सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय ने पिछले महीने भारतीय राष्ट्रीय फिल्म अभिलेखागार के फिल्म प्रभाग, फिल्म समारोह निदेशालय और चिल्ड्रन फिल्म सोसाइटी ऑफ इंडिया के एनएफडीसी में विलय का निर्देश दिया है. फिल्म इंडस्ट्री के लोगों ने इसका विरोध करते हुए कहा कि यह निर्णय बिना हितधारकों से चर्चा के लिया गया है.
नई दिल्लीः पुणे में भारतीय राष्ट्रीय फिल्म अभिलेखागार (एनएफएआई) छात्रों, शोधकर्ताओं और विद्वानों के लिए बहुत ही मूल्यवान संसाधन है. यहां दुनियाभर से ये लोग हजारों की संख्या में संजोकर रखे गए मूल प्रिंट की तलाश में जुटते हैं. ये प्रिंट मूक सिनेमा से लेकर किताबों, पोस्टर्स और क्लिपिंग्स तक के हैं.
बता दें कि एनएफएआई सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय (एमआईबी) के तहत एक अलग इकाई के रूप में काम करता है. लेकिन अब से ऐसा नहीं होगा.
मंत्रालय ने पिछले महीने एक निर्देश जारी किया था कि जनवरी 2022 के अंत तक एनएफएआई के फिल्म प्रभाग (एफडी), फिल्म समारोह निदेशालय (डीएफएफ) और चिल्ड्रन फिल्म सोसाइटी ऑफ इंडिया (सीएफएसआई) का राष्ट्रीय फिल्म विकास निगम (एनएफडीसी) में विलय किया जाएगा.
बीते 13 महीनों में एमआईबी की इस तरह की औचक और अपारदर्शी घोषणाएं आम हो गई हैं, जिससे फिल्मकारों को लगता है यह इंडस्ट्री की तरफ सरकार के तिरस्कृत रुझान को दर्शाता है.
नवंबर 2020 में नेटफ्लिक्स, अमेजॉन और हॉटस्टार जैसे सभी ओटीटी प्लेटफॉर्म को सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय के दायरे में लाने का फैसला किया गया था.
इसके साथ ही अप्रैल 2020 में फिल्म प्रमाणन अपीलीय न्यायाधिकरण को समाप्त कर दिया गया था. तीन महीने से भी कम समय के बाद सिनेमैटोग्राफ अधिनियम 1952 में संशोधन का ऐलान किया गया था, जिसमें सेंसर बोर्ड के अंतिम फैसले को संशोधित करने की मांग की गई थी.
जुलाई 2021 में कई भारतीय फिल्मकारों ने एमआईबी को एक पत्र लिखकर चिंता जताई थी कि यह संशोधन अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता और लोकतांत्रिक असहमति को खतरे में डालेगा.
19 दिसंबर 2021 को फिल्मकारों ने मंत्रालय को एक और पत्र लिखा था, जिसमें उसके हालिया फैसले को लेकर स्पष्टीकरण मांगा गया था.
पत्र में कहा गया, ‘यह जानकर आश्चर्य हुआ कि श्री बिमल जुल्का के तहत उच्चाधिकार समिति ने हितधारकों को शामिल किए बिना अपनी रिपोर्ट पेश की. इसके कंटेंट को उजागर करने के लिए आरटीआई दायर होने के बावजूद केंद्र ने इसे सार्वजनिक नहीं किया.’
इस पत्र में मंत्रालय से चार शिकायतों पर संज्ञान लेने का अनुरोध किया गया.
1) एफडी, एनएफएआई और सीएफएसआई जैसे सार्वजनिक वित्त पोषित संस्थानों का एनएफडीसी जैसे कॉरपोरेशन के साथ विलय नहीं किया जाना चाहिए.
2) इन चारों प्रभावित निकायों के फिल्मकारों और कर्मचारियों सहित विभिन्न हितधारकों के साथ पारदर्शी और खुली बातचीत होनी चाहिए. इन संगठनों को पूर्ण स्वायत्तता और फंडिंग मिलनी चाहिए.
3) सरकार को एफडी, एनएफएआई और सीएफएसआई अभिलेखागार को राष्ट्रीय विरासत घोषित करना चाहिए और आर्काइव को सुरक्षित रखना चाहिए और संसद में लिखित आश्वासन देना चाहिए कि इन्हें अभी और भविष्य में बेचा या नीलाम नहीं किया जाएगा.
4) इन सार्वजनिक संस्थानों में काम कर रहे कर्मचारियों की चिंताओं को जल्द से जल्द दूर करना चाहिए.
दो दिन से भी कम समय में इस पत्र पर 850 से अधिक लोगों ने हस्ताक्षर किए, जिसमें नसीरुद्दीन शाह, नंदिता दास और आनंद पटवर्धन भी शामिल हैं.
सिनेमैटोग्राफ (संशोधन) विधेयक 2021 पर प्रतिक्रिया से पता चलता है कि फिल्म जगत के कई लोग इसके खिलाफ हैं. 3,000 से अधिक लोगों ने इस पत्र पर हस्ताक्षर किए हैं (द वायर ने सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय को ईमेल किया था लेकिन इसका जवाब नहीं मिला. मंत्रालय की प्रतिक्रिया मिलने पर रिपोर्ट को अपडेट किया जाएगा.)
मंत्रालय के इस ताजा फैसले को लेकर सबसे बड़ी चिंता आम है और इसे फैसले की औपचारिक घोषणा से एक हफ्ते पहले मंत्रालय को लिखे पत्र में राज्यसभा सांसद जॉन ब्रिटास ने इसे उठाया था.
उन्होंने कहा था, ‘कंपनी अधिनियम के तहत पंजीकृत एनएफडीसी को अपने संचालन से लाभ अर्जित करना है. इस तरह के संगठन फिल्मों के आर्काइव के संरक्षण जैसे गैर लाभकारी कामों को कैसे कर सकता है?’
ब्रिटास के मुताबिक, एनएफडीसी के विलय से इस पूरी प्रक्रिया पर पानी फिर सकता है.
1980 से 1983 तक एनएफडीसी का नेतृत्व कर चुके वरिष्ठ फिल्मकार अदूर गोपालकृष्णन ने सहमति जताते हुए कहा, ‘यह अब कामकाजी संस्थान नहीं रहा. यह संस्थान खत्म हो चुका है. मुझे नहीं पता कि उन्होंने सब कुछ अपने अधीन क्यों रखा हैं?’
ये निर्देश भ्रमित करने वाले लगते हैं क्योंकि चारों निकायों एफडी, एनएफएआई, डीएफएफ और सीएफएसआई की अलग-अलग जिम्मेदारियां हैं.
एफडी डॉक्यूमेंट्रीज का निर्माण और वितरण करती है. वह वृत्तचित्रों, लघुफिल्मों और एनिमेशन फिल्मों के लिए सालाना मुंबई अंतरराष्ट्रीय फिल्मोत्सव की मेजबानी भी करती है.
डीएफएफ अंतरराष्ट्रीय फिल्मोत्सव, राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कारों और दादा साहेब फाल्के अवॉर्ड सहित अलग-अलग फिल्मोत्सवों और पुरस्कारों का आयोजन करती है.
सीएफएसआई बच्चों की फिल्मों का निर्माण करती है, जबकि एनएफएआई देश के सिनेमाई विरासत को संजोकर रखने का काम करता है.
लंबे समय से एफडी और एनएफएआई से जुड़े फिल्म आर्काइविस्ट और रिस्टोरर शिवेंद्र सिंह डूंगरपुर ने कहा, ‘इन सभी निकायों को एक स्पेक्ट्रम के तहत लाकर इस पूरी स्थिति को केंद्रीकृत कर दिया गया है, जिससे वे एक ही नीतिगत फैसले के अधीन हो गए हैं. जो संभव नहीं है क्योंकि उनकी अपनी विरासत और काम करने का अपना तरीका है. आप इन्हें एनएफडीसी के तहत कैसे ला सकते हैं?’
गोपालकृष्णन का मानना है कि एक इकाई के तहत अलग-अलग संगठनों को लाने से उनके कौशल के साथ-साथ उनकी पहचान भी कमजोर होगी.
उन्होंने कहा, ‘आपको लगता है कि हर कोई इन संस्थानों का संचालन कर सकता है. नहीं, आपको विशेषज्ञों की जरूरत है. आपको जानकार लोगों की जरूरत है. इनमें से प्रत्येक संस्थान को नुकसान होगा, जिसे लेकर मुझे कोई संदेह नहीं है.’
उन्होंने कहा कि एनएफडीसी कोई विशेषज्ञ निकाय नहीं है. यह वास्तव में किसी भी श्रेणी में विशेषज्ञ नहीं है. जब डॉक्यूमेंट्री फिल्मकार सुरभि शर्मा ने मंत्रालय के इस ऐलान को सुना तो उनकी दो मुख्य चिंताएं थीं.
शर्मा ने कहा, ‘उनकी पहली चिंता एफडी और एनएफएआई का आर्काइव है. वे 1937 से न सिर्फ हमारे सांस्कृतिक इतिहास बल्कि कला, समाज और ऐतिहासिक घटनाओं के दृश्यों को भी समेटे हुए हैं. अब इस तरह की सामग्री को किसी लाभकारी इकाई के तहत क्यों लाना?’
जी. अरविंदन की क्लासिक फिल्म कुम्मट्टी (1977) को रिस्टोर कर चुके डुंगरपुर ने कहा, ‘एनएफएआई जैसे संस्थान की खुद की स्वायत्तता होनी चाहिए.’
वहीं, गोपालकृष्णन ने कहा, ‘यह सांस्कृतिक विविधता का प्रतिनिधित्व करता है. एनएफडीसी जैसा कॉरपोरेशन किसी आर्काइव का रखरखाव और संचालन नहीं कर सकता. आपको इसके लिए प्रत्यक्ष तौर पर सरकार से फंडिंग की जरूरत है.’
वहीं, सुरभि शर्मा की दूसरी चिंता है कि इन निकायों से जुड़े कर्मचारियों का क्या होगा? एफडी के एक वरिष्ठ अधिकारी ने पहचान उजागर नहीं करने की शर्त पर बताया कि विभिन्न संगठनों और शहरों के 400 से अधिक कर्मचारियों पर इसका प्रभाव पड़ेगा.
शर्मा ने कहा, ‘ये वो लोग हैं, जिनके साथ वर्षों तक काम किया है, उनके महत्व को जाना है. वे कोई विशेष भूमिका निभा रहे थे. उन्होंने अपनी पूरी जिंदगी इन संस्थानों में काम करते हुए बिता दी. क्या ये इन संस्थानों के कर्मचारियों के लिए सही हैं?’
शर्मां के पास मंत्रालय के फैसलों को लेकर कुछ बुनियादी सवाल हैं. ऐसे सवाल जिनका समाधान जल्द निकलने वाला नहीं लगता.
उन्होंने कहा, ‘इस फैसले को इतनी जल्दबाजी में क्यों लिया गया? अगर इसे जल्दबाजी में नहीं लिया जाता तो प्रक्रिया क्या होती. कोई पारदर्शिता नहीं है.’
उन्होंने कहा, ‘यह नहीं कहा जा रहा कि क्या सही है और क्या गलत. हम बस इतना कह रहे हैं कि हमें बताना चाहिए था कि इस फैसले के पीछे क्या तर्क था या क्या मजबूरी थी. विजन क्या था? शायद कोई विजन है. हमें यह जानकर खुशी होगी.’
बता दें कि मंत्रालय को अभी इन चिंताओं का समाधान करना है.
गोपालकृष्णन मंत्रालय के जून और दिसंबर के आदेशों पर टिप्पणी करते हुए कहते हैं, ‘यह गलत फैसला है क्योंकि संबंधित क्षेत्रों के लोगों के साथ विचार-विमर्श नहीं किया गया. इससे पता चलता है कि सरकार खुद ही निश्चित नहीं है. इससे आत्मविश्वास की कमी, लोगों में विश्वास की कमी का पता चलता है. वे इतना असुरक्षित क्यों महसूस करते हैं.’
(इस रिपोर्ट को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें.)