मैं किसी से उसका मज़हब छीनना नहीं चाहता… सिर्फ़ सीने में दबी नफ़रत छीन लेना चाहता हूं

विभाजन या इतिहास के किसी भी कांटेदार खंडहर में फंसे जिस्मों को भूलकर, अगर सत्ताधारियों के लिबास में नज़र आने वाले सितम-ज़रीफ़ ख़ुदाओं के जाल को नहीं तोड़ा गया तो मरने वाले की ज़बान पर भी ख़ुदा का नाम होगा और मारने वाले की ज़बान पर भी ख़ुदा का नाम होगा.

विभाजन या इतिहास के किसी भी कांटेदार खंडहर में फंसे जिस्मों को भूलकर, अगर सत्ताधारियों के लिबास में नज़र आने वाले सितम-ज़रीफ़ ख़ुदाओं के जाल को नहीं तोड़ा गया तो मरने वाले की ज़बान पर भी ख़ुदा का नाम होगा और मारने वाले की ज़बान पर भी ख़ुदा का नाम होगा.

(प्रतीकात्मक फोटो: पीटीआई)

मैं भारतीय नागरिक हूं.

लेकिन अक्सर ‘संदिग्ध’ और कई बार ‘ग़द्दार’ बताया जाता हूं.

भले आप मुझे न जानते हों, मुझसे न मिले हों…फिर भी मेरे नाम का इश्तिहार आपको हर तरफ़ नज़र आता है.

जहां मैं ‘जिहादी’ हूं…

और शायद आपकी तरह मुझे भी ये बताया जा रहा है कि मैं एक ऐसी किताब में आस्था रखता हूं जो मुझे ‘काफिरों की हत्या के लिए उकसाती है.’

फिर अज़ान, ‘लव जिहाद’, धर्मांतरण और ‘खुले में नमाज़’ जैसी बातें भी हैं, जो मेरे नाम से इन इश्तिहारों में दर्ज हैं.

बहुत मुमकिन है कि कई बार आप जिसे सिर्फ़ चुनावी इश्तिहार समझ रहे हों वो असल में मेरे नाम का ‘मोस्ट-वॉन्टेड’ पर्चा भी हो.

यहां पर कोई कह सकता है कि साफ़-साफ़ कहो, मैं मुसलमान हूं…

यक़ीन जानिए मैं यही कहना चाहता हूं…

लेकिन, तभी मुझे ईसाईयों की प्रार्थना और चर्च पर हमले याद आने लगते हैं.

दलित और आदिवासियों के लहूलुहान चेहरे नज़रों में फिरने लगते हैं.

नीलामी के लिए पोस्ट की गईं मुसलमान औरतों की तस्वीरें ज़ेहन में गर्दिश करने लगती हैं.

एक अजीब तरह के शोर और साएं-साएं से भर गया हूं.

ऐसे में क्या फ़र्क़ पड़ता है कि मैं मुसलमान हूं, ईसाई हूं, दलित हूं या कुछ और? कहीं न कहीं सबकी पीड़ा एक ही तो है.

ख़ैर, पहले मैंने कहा कि मैं धर्मनिरपेक्ष भारत का नागरिक हूं. इसी मिट्टी से जन्मा हूं और इसी में ख़ाक होना है.

अलबत्ता, मुझे नहीं पता कि अगर किसी नरसंहार में मरना या क़त्ल/लिंच होना मेरे नसीब में है तो मुझे क्या कहा जाएगा- जिहादी, ग़द्दार या सिर्फ़ मुसलमान…

क्योंकि सिर्फ़ मुसलमान होना भी तो गुनाह है. गुनाह इसलिए भी कि एक ऐसी किताब में आस्था रखता हूं, जो मुझे ‘काफिरों की हत्या के लिए उकसाती है’.

कई दिनों से ये बातें विचलित कर रही हैं.

एक नागरिक के तौर पर और शायद मुसलमान होने के नाते भी.

हां, शायद इसलिए भी कि संसद मौन है और ‘धर्म संसद’ में नरसंहार का ऐलान हो रहा है.

शायद इसलिए कि भारत को ‘हिंदू राष्ट्र’ बनाने के लिए हथियार उठाने की बात की जा रही है.

या फिर इसलिए भी कि गांधी को अपशब्द कहे जा रहे हैं और उन्हें देशद्रोही बताया जा रहा है.

कई दोस्तों ने मुझे यक़ीन दिलाया कि ये सब कभी नहीं हुआ, कहने लगे न्यू-इंडिया में क्या-क्या याद रखोगे; दिवाली को जश्न-ए-रिवाज कहने से लेकर हालिया क्रिसमस के समारोह तक चले आओ, आपत्ति और हमलों के स्वर में नफ़रत बांटी जा रही है.

मैं समझता हूं यार-दोस्त ठीक कहते होंगे. वो कहते हैं इतिहास कभी अपने लोगों के लिए इतना निर्दयी नहीं हुआ.

मेरे कई दोस्त नसीरुद्दीन शाह की तरह ये भी कहते हैं, ‘हम लड़ेंगे. हम हमारे घरों, हमारे परिवार और हमारे बच्चों की रक्षा करेंगे.’

और मैं ये सब सुनते हुए दो ज़मानों में बंट गया हूं.

मुझे मेरे जिस्म का एक हिस्सा विभाजन और उसकी त्रासदी में फंसा हुआ नज़र आता है और दूसरा आज के भारत में, जहां हम सांस लेने की कोशिश कर रहे हैं.

दोनों हिस्सों को मिलाने की कोशिश करता हूं तो महसूस होता है कि किसी इमारत की तरह ढह जाऊंगा.

आपको लग सकता है कि मैं रो रहा हूं, उदास हूं, बुज़दिल हूं या बद-गुमान हूं.

मुमकिन है आप ठीक समझ रहे हों, लेकिन ये आंसू सिर्फ़ मेरे नहीं हैं, ये उदासी भी सिर्फ़ मेरी नहीं है और बुज़दिल या बद-गुमान तो मैं क़तई नहीं हूं.

दरअसल मैं कृश्न चंदर के आंसू रोना चाहता हूं, जिनके पास विभाजन और उसकी त्रासदी का दस्तावेज़ है;

अल्हम्दुलिल्लहि रब्बिल आलमीन……..

सत श्री अकाल! हर हर महादेव!

हवा में बरछे चमके और बुड्ढ़े मुसलमान का जिस्म चार टुकड़ों में तक़्सीम हो गया.

मरने वाले की ज़बान पर आख़री नाम ख़ुदा का नाम था और मारने वाले की ज़बान पर ख़ुदा का नाम था. और अगर मरने और मारने वालों के ऊपर, बहुत दूर ऊपर, कोई ख़ुदा था तो बिला-शुबा बेहद सितम-ज़रीफ़ था!’

कृश्न चंदर के उपन्यास ग़द्दार में इस तरह के कई एक्ट हैं, जहां हर मज़हब और बिरादरी के लोग पीड़ित हैं, जहां हर मज़हब/बिरादरी के मानने वाले लोगों को गाजर-मूली की तरह काट रहे हैं और जहां हर मज़हब/बिरादरी की औरतों के कपड़े उतारे जा चुके हैं.

ऐसे में कृश्न चंदर ने यहां जिस ‘सितम-ज़रीफ़ ख़ुदा’ की बात की, हम उसमें सत्ताधारियों की ख़ौफ़नाक हंसी सुन सकते हैं.

इसी हंसी को सुनते हुए एक हालिया शपथ को यहां याद कर सकते हैं कि, ‘इस देश को हिंदू राष्ट्र बनाने और हिंदू राष्ट्र बनाए रखने के लिए जरूरत पड़ने पर हमें लड़ना, मरना और मारना पड़ेगा.’

इस शपथ के बाद एक मुसलमान को दिया गया ये जवाब भी कि; औरंगजेब की शपथ लेने वालों! यह शपथ 26 अप्रैल 1645 को छत्रपति शिवाजी महाराज जी ने रायरेश्वर मंदिर में ली थी. तब से अब तक करोड़ों योद्धाओं ने ये दिलवाई, लाखों ने बलिदान दिया, मैं उन्हीं में से एक छोटा-सा सैनिक हूं. गजवा-ए-हिंद बनाने का तुम्हारा सपना कभी पूरा न हो, इसलिए यह शपथ है.’

शायद अटपटा लगे कि मैंने अपने जिस्म के हिस्सों को मिलाने की कोशिश में कृश्न चंदर की बात क्यों कि और यहां इस शपथ का संदर्भ भी क्यों देने लगा. यक़ीन मानिए कृश्न चंदर को भी इसके लिए टोका गया था;

‘तुम माज़ी (अतीत) के लिए क्यों रोते हो?

जो हो गया सो हो गया. वो बुरा और भयानक था…उसे याद करके शरीफ़ इंसानों की गर्दन शर्म से झुक जाती है. मगर अब इन बातों को क्यों दोहराते हो…आज हमारे दरमियान एक नई नस्ल पैदा हो रही है जो इन वहशियाना मज़ालिम के मलबे से बहुत ऊपर तामीर-ए-नौ (कंस्ट्रक्शन) के ख़्वाब देखती है.’

‘ग़द्दार’ के पब्लिशर के इस प्रश्न का उत्तर देते हुए कृश्न चंदर ने उपन्यास के समापन पर अलग से लिखा था;

‘वो उस नफ़रत को नहीं भूलते जिसने इन तल्ख़ वाक़िआत (क्रूर घटनाओं) को जन्म दिया था. वो नफ़रत आज भी दिलों में एक नाग की तरह कुंडली मारे अपने फन को दुम में दबाए बैठी है और किसी मौक़े–किसी एक मौक़े की तलाश में है. मौक़ा पाते ही वो सदियों पुरानी नफ़रत नाग के फन की तरह उठ खड़ी होगी और पूरे बर्र-ए-सग़ीर (भारतीय उपमहाद्वीप) को डस लेगी.’

आगे कहते हैं; ‘मैं नहीं चाहता कि वो मौक़ा कभी आए. मैं इस नफ़रत को तरसा-तरसाकर भूखा मार देना चाहता हूं. क्योंकि हिंदुस्तान में एक या दो नहीं लाखों इंसान ऐसे होंगे जो पेशावर तक अखंड भारत को फैला देने का ख़्वाब देखते हैं. पाकिस्तान में ऐसे इंसानों की कमी नहीं जो दिल्ली पर हलाली परचम लहरा देने के मुतमन्नी हैं और इसके लिए लाखों की तादाद में जान देने के लिए तैयार हैं.’

क्या यहां ऐसी ही बात की तरफ़ इशारा नहीं, आज जिसकी शपथ दिलाई जा रही है. तो क्या कृश्न चंदर की तरह हम सब रो रहे हैं? शायद नहीं, बल्कि उनकी तरह ही हमारी चिंता भी कुछ और है कि;

‘मेरी मुसीबत ये है कि मैं आज बाबर को बुलाकर उससे ये नहीं कह सकता कि तुमने हिंदुस्तान पर हमला क्यों किया? मैं आज शिवाजी से ये नहीं कह सकता कि तुम औरंगज़ेब के ख़िलाफ़ बग़ावत का अलम क्यों बुलंद करते हो. मैं हिंदू से उसका वेद और मुसलमान से उसका क़ुरान नहीं छीन सकता. मैं मुसलमान को गोश्त खाने से मना नहीं कर सकता. हिंदू को धोती पहनने से रोक नहीं सकता. मैं किसी से उसका मज़हब, उसका कल्चर… छीनना नहीं चाहता. मैं सिर्फ़ वो नफ़रत छीन लेना चाहता हूं- वो जो तुम्हारे सीने में दबी पड़ी है.’

और ये चिंता करते हुए असल में मैं कृश्न चंदर की तरह कहना चाहता हूं कि, मैं माज़ी (अतीत) के लिए नहीं रोता. मैं मुस्तक़बिल (भविष्य) के लिए रोता हूं.

कृश्न चंदर उस समय जिस भविष्य को देख पा रहे थे, वही शायद हमारा आज है. या फिर यही आज उस भविष्य की तरफ़ हमारे बढ़ते क़दम, जिसकी चाप सुरीली बहरहाल नहीं है.

इसलिए विभाजन या इतिहास के किसी भी कांटेदार खंडहर में फंसे जिस्मों को भूलकर, अगर सत्ताधारियों के लिबास में नज़र आने वाले सितम-ज़रीफ़ ख़ुदाओं के जाल को नहीं तोड़ा गया तो मरने वाले की ज़बान पर भी ख़ुदा का नाम होगा और मारने वाले की ज़बान पर भी ख़ुदा का नाम होगा.

शायद अभी समय है कि कृश्न चंदर के ‘बीज नाथ’ से सबक़ लेकर हर तरह की सत्ता के मुंह पर थूका जा सकता है और बेइंतिहा नफ़रत की सियासत के बीच लोकतंत्र को बचाए रखने की कोशिश में ‘ग़द्दार’ कहें जाने का तमग़ा अपने गले में फ़ख़्र के साथ लटकाया जा सकता है.

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