इस बहुरंगी देश को इकरंगी बनाने की क़वायदें अब गणतांत्रिक प्रतीकों व विरासतों को नष्ट करने के ऐसे अपराध में बदल गई हैं कि उन्हें इतिहास से बुरे सलूक की हमारी पुरानी आदत से जोड़कर भी दरकिनार नहीं किया जा सकता.
‘26 जनवरी, 1950 को हम अंतर्विरोधपूर्ण जीवन में प्रवेश कर रहे होंगे. राजनीति में हमारे यहां समता होगी और सामाजिक व आर्थिक जीवन में असमानता. राजनीति में हम एक व्यक्ति, एक वोट और एक वोट, एक मूल्य के सिद्धांत को मान्यता दे रहे होंगे, लेकिन सामाजिक तथा आर्थिक जीवन में, अपने सामाजिक तथा आर्थिक ढांचे के चलते, ‘एक व्यक्ति, एक मूल्य’ के सिद्धांत को नकारना जारी रखेंगे. अंतर्विरोधों का यह जीवन हम कब तक जीते रहेंगे?’
अपने जिस संविधान के शासन का हम इन दिनों एक और उत्सव मना रहे हैं, देश के सत्ताधीशों को उससे जुड़े बाबासाहेब डाॅ. भीमराव आंबेडकर के इस सवाल और साथ ही समता, स्वतंत्रता और न्याय पर आधारित संपूर्ण प्रभुत्वसंपन्न, समाजवादी, पंथनिरपेक्ष व लोकतंत्रात्मक गणराज्य बनाने के संकल्प की ओर पीठ किए कई दशक बीत गए हैं.
इसके चलते लगातार बढ़ रही असमानता अब अपनी कोई सीमा नहीं मान रही. ऑक्सफेम इंडिया की रिपोर्ट के अनुसार, बीते साल देश में जहां अरबपतियों की संख्या खासी तेजी से बढ़ी और कोरोना की आपदा भी उनकी संपत्ति दोगुनी होने से नहीं रोक पाई, वहीं गरीबों की सिर्फ संख्या बढ़ी- इस एक साल में वे दोगुने हो गए!
क्या आश्चर्य कि ‘विश्व असमानता रिपोर्ट-2022‘ के अनुसार भी देश दुनिया के गैरबराबरी से सर्वाधिक पीड़ित देशों में शामिल है. गत वर्ष ही उसकी एक फीसदी आबादी के पास राष्ट्रीय आय का 22 फीसदी हिस्सा संकेंद्रित हो गया था, जबकि निचले तबके के 50 फीसदी लोगों के पास महज 13 फीसदी हिस्सा बचा था.
इससे पहले ‘द इकोनॉमिस्ट इंटेलिजेंस यूनिट’ की ‘डेमोक्रेसी इन सिकनेस एंड इन हेल्थ’ रिपोर्ट में देश के लोकतंत्र को लंगड़ा करार दिया गया था, जबकि अमेरिकी ‘फ्रीडम हाउस’ की सालाना वैश्विक स्वतंत्रता रिपोर्ट में उसकी आजादी को आंशिक.
लेकिन लगता है, वर्तमान सत्ताधीश इतने पर भी संतुष्ट नहीं हैं और देश को उसके गणतंत्र को प्रतीकात्मक बहुलता से भी महरूम करना चाहते हैं. उसके गणतंत्र के प्रतीकों से उनका सलूक तो कुछ ऐसा ही कहता है.
हां, राजधानी दिल्ली के इंडिया गेट पर पिछली आधी सदी के जलती आ रही अमर जवान ज्योति को बुझा या उनकी ही भाषा में कहें तो राष्ट्रीय युद्ध स्मारक की ज्योति में विलीन कर दिए जाने के बाद इस बाबत रहे-सहे संदेह भी दूर हो गए हैं कि वे इस बहुलता को नष्ट करने के लिए किस तरह दिन रात एक किए हुए हैं!
‘एक देश, एक विधान, एक निशान’ के अपने भटकाऊ नारे को किस तरह ‘एक देश, एक चुनाव’ जैसे निरंतर आह्वानों के रास्ते ‘एक देश, एक ही ज्योति’ तक ले आए हैं.
यहां नई पीढ़ी को बताना जरूरी है कि अमर जवान ज्योति 1971 के दिसंबर में उसी साल भारत-पाक युद्ध में शहीद 3,483 सैनिकों के सम्मान में जलाई गई थी. इन सैनिकों ने अपने बलिदान से पाकिस्तान को दो हिस्सों में बांट दिया और बांग्लादेश नामक नए देश के उदय के साथ बंटवारे के बाद का दक्षिण एशिया का नया नक्शा बनाया था.
26 जनवरी, 1972 को तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने इस ज्योति का उद्घाटन किया था और तभी से वह हमारी राष्ट्रीय चेतना का हिस्सा बनी हुई थी. शायद यही वह बात थी जो सत्ताधीशों को गवारा नहीं थी.
इसीलिए उन्होंने उसे बुझाते हुए यह तक याद नहीं रखा कि यह उस बांग्लादेश की आजादी का 50वां वर्ष भी है. फिर वे इसी सवाल का जवाब भी क्योंकर गवारा कर सकते हैं कि देश अपने शहीदों के सम्मान में दो अलग-अलग जगहों पर दो ज्योतियां क्यों नहीं जलाए रख सकता?
साफ कहें तो इस बहुरंगी देश को इकरंगी व इकहरा बनाने की उनकी कवायदें अब गणतांत्रिक प्रतीकों व विरासतों को नष्ट करने के ऐसे अपराध में बदल गई हैं कि उन्हें इतिहास से बुरे सलूक की हमारी पुरानी आदत से जोड़कर भी दरकिनार नहीं किया जा सकता.
सेंट्रल विस्टा के नाम पर ऐतिहासिक राष्ट्रीय संग्रहालय, राष्ट्रीय अभिलेखागार, इंदिरा गांधी राष्ट्रीय कला केंद्र, उपराष्ट्रपति निवास, शास्त्री भवन, कृषि भवन, विज्ञान भवन, नेहरू भवन, विज्ञान भवन रक्षा भवन और उद्योग भवन वगैरह के अस्तित्व से खेलने के बाद उन्हें गणतंत्र दिवस परेड में गैरभाजपा शासित राज्यों की वे झांकियां तक कुबूल नहीं हैं, जो उनकी मतांधता को रास नहीं आती.
गणतंत्र दिवस के समापन समारोह ‘बीटिंग रिट्रीट’ में महात्मा गांधी के पसंदीदा भजन ‘अबाइड विद मी’ की धुन भी नहीं. उनमें से कई को इस भजन से ईसाइयत की बू आती है और यह बताए जाने से भी कोई फर्क नहीं पड़ता कि इसको 1847 में स्कॉटिश एंग्लिकन कवि और भजनविज्ञानी हेनरी फ्रांसिस लिटे ने रचा था और यह 1950 से बीटिंग रिट्रीट समारोह का हिस्सा रहा है.
जानकारों के अनुसार यह भजन दुनिया में उसी तरह लोकप्रिय है, जैसे भारत में ‘रघुपति राघव राजा राम.’ सत्ताधीशों ने पहले इसकी धुन को बीटिंग रिट्रीट से हटाया तो व्यापक आलोचनाओं के बाद भूल सुधार कर लिया था. लेकिन अब सिद्ध कर रहे हें कि वह भूल नहीं थी.
दरअसल, तब तक जगहंसाई के प्रति उनकी चमड़ी आज जितनी मोटी नहीं हुई थी. लेकिन अब शातिराना ऐसा है कि उन्होंने बीटिंग रिट्रीट के समापन के लिए ‘सारे जहां से अच्छा’ को इस धुन का विकल्प बना दिया है, ताकि उसके विरोध की धार को अंतर्विरोधों के हवाले करके कुंद किया जा सके.
फिर भी एक व्यंग्यकार ने तंज करते हुए लिखा है कि गनीमत है कि सरकार ने इस धुन को राष्ट्रविरोधी घोषित कर सार्वजनिक जगहों व घरों पर इसके बजाने पर रोक नहीं लगाई.
गणतंत्र दिवस की परेड में जनगण का मन और मूल्य एकदम से न रह जाएं, इसके सारे प्रबंध तो उसने उसे कोरोना की पाबंदियों और सरकारी भव्यता के हवाले करके पहले ही कर डाले हैं. बात को राष्ट्रीय जनता दल के सांसद मनोज कुमार झा के इस तंज तक ले जाएं, तो सत्ताधीशों की मंशा भी सामने आ जाती है और मजबूरी भी.
उन्होंने कहा, ‘मैं मानता हूं कि हिंदुस्तान के गौरवशाली इतिहास में आपका कोई योगदान नहीं रहा, इसकी वजह से आपको एहसास-ए-कमतरी भी होता होगा, मगर इसका मतलब ये तो नहीं कि 50 वर्ष से जो लौ जल रही थी, उसको बुझा दें! ऐसी सलाह आपको कौन देता है? आप कौन-सी परंपराएं छोड़ के जा रहे हैं, इतिहास कैसे आपको स्मरण करेगा? समकालीनों की बात मत करें, वो ताली बजा देंगे, लेकिन इतिहास ताली नहीं बजाएगा.’
यकीनन, इसे सत्ताधीशों की मजबूरी के तौर भी देखा जाएगा कि भले ही उनके पुरखों ने देशवासियों पर ब्रिटिश उपनिवेशवादी अत्याचारों के खिलाफ कोई लड़ाई नहीं लड़ी, उनमें से कई को अमर जवान ज्योति बुझाने के लिए इस तर्क (पढ़िए कुतर्क) की आड़ लेनी पड़ती है कि इंडिया गेट 1931 में अंग्रेजों द्वारा उन भारतीय सैनिकों की याद में बनाया गया था, जो ब्रिटिश शासनकाल में उनकी सेना के साथ जंग लड़ते हुए मारे गए थे और वहां अमर जवान ज्योति 1971 व दूसरे युद्धों के शहीदों को श्रद्धांजलि देने के लिए लगी थी, मगर वहां किसी शहीद का नाम नहीं लिखा था.
जबकि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी द्वारा 25 फरवरी, 2019 को उद्घाटित राष्ट्रीय युद्ध स्मारक आजादी के आंदोलन या देश की सुरक्षा के लिए हुए युद्धों के सारे शहीदों को समर्पित है और वहां सारे शहीदों के नाम भी लिखे हैं.
इस कुतर्क को कान दें तो बीटिंग रिट्रीट भी ब्रिटेन की पुरानी परंपरा ही है! फिर? क्या सत्ताधीश इतिहास से बदला लेने के लिए एक दिन उसे बंद करने और इंडिया गेट को हटाने या ढहाने की भी सोचने लगेंगे?
उनका अतीत इस सवाल का जवाब नहीं में देने की इजाजत नहीं देता. हां, वे जब भी ऐसा सोचें, दो नतीजे होंगे. पहला: देश की कोई भी ऐतिहासिक धरोहर उन्हें ‘जैसी है, जहां है’, वैसी और वहीं रहने देने लायक नजर नहीं आएगी. दूसरा: तालिबान द्वारा बामियान में बुद्ध की मूर्तियों को तोड़ने जैसे कृत्य औचित्य प्राप्त कर लेंगे.
वक्त आ गया है कि देशवासी तय कर लें, इन नतीजों से पहले उन्हें क्या करना है?
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं.)