महाराष्ट्र: हज़ारों मुंबईकरों के लिए पानी अब भी एक सपना है…

चित्रकथा: जहां मुंबई के सुविधा-संपन्न नागरिकों को पानी रियायती दरों पर मिलता है वही, झुग्गी-बस्तियों में रहने वालों को आज भी पानी के लिए दरबदर भटकना पड़ता है.

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आनंद (परिवर्तित नाम) घर नहीं है. उसे अपना निशुल्क स्कूल भी छोड़ना पड़ा क्योंकि उसे दिन के कई घंटे पानी भरने में गुजारने पड़ते हैं. तस्वीर में आनंद बोरीविली के एक नाले के पास में एक हो रहे लीकेज से पानी भरते हुए.

चित्रकथा: जहां मुंबई के सुविधा-संपन्न नागरिकों को पानी रियायती दरों पर मिलता है वही, झुग्गी-बस्तियों में रहने वालों को आज भी पानी के लिए दरबदर भटकना पड़ता है.

पानी में वैध कनेक्शन से महरूम अनधिकृत बस्तियों में 2-3 रुपये में मिलने वाले यह पानी के पाउच आम जरूरत हैं. बस्तियों में इन्हें अक्सर शौच को जाने के लिए इस्तेमाल किया जाता है. (सभी फोटो: सूरज कतरा)

मुंबई: महाराष्ट्र की राजधानी मुंबई में प्रति दिन 15 करोड़ लोगों को मुंबई महानगरपालिका के जटिल पाइपलाइनों के जाल से करीब 4 बिलियन लीटर पानी पहुंचाया जाता है. शहर में हर नागरिक को 135 लीटर पानी प्रतिदिन आवंटित किया गया है. इस गणित के अनुसार मुंबई के हर नागरिकों के लिए पर्याप्त पानी उपलब्ध है और 135 लीटर पानी हर नागरिक की मूलभूत जरूरतों और स्वास्थ्य का ध्यान रखते हुए पर्याप्त है.

शहर में पानी 5 रुपये प्रति 1000 लीटर के रियायती दर पर दिया जाता है जो शहर के संभ्रांत लोगोंं के लिए महंगा नही है, इसी कारण शहर में पानी के वितरण में समानता नहीं है. इसी रियायती दर का फायदा शहर के संभ्रांत इलाकों में रहने वाले लोगों को मिलता है.

दक्षिण मुंबई के गीता नगर में एक घर.

उन्हें हर रोज प्रति व्यक्ति 240 लीटर पानी मिल जाता है. दूसरी तरफ बस्तियों में रहने वाले नागरिकों को पानी के लिए 40 से 120 गुना ज्यादा दाम देने पड़ते है. झुग्गी-झोपड़ी वालों को यह पानी कई बार अनधिकृत स्रोतों से लेना पड़ता है.

1995 में बॉम्बे ‘मुंबई’ बन गया और अधिक लोगों को शहर में प्रवास करने से रोकने के लिए, राज्य ने सर्कुलर जारी कर कहा कि 1995 के बाद अनधिकृत संरचनाओं में रहने वालों को पानी की आपूर्ति नहीं की जानी चाहिए.

गीता नगर के रहवासी एक अनजान पानी के स्रोत में कपड़े धोते हुए.

1995 में बॉम्बे ‘मुंबई’ बन गया और शहर में अधिक से अधिक लोगों को आने से रोकने के लिए राज्य सरकार ने सर्कुलर जारी कर कहा कि साल 1995 के बाद अनधिकृत कॉलोनियों/बस्तियों में रहने वालों को पानी की आपूर्ति नहीं की जानी चाहिए.

महामारी के दौरान सोशल डिस्टेंस का भी ध्यान रखना पड़ता है, ऐसे में पानी लेने में बहुत समय लगता है और कई बार झगड़े भी होते है.

इस अमानवीय नीति को पानी हक़ समिति (जो नागरिकों और नागरिक संगठनों का एक सामूहिक अभियान है) ने उच्च न्यायालय में चुनौती दी थी.

15 दिसंबर 2014 को मुंबई हाईकोर्ट ने महानगरपालिका के खिलाफ निर्णय सुनाया था, जिसमें कोर्ट ने पानी के अधिकार को जीवन के अधिकार के साथ जोड़कर देखने की बात कही थी. कोर्ट के निर्णय के चलते ढेरों और परिवारों को पानी का कनेक्शन पाने के लिए पात्र बना दिया क्योंकि अदालत ने अब ‘अधिसूचित’ झुग्गियों की कट-ऑफ तारीख जनवरी 1995 से बदलकर जनवरी 2000 कर दी.

सिद्धार्थ नगर की एक रहवासी अपने परिवार के लिए पानी का 20 लीटर का कैन ले जाते हुए. यह पानी उनके परिवार की जरूरतों का आधा है.

इस निर्णय के बावजूद झोपड़पट्टीवासियों के लिए पीने के पानी का कनेक्शन मिलना अब भी बहुत मुश्किल है. पानी के कनेक्शन पाने के लिए आवश्यक दस्तावेजों की लंबी लिस्ट है, जिसमें मकान/जमीन मालिक से मिला अनापत्ति प्रमाणपत्र, कॉरपोरेटर से मिला करैक्टर सर्टिफिकेट, 2000 से पहले बसे होने का निवास प्रमाणपत्र तो शामिल हैं ही, साथ ही पहाड़ जैसी नौकरशाही प्रक्रिया इसकी जटिलता बढ़ाती है. और तो और शर्त यह भी है कि कनेक्शन के लिए एक आवेदन पांच परिवारों द्वारा संयुक्त रूप से किया जाना चाहिए.

जय मती, अंधेरी (पश्चिम) के सिद्धार्थ नगर में रहते हैं और पेशे से दर्ज़ी हैं. बीते कई सालों से उन्होंने अपनी बस्ती में पानी लाने के लिए Dथक प्रयत्न किए. इस तस्वीर में वे इसके लिए नगरपालिका से किया गया पत्र व्यवहार दिखा रहे हैं. हालांकि अब तक सिद्धार्थ नगर में पानी का वैध कनेक्शन नहीं पहुंचा है.

पानी हक़ समिति की एक हालिया रिपोर्ट के अनुसार, मुंबई में रहने वाले 20 लाख लोगोंं के पास अब भी पीने के पानी का कोई लीगल कनेक्शन नहीं है.

इन रहवासियों में अधिकतर वे हैं, जिन्हें अपने गांव में सूखा, गरीबी, और उपजाऊ जमीन के अभाव के कारण मुंबई की ओर पलायन करना पड़ता है. इन्हें मुंबई में अनौपचारिक क्षेत्र में जैसे – निर्माण काम, फेरी, टैक्सी या ऑटोरिक्शा ड्राइवर, घरेलू कामगार इत्यादि रोजगार मिल जाते हैं.

कई अनधिकृत बस्तियों (जिनमें से आधे कानून के तहत अधिसूचित नहीं हैं) में अधिकांश परिवारों को अपनी जरूरतों के लिए प्रतिदिन 50 लीटर से कम पानी मिलता है. यह विश्व स्वास्थ्य संगठन द्वारा बताई गई अनिवार्य न्यूनतम मात्रा से कम है.

लेकिन ऐसी दुनिया जहां बुनियादी सुविधाएं जुटाने के लिए भी ‘पैसा बोलता है’ की जुगत लगानी पड़ती है, वहां ऐसे प्रवासी कामगार अपने लिए इन सुविधाओं को हासिल नहीं कर पाते हैं. जहां पानी का न मिलना जीवन की गुणवत्ता को कम करता है, वहीं पानी की निर्बाध सप्लाई आजीविका, शिक्षा और स्वास्थ्य तक पहुंच सुनिश्चित कर देती है.

आनंद (परिवर्तित नाम) घर नहीं है. उसे अपना निशुल्क स्कूल भी छोड़ना पड़ा क्योंकि उसे दिन के कई घंटे पानी भरने में गुजारने पड़ते हैं. तस्वीर में आनंद बोरीविली के एक नाले के पास में हो रहे लीकेज से पानी भरते हुए.

शहर के पानी का 27-35% रिसाव, खराब मीटर और अवैध कनेक्शन जैसे कारणों से बेकार हो जाता है. इसी के चलते महानगरपालिका को सालाना 400 करोड़ रुपये का नुकसान उठाना पड़ता है.

2020 में महामारी आने के साथ पानी की सुविधा न होने से बड़ी जनसंख्या वाली शहर की घनी बस्तियां कोविड-19 संक्रमण के प्रसार के लिए मुफीद जगह बन गईं. शहर की ऐसी बस्तियां, जहां पानी के कनेक्शन नहीं थे, उन्हें इस महामारी के दौरान कोई विशेष सुविधाएं  नहीं दी गईं.

घर में पानी लाने का ज़िम्मा अक्सर महिलाओं पर होता है. तस्वीर में लोअर परेल की एक महिला पानी ले जाने का इंतजाम करते हुए.

सामाजिक कार्यकर्ता और पानी हक़ समिति के संयोजक सीताराम शेलार ने हाईकोर्ट में 33 ऐसी अनधिकृत बस्तियों की लिए मानवीय आधार पर पानी की सुविधा देने के लिए अपील की है, इसके बावजूद महानगरपालिका ऐसी किसी सुविधा को लेकर अब तक विचार नहीं किया है.

सूरज कतरा मुंबई में रहने वाले स्वतंत्र फोटोग्राफर हैं.

(श्वेता तांबे-दामले द्वारा अंग्रेज़ी से अनूदित.)

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