हमारी बदनसीबी ही है कि जिस सोच ने देश को तीन टुकड़ों में बांट दिया, आज भी हमारे दिमागों में काई की तरह जमी हुई है और सड़ांध फैला रही है.
आज हम जिस भारत में जी रहे हैं वहां हिंदुओं द्वारा मुसलमानों का त्योहार मनाया जाना और मुसलमानों द्वारा हिंदुओं के महात्माओं/भगवानों की इज़्ज़त करना ख़बर बन जाता है. क्योंकि हमारे राजनीतिज्ञों की कारस्तानियों के चलते हम धीरे-धीरे ये मान बैठे हैं कि हिंदू और मुसलमान दो अलग अलग समाज में जीते हैं जिनका एक-दूसरे से कोई सरोकार नहीं है. हमारी बदनसीबी ही है कि ये सोच जिसने देश को तीन टुकड़ों (भारत, पाकिस्तान और बांग्लादेश) में बांट दिया, आज भी हमारे दिमागों में काई की तरह जमी हुई है और सड़ांध फैला रही है.
ऐसी ही सोच के चलते बंगाल सरकार ने कुछ दिन पहले ये फ़रमान जारी किया था कि मुहर्रम के दिन दुर्गा पूजा पर रोक होगी क्योंकि उनके हिसाब से ऐसा होने से हिंदू और मुसलमान में तनाव पैदा हो सकता है. शायद ये लोग किसी और ग्रह से आये हैं जो ये नहीं जानते कि इस देश की संस्कृति किसी एक धर्म से नहीं बनी है बल्कि ये सभी धर्म, जाति और भाषा का मिश्रण है. इसके कारण हम मनमुटाव नहीं करते बल्कि यही इस देश की ताक़त है.
मैं अपने पिछले कुछ लेखों में इस बात का ज़िक्र करता आया हूं कि कैसे श्रीकृष्ण और श्रीराम को मुसलमान भी भारतीय सभ्यता एवं संस्कृति का अभिन्न अंग मानते आए हैं और उनका आदर करते हैं. आज मैं एक बंगाली ब्राह्मण के उदाहरण से ये दर्शाना चाहूंगा कि भारत के हिंदू भी इस्लाम की इज़्ज़त करने में पीछे नहीं हैं और मुहर्रम को शहीद हुए इमाम हुसैन को हिंदू भी सच्चाई का प्रतीक मानते हैं.
सरोजनी नायडू हैदराबाद में एक बंगाली ब्राह्मण परिवार में जन्मी थीं. हम में से अधिकतर उनको आज़ादी की लड़ाई से जुड़ी महत्वपूर्ण नेत्री के रूप में पहचानते हैं. हम में से जिन लोगों का अंग्रेज़ी साहित्य की ओर ज़्यादा रुझान नहीं है वो ये नहीं जानते कि सरोजिनी एक बहुत अच्छी कवयित्री भी थीं.
आज मुहर्रम के दिन मैं पाठकों का ध्यान उनकी अंग्रेज़ी कविता ‘इमामबाड़ा’ की ओर आकर्षित करना चाहूंगा. ये कविता उनकी 1917 में प्रकाशित पुस्तक ‘द ब्रोकन विंग्स’ में छपी थी. ये कविता इमाम हुसैन के प्रति उनका प्रेम एवं उनकी भक्ति साफ़ दर्शाती है. सरोजिनी लिखती हैं;
Out of the sombre shadows,
Over the sunlit grass,
Slow in a sad procession
The shadowy pageants pass
ये मुहर्रम के दिन लखनऊ के इमामबाड़े में होते मातम का मार्मिक चित्रण है. बड़ी ही खूबसूरती के साथ वो काले कपड़े पहने मातम करने वालों की तुलना काले सायों से करती हैं और बताती हैं कि कैसे ये काला रंग दुःख का प्रतीक है.
उनके अनुसार;
Mournful, majestic, and solemn,
Stricken and pale and dumb,
Crowned in their peerless anguish
The sacred martyrs come.
ये काले कपड़े मातम करने वाले साये 1400 बरस पहले शहीद हुए इमाम हुसैन और उनके 71 साथियों को जीवंत कर देते हैं. जहां एक ओर ये शोकाकुल हैं, वहीं दूसरी ओर ये मातम करने वाले संजीदा और राजसी भी नज़र आते हैं. भले ही ये लोग आज घायल हैं, इनके बदन सूखे पत्तों की तरह फीके हैं और ज़बान चुप है पर ये बेजोड़ नज़र आते हैं अपने इस दुख में भी. क्योंकि ये जो लोग चले आ रहे हैं ये कोई और नहीं, ये तो वही पूजनीय और पवित्र शहीद हैं.
सोचिये आज के ये नेता क्या अपने धर्म से ऊपर उठ कर सच्चाई के लिए जान देने वाले इमाम हुसैन को पूजनीय शहीद बोल पाएंगे. काश ये बोल पाते.
Hark, from the brooding silence
Breaks the wild cry of pain
Wrung from the heart of the ages
Ali! Hassan! Hussain!
वो आगे लिखती हैं कि ये जो शाम का सन्नाटा है, इसमें गौर से सुनो. दर्द भरी वो चीख सुनाई देगी जो सदियों से वक़्त के सीने को दहला रही है. ये चीख़ जो अली, हसन और हुसैन का नाम ले रही है.
Come from this tomb of shadows,
Come from this tragic shrine
That throbs with the deathless sorrow
Of a long-dead martyr line.
इस अंधेरे मक़बरे से, इस मनहूस इमारत से ये जो काले साये आते दिखते हैं ये उन शहीदों की कतारें हैं जो बहुत पहले हमें छोड़ कर जा चुके हैं लेकिन इनका दुःख, ये गम आज भी जिंदा है और सदा रहेगा.
आगे इस कविता के अंत में सरोजिनी ये साफ़ करती हैं कि क्यों वे ये मानती हैं कि इमाम हुसैन की शहादत का गम अमर है और समय के बंधनों से मुक्त है.
वे लिखती हैं;
Kindle your splendid eyes
Ablaze with the steadfast triumph
Of the spirit that never dies.
So may the hope of new ages
Comfort the mystic pain
That cries from the ancient silence
Ali! Hassan! Hussain!
अपनी आंखों को रोशन कर लो उस ज्वाला से जो कि सच्चाई की है, ये वो सच्चाई है जो अटल है. ये सच अमर है, कभी नहीं मरता. और आने वाले समय की आशा भी इस आध्यात्मिक दुख में छिपी है जो कि इतिहास के किसी कोने से चीख़ चीख़ कर रुदन कर रही है और कह रही है: ‘अली! हसन! हुसैन!’.
सरोजिनी की ये कविता उनके इस विश्वास को दर्शाती है कि इमाम हुसैन मुसलमान थे या नहीं, इससे पहले ये तथ्य महत्वपूर्ण है कि वो सच्चाई के लिए अपने 71 साथियों के साथ अपने से कहीं अधिक ‘बलशाली’ राजा ‘यज़ीद’ की फ़ौज के सामने डट गए थे. उनकी हिम्मत, उनका जज़्बा कि सच के लिए जान की परवाह नहीं की जाती. सिर्फ़ मुसलमानों के लिए ही नहीं, पूरी मानवता के लिए सबक है.
हाय हमारी बदनसीबी कि हम महान आत्माओं से सीख लेने के बजाय उनको हिंदू, मुसलमान, सिख, इसाई, इत्यादि में बांट लेते हैं.
(लेखक इतिहास के शोधकर्ता और टिप्पणीकार है.)
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