हम गांधी के लायक कब होंगे?

गांधी गाय को माता मानते हुए भी उसकी रक्षा के लिए इंसान को मारने से इनकार करते हैं. उनके ही देश में गोरक्षकों ने पीट-पीट कर मारने का आंदोलन चला रखा है.

//

गांधी गाय को माता मानते हुए भी उसकी रक्षा के लिए इंसान को मारने से इनकार करते हैं. उनके ही देश में गोरक्षकों ने पीट-पीट कर मारने का आंदोलन चला रखा है.

Mahatma Gandhi HD Wallpapers

वर्ष 1935 में जब एक अमेरिकी अधिकारी ने डॉ. भीमराव आंबेडकर के समक्ष गांधीवाद की प्रशंसा की तो आंबेडकर ने कहा, ‘तुम या तो ढोंगी हो या पागल. अगर गांधीवाद आदर्श है तो तुम अमेरिकी लोगों को अपनी सेना और नौसेना हटा लेने के लिए क्यों नहीं कहते.’

आज निजी और राष्ट्रीय हिंसा के बीच झूल रहे 21वीं सदी के इस विश्व की नज़र में गांधी महज़ पूजने लायक संत या एक ढोंगी हैं. क्योंकि जब पाबंदी के बावजूद नाभिकीय हथियार बना चुका उत्तरी कोरिया का तानाशाह किम जोंग अमेरिका को बर्बाद करने की धमकी देता है या नाभिकीय शक्ति संपन्न लोकतांत्रिक देश अमेरिका के राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप उत्तर कोरिया को तबाह करने की चेतावनी देते हैं, तो रोमांचित दुनिया उसी में अपनी समस्या का समाधान देखती है.

यही संवाद हम डोकलाम विवाद के दौरान भारत और चीन के मीडिया संवाद में सुन चुके हैं और रोज़ाना स्टूडियो में युद्ध लड़कर जीत भी चुके हैं. पाकिस्तान के साथ तो यह सिलसिला सत्तर सालों से जारी है.

लोग हिंसा, प्रतिहिंसा और पाबंदी के अलावा शांति की भाषा में यकीन नहीं करते. हर जगह एक-दूसरे को भड़काने या दबाने की होड़ है. यह बात फेसबुक, ट्विटर, इंस्टाग्राम से लेकर टेलीविजन और अख़बार तक सभी संचार माध्यमों में रोजाना नहीं हर क्षण प्रमाणित होती है.

उन्हें सुनकर और देखकर यही लगता है कि या तो हम गांधी के लायक अभी हुए नहीं हैं या गांधी हमारे लायक नहीं थे. गांधी ने जिस उद्देश्य को लेकर भारत की आज़ादी की लड़ाई लड़ी थी उसके करीब दुनिया तो नहीं ही है लेकिन भारत भी उससे दूर है. 21वीं सदी के भारतीय राज्य ने गांधी के सत्य और अहिंसा जैसे बड़े आदर्शों पर चलने की अपनी सामर्थ्य समझ करके ही स्वच्छता जैसे बुनियादी कार्यक्रम को पकड़ा है.

स्वच्छता से सेवा का यह कार्यक्रम गांधी जयंती का आदर्श है और चंपारण सत्याग्रह के 100 वर्ष होने पर भी सरकार की तरफ से जो स्मृति चिह्न बांटा गया उसमें गांधी को झाड़ू के साथ दिखाया गया है. लेकिन विडंबना देखिए कि स्वच्छता अभियान को तेज़ी से लागू करने की जल्दबाजी में मानवीय गरिमा को भुलाकर खुले में शौच करने वालों को अपमानित और दंडित किया जा रहा है.

यह अभियान गोरक्षा की तरह ही हिंसा और प्रताड़ना के हथियार का सहारा ले रहा है और एक बार फिर गांधी का नाम लेकर उन्हें अपमानित कर रहा है.

जो गांधी गाय को माता मानते हुए भी उसकी रक्षा के लिए इंसान को मारने से इंकार करते हैं उन्हीं के देश में गोरक्षकों ने सार्वजनिक रूप से पीट-पीट कर मारने का आंदोलन चला रखा है. गांधी जिस घृणा और भय से रहित स्वाधीनता के लिए जिए और मरे उसी नफरत और डर का घर से बाहर तक, देश से परदेस तक बोलबाला है.

संयोग देखिए कि जिस समय म्यांमार के बौद्ध मंदिर में हमारे प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी प्रार्थना कर रहे थे उसी वक़्त वहां के रखाइन प्रांत में प्रज्ञा और करुणा के बौद्ध धर्म को मानने वाले सैनिक इस्लाम को मानने वाले रोहिंग्या समुदाय का कत्लेआम करके उन्हें देश छोड़ने को मजबूर कर रहे थे. लगभग उसी समय बेंगलुरु में अपनी आक्रामक भाषा के लिए महिला पत्रकार गौरी लंकेश को गोली मारी जा रही थी.

गांधी के आदर्शों को वामपंथी और दक्षिणपंथी दोनों प्रकार की हिंसा घायल कर रही है. गांधी के देश में माओवादी हिंसा जितना भय पैदा करती है उतना ही भय धर्म आधारित हिंसा. अगर देश के 70 से ज़्यादा ज़िले माओवादी हिंसा की चपेट में हैं तो बड़ा इलाका धर्म की राजनीति से आक्रांत हो रहा है. गांधी ने धर्म और राजनीति का पवित्र रिश्ता बनाया था तो आज उसके अपवित्र रिश्ते पूरी दुनिया में कायम हो गए हैं.

जब हम सभ्यताओं के टकराव के सिद्धांत में यकीन करने लगे हैं और विरोध व आलोचना को कुतर्क और ज़ज़्बात के शिखर पर तत्काल पहुंचाने में आस्था रखते हैं तब यह गौर करने लायक है कि गांधी अपने विरोधियों और आलोचकों से किस तरह का व्यवहार करते थे.

इस बारे में उनके एक यूरोपीय आलोचक सेरेजाल को उद्धृत करते हुए रोमां रोला लिखते हैं, ‘मैं चाहे जितनी कोशिश क्यों न करूं वे अपनी रक्षा स्वयं कर लेंगे. वे एक बहुत बड़े अजगर के समान हैं. अपना मुंह उन्होंने हां करके फैला रखा है. उसी हां में सब कुछ को जाना पड़ेगा. वे सबकी बातों को मनोयोग से सुनते हैं फिर विरोधियों का मन जीत लेते हैं.’

हालांकि अंग्रेज़ों को प्रभावित करने वाले गांधी अपना यह जादुई प्रभाव दो लोगों पर नहीं डाल सके. एक जिन्ना और दूसरे डॉ. आंबेडकर पर. जब कुछ विद्वान गांधी को एक असंभव संभावना कहते हैं तो यही लगता है कि न तो उतना साधारण व्यक्ति हुआ और न ही उतना असाधारण.

1931 के अंत में जब गांधी रोम से चले गए तो वहां भीड़ में खड़ी मादाम मोरिन लोगों की टिप्पणियां सुन रही थीं. लोग कह रहे थे, ‘एक दैवीय घटना है ईसा मसीह नया शरीर लेकर आए हैं.’

गांधी ऐसे युग में हुए जब एक तरफ यूरोप अपनी उपनिवेशवादी सत्ता और समृद्धि के दर्प के साथ हिंसा में चूर था तो दूसरी तरफ उसके विवेकशील लोग युद्ध की विभीषिका से कांप रहे थे.

गांधी दो विश्वयुद्धों के बीच खड़े होकर अहिंसा की पताका फहरा रहे थे. इसीलिए यूरोप उनकी तरफ उम्मीदों से देखते हुए कह रहा था, ‘गांधी का आविर्भाव संसार के एक निकृष्ट युग में हुआ है. वे ऐसे समय में आए जब जिस थोड़ी सी नीति ने पश्चिमी सभ्यता को बनाए रखा था वह भी नष्ट हो चुकी है. यूरोप के पांव डगमगा रहे हैं.’(रोमां रोला).

जबकि गांधी यूरोप से अपना मुक्ति संग्राम लड़ते हुए भी घोषणा कर रहे थे, ‘हमारे संग्राम का लक्ष्य है समस्त संसार के लिए मैत्री की स्थापना. अहिंसा मनुष्य के पास बनी रहने के लिए आई है. उसने विश्व शांति की घोषणा की है.’

सचमुच जब अपने-अपने साम्राज्य और राष्ट्र की रक्षा के लिए दुनिया तोप और टैंक लिए दौड़ रही थी, एटम बम चला रही थी, तब गांधी आत्मत्याग की तलवार चमका रहे थे.

आज की विडंबना देखिए कि कहीं आतंकवाद से लड़ने और राष्ट्र की रक्षा के लिए हथियार जमा किए जा रहे हैं तो कहीं जेहाद और आत्मरक्षा के लिए. हर कोई एक-दूसरे से भयभीत है और उसके भीतर बात करने का विश्वास तभी आता है जब उसके हाथ में हथियार होता है या पीछे सेना खड़ी होती है.

हर बात को मनवाने के लिए कड़े से कड़े कानून के निर्माण का सुझाव दिया जाता है और हिंसा का दायित्व अकेले न उठा पाने के कारण राज्य उन्हें कई तरह के समूहों और निजी सेनाओं में बांट रहा है.

वैश्वीकरण ने व्यापार को राष्ट्र की बंदिशों से मुक्त कराकर समृद्धि लाने का जो स्वप्न दिखाया था उसके चलते नई संचार प्रौद्योगिकी के विकास जैसे कुछ अच्छे कामों की आड़ में धरती की संपदा और गरीबों के श्रम की लूटपाट हुई.

पोस्ट ट्रुथ के रूप में झूठ और हिंसा का दौर आरंभ हुआ. आतंकवाद जन्मा और 20वीं सदी की तरह नए सिरे से युद्ध शुरू हो गए. शांति और समृद्धि की तमाम घोषणाओं को विफल होते देख राष्ट्रवाद अपने संकीर्ण रूप में उपस्थित होने लगा.

राष्ट्रवाद ने वैश्वीकरण को बचाने के लिए और भी क्रूर रूप धारण कर लिया है. वह वैश्वीकरण की कमज़ोरियों को देशप्रेम से ढक रहा है और अपनी कमज़ोरियों को वैश्वीकरण से. हम फिर मैत्री, अहिंसा और विश्व शांति से दूर जाने लगे.

अंतरधार्मिक संवाद टूट गए हैं और अंतरजातीय टकराव बढ़ गए हैं. दार्शनिक फ्रांसिस फुकुयामा फ्रांसीसी ‘एंड आफ हिस्ट्री’ में क्रांति के स्वतंत्रता, समता और बंधुत्व के जिन मूल्यों को नए संदर्भ में दुनिया भर के लिए प्रासंगिक बता रहे थे वे धुंधले होने लगे.

सामाजिक लोकतंत्र और विश्व सरकार के सपने बिखरने लगे. व्यक्तिगत आज़ादी और राज्य के दायित्व के बीच टकराव होने लगा. बड़ी पूंजी के लिए आज़ादी और छोटी पूंजी के लिए जंजीरें गढ़ी जाने लगीं.

ऐसे में राज्य की शक्तियों को सीमित करने, युद्ध और आतंकवाद को समाप्त करने, व्यक्ति की अहमियत को बढ़ाने और आत्मसंयम के माध्यम से उसे ज़िम्मेदार बनाने वाले गांधी याद आने लगे हैं.

20वीं सदी के गांधी एशिया के लिए आए थे लेकिन यूरोप को बहुत कुछ सिखा कर गए. 21वीं सदी के गांधी अगर अमेरिका और यूरोप के लिए आएंगे तो वे पूरी दुनिया का दोहन रोक कर उसे शांति देकर जाएंगे.

गांधी एक असंभव संभावना हैं उनके चमत्कार जिन्हें ढोंग या पाखंड लगें वे चंपारण का स्मरण करके और सेवाग्राम (वर्धा) की बापू कुटीर देखकर उनके सत्य और अहिंसा की इंसानी ताकत का अनुमान लगा सकते हैं.

जिस अजेय ब्रिटिश साम्राज्य को पत्थरों से बनी मजबूत दीवारों वाले किलों से नहीं हराया जा सका उसे मिट्टी की भीत और खपरैल की छत वाली कुटी की ठोकरों से ध्वस्त होना पड़ा.

इसलिए हमें अपने कुटीरों में सोए गांधीवादियों और उद्योगों व खेतों में काम कर रहे व फुटपाथ पर सोए उनके अंतिम जनों को जगाना होगा, कुजात गांधीवादियों को आगे लाना होगा और तमाम आधुनिक उपकरणों के बावजूद गांधी के लायक बनना पड़ेगा, क्योंकि उसके बिना हमारी सभ्यता का भविष्य नहीं है.

(लेखक स्वतंत्र पत्रकार हैं)

pkv games bandarqq dominoqq pkv games parlay judi bola bandarqq pkv games slot77 poker qq dominoqq slot depo 5k slot depo 10k bonus new member judi bola euro ayahqq bandarqq poker qq pkv games poker qq dominoqq bandarqq bandarqq dominoqq pkv games poker qq slot77 sakong pkv games bandarqq gaple dominoqq slot77 slot depo 5k pkv games bandarqq dominoqq depo 25 bonus 25