध बना देगा. क्या यह लाजिमी नहीं कि हम रुककर सोचें कि वह कैसी दुनिया होगी जिसमें एक पूरी पीढ़ी की महिलाओं को अपराधी बनाकर उन्हें कानूनी संरक्षण से वंचित करना जायज कहलाएगा?
हमारे समाज में शादी-ब्याह के मामले पेचीदा विरोधाभासों और विडंबनाओं में उलझे हुए हैं. इन उलझनों को किसी कानूनी करतब से सुलझाना नामुमकिन है. नई पीढ़ी की युवतियों को मुजरिम बनाने के बजाय सरकार को उनके वास्तविक सशक्तिकरण के लिए ठोस कदम उठाने चाहिए.
जब युवा महिलाओं को स्तरीय शिक्षा के साथ-साथ वाजिब वेतन पर रोजगार मिलेगा तो वे सही मायने में स्वावलंबी और सशक्त बन सकेंगी. ऐसी महिलाएं अपने पैरों पर खड़े होकर खुद तय करेंगी कि शादी करनी भी है या नहीं, और अगर करनी है तो कब, किससे और कैसे करनी है.
(लेखक महिला विकास अध्ययन केंद्र में शोधकर्ता हैं. अंतरराष्ट्रीय संदर्भ में बाल विवाह पर उनकी नई किताब का दक्षिण एशियाई संस्करण शीघ्र प्रकाश्य है.)