मानव समाज के 3400 सालों के लिखित इतिहास में केवल 268 साल शांति वाले रहे हैं यानी इस धरती ने बस आठ प्रतिशत समय शांति के साथ गुज़ारा है.
अमेरिका के मेसक्विट शहर के स्टीफन पेडोक ने लास वेगास में अंधाधुंध गोलियां चलाईं. तत्काल 59 लोग मर गए. फिर खुद को भी खतम कर दिया. होटल में उनके कमरे से 10 बड़े हथियार मिले. जब घर की तलाशी ली गई तो वहां 19 हथियार मिले.
कहा जा रहा है कि वह आतंकवादी नहीं था. उसे कोई मनोरोग था. जरा सोचिये कि वहां वालमार्ट के सुपरस्टोर पर भी बंदूक खरीदी जा सकती है. पुरानी बंदूक तो किसी भी सामान्य गिरवी की दुकान पर मिल सकती है. हमारी राज्य व्यवस्था को यह समझ ही नहीं आ रहा है कि वह कितनी तेज गति से आत्मघात की तरफ बढ़ रही है?
छोटे हथियारों पर हुए एक सर्वेक्षण के मुताबिक वर्ष 2016 की स्थिति में अमेरिका में प्रति 100 व्यक्तियों पर 112.6 बंदूकें थीं, यानी एक व्यक्ति के पास एक से ज्यादा बंदूकें! सर्बिया में 100 लोगों पर 75.6, यमन में 54.8, स्विट्जरलैंड में 45.7, सायप्रस में 36.4, सऊदी अरब में 35, इराक में 34.2, उरुग्वे में 31.8, स्वीडन में 31.6, फ्रांस में 31.2 और नार्वे में 31.3 बंदूकें हैं.
सबसे कम अनुपात ट्यूनीशिया (0.1), तिमोर-लेस्टे (0.3), सोलोमन आईलैंड (0.4), घाना (0.4), इथोपिया (0.4) में है. ऐसा लगता है कि उपनिवेशवादी चरित्र और अकूत आर्थिक संपदा को हथियाने वाले देशों को बदूकों की ज्यादा जरूरत पड़ती है. आलम यह है कि हर देश उपनिवेशवादी और सिद्धांतविहीन विकास को अपना धर्म मानने लगा है और समाज उसे मान्यता देने लगे हैं.
कहां इस्तेमाल होता होगा इनका? क्यों जरूरत पड़ती है एक आम व्यक्ति को बंदूक की? वह अपनी आत्मा, अपने मन को कैसे इतना कठोर बनाता होगा कि वह बंदूक को अपने जीवन की बुनियादी जरूरत और सामान मान ले?
क्या बंदूक रखने की इच्छा होना ही, हमारे चरित्र और मानसिकता के हिंसक होने का सूचक नहीं है? क्या हथियार ही शक्ति देते हैं? यदि हां, तो फिर हमें दुनिया से सभी धर्मों और आध्यात्मिक सिद्धांतों के खत्म हो जाने की घोषणा कर देना चाहिए!
अमेरिका में कानून है कि कोई भी पिस्टल या हथियार रख सकता है. यह एक अधिकार है. बहरहाल राष्ट्रपति चुनावों में हथियार उत्पादक सबसे ज्यादा चंदा देते हैं. अभी के राष्ट्रपति ट्रंप ने कहा कि लास वेगास की घटना ‘शैतान का कृत्य’ है, पर उन्होंने हथियारों की खुलेआम बिक्री और हथियार रखने की आसान प्रक्रिया पर अब भी नहीं कहा है कि वे हथियार रखने का अधिकार देने वाले कानून को बदलेंगे.
थोड़ी हिम्मत करके सोचिये कि जिस तरह से दुनिया में हथियारों के प्रति प्रेम उमड़ रहा है, उसे देखते हुए क्या शांति की कल्पना की जा सकती है? म्यांमार में सरकार-सेना ने वहां आठ सौ साल से बसे रोहिंग्या समुदाय के बारे में जिस तरह की नीति अपनाई है, उससे उन्हें शरण के लिए यहां वहां दौडना पड़ रहा है.
भारत भी उन्हें शरण नहीं दे रहा है. जब हथियार ताकत के पैमाने बन जाते हैं, तब इंसानियत और प्रेम अपना वजूद खो देते हैं. तीन चौथाई दुनिया में आतंक-हिंसा-युद्ध छाया हुआ है. हम मानते हैं कि नए हथियारों और ज्यादा मार करने वाली मिसाइलों से हम हिंसा को मिटा लेंगे, पर वास्तव में हिंसा तो मानसिक रोग है. इसे दबाया नहीं जा सकता है. इसके विषाणु यहीं-कहीं-वहीं बने रहते हैं और मौका मिलते ही सक्रिय हो जाते हैं. उत्तर कोरिया आज दुनिया को बर्बादी की कगार पर ले आया है. उसकी ताकत भी हथियार ही हैं.
बात बस इतनी सी है कि भारत-अमेरिका-रूस-चीन-ब्रिटेन-फ्रांस सरीखे देश उस जमात में शामिल है जो गांधी की बात करते हुए, हथियारों का उत्पादन बढ़ा कर दुनिया में अहिंसा का सिद्धांत लागू करना चाहते हैं. सच तो यह है कि हथियारों का व्यापार बहुत प्रभावशाली है.
अब समाज को हथियार चलने और खून बहते देख कर अच्छा लगने लगा है. जब खून बहता है, तो उसे विजय का अहसास होता है. हमारे शक्तिसंपन्न देश अपने मन की हिंसा हो राजनीति का आधार बना रहे हैं. यह बहुत संकट का समय है. हमें युद्ध का खेल खेलने वाले खिलाड़ियों को पहचानना होगा और उन्हें बेनकाब करना होगा.
अगर दुनिया में शांति स्थापित हो जाए और युद्धों को बंद कर दिया जाए, तो पांच साल में जितना धन बचेगा, उससे पूरी दुनिया की आर्थिक गरीबी मिटाई जा सकती है. हर व्यक्ति को स्वास्थ्य सेवाएं दी जा सकती हैं. सुकून और संगीत की बयार बह सकती है, तनाव मिटाया जा सकता है.
लोगों को जानलेवा तरीके से अपना देश छोड़कर किसी दूसरे देश में शरणार्थी नहीं बनना होगा, यौन कुंठित सेनाओं के लिए औरतों की तस्करी बंद हो सकेगी और जान बचाने की जद्दोजहद में बच्चे समुद्र में डूब कर नहीं मरेंगे और 4.80 अरब रुपये का आर्थिक बोझ दुनिया पर से घट जाएगा.
इसके लिए एक देश को दूसरे देश की सीमा रेखा में घुसने की टुच्ची हरकत बंद करना होगी. एक धर्म को दूसरे धर्म को खत्म कर डालने के लक्ष्य की तिलांजलि देना होगी. कुदरत के साथ जीवन बिताने की क्षमता विकसित करना होगी. हम सबको एक दूसरे की, समाज की, गीतों की, वस्त्रों की, जीवन शैली और रहन सहन की और संस्कृतियों की विविधता को स्वीकार करने का सलीका विकसित करना होगा. क्या ये विकास के सूचक हो सकते हैं?
जी, मैं भी सपना देख रहा हूं! शायद यह सपना सब देखने लगें. एक दिन तो आएगा, जब सरकारों और व्यापारियों को युद्ध का व्यापार करने और हथियार का बाजार सजाने के काम से घिन आएगी.
आज विकास को सकल घरेलू उत्पाद से नापा जाता है. इसका मतलब है कि यदि हथियारों की बिक्री बढ़ेगी तो सकल घरेलू उत्पाद भी बढ़ेगा. अच्छे समाज की स्थापना के लिए तो हमें हथियारों का बाजार बंद करना होगा. यदि ऐसा किया जाता है तो आर्थिक विकास पर गहरा असर पड़ेगा. यदि हम अपनी विकास की परिभाषा और सूचक बदलने को तैयार होंगे, तब ही शांति का लक्ष्य हासिल किया जा सकेगा.
विकास का पैमाना युद्धों का खात्मा क्यों नहीं है? न्यूयार्क टाइम्स में क्रिस हेड्गेस ने अपने एक आलेख में बहुत जबरदस्त तथ्य सामने रखा. उनके मुताबिक मानव समाज के 3400 सालों के लिखित इतिहास में केवल 268 साल शांति वाले साल रहे हैं यानी इस धरती ने बस आठ प्रतिशत समय शांति के साथ गुजारा है.
यह माना जाता है कि इतिहास में हुए युद्धों और हिंसक संघर्षों में लगभग 34.17 करोड़ लोग मारे गए हैं. कुछ अनुमान इस संख्या को एक अरब बताते हैं. बहरहाल बीसवीं सदी में हुए सबसे ज्यादा रक्तरंजित युद्धों के कारण इन सौ सालों में 18.5 करोड़ लोगों के मारे जाने का अनुमान लगाया गया है. दूसरा विश्व युद्ध इतिहास का सबसे खतरनाक युद्ध माना जाता है. जिसमें 2 करोड़ लोगों की जानें गईं.
आज भारत दुनिया का सबसे बड़ा युद्ध सामग्री और हथियार आयात करने वाला देश है. दुनिया के आयात में यह 13 प्रतिशत हिस्सेदारी रख रहा है. स्टाकहोम इंटरनेशनल पीस रिसर्च इन्स्टीट्यूट के मुतबिक एक साल में हथियारों के सबसे बड़े 100 सौदागर लगभग 25,350 अरब रुपये के हथियारों का व्यापार करते हैं. इसमें से आधे से ज्यादा हथियारों का निर्यात अमेरिका और रूस करते हैं.
भारत लगभग 3,400 अरब रुपये के हथियार खरीदता है. जब इतने बड़े आर्थिक हित हों, तो शांति कैसे हासिल हो? यदि शांति हासिल कर ली तो खरबों रुपये का व्यापार बंद हो जाएगा और इस व्यापार के बंद होने का मतलब है सकल घरेलू उत्पाद में कमी! स्वाभाविक है कि कोई और धंधा इतना बड़ा बाज़ार तो देगा नहीं, शांति और संयम का बुनियादी असर होता है आर्थिक विकास की हिंसक दौड़ का रुकना, अपने को खुद से सवाल पूछना चाहिए कि क्या हम खुद भी शांति चाहते हैं?
पर इतिहास बताता है कई युद्धों से मानव कम ही सीखता है. वह अपने भीतर व्याप्त पाशविकता के छोटे से अंश से हार जाता है. मानव ने हमेशा हिंसा और रक्तपात को आवश्यक और न्यायोचित साबित करने का जतन किया है. इसके लिए सदैव धर्म को माध्यम बनाया गया.
ग्लोबल पीस इंडेक्स (2017) की रिपोर्ट हमें बताती है कि मानवता के सबसे खिलाफ मानव ही है. सियासत और संयुक्त राष्ट्र सरीखे मंचों पर गरीबी, भुखमरी, गैर बराबरी, शोषण को खतम करने के वायदे किये जाते हैं. किन्तु अगले ही क्षण सभी देशों की सरकारें मंच से उतर कर युद्ध की योजना बनाने में जुट जाती हैं.
वैश्विक बाज़ार से लेकर देशज राजनीति तक, कोशिश यही है कि लोग डरे रहें, कमजोर बने रहे ताकि सवाल न पूछें और शासक की निरंकुशता के खिलाफ खड़े न हों पायें. जरा अंदाजा लगाईये कि वर्ष 2016 में दुनिया में घटी हिंसक घटनाओं-युद्धों की लागत 14.3 ट्रिलियन डालर (949000 अरब रुपये) रही. यह पूरी दुनिया के सकल घरेलू उत्पाद का 12.6 प्रतिशत हिस्सा रहा. एक मायने में युद्धों पर प्रति व्यक्ति 1,953 डॉलर (1.30 लाख रुपये) औसतन खर्च आया.
दुनिया में हिंसा और अशांति के कारण जो राशि मानव कल्याण के लिए उपयोग में नहीं आ पायी, उसमें से लगभग 40 प्रतिशत (5.6 ट्रिलियन डॉलर) हिस्सा सेनाओं और सैन्य उपकरणों पर खर्च हुआ.
जिन 10 देशों में सबसे ज्यादा अशांत माहौल है, उन देशों के कुल सकल घरेलू का 37 प्रतिशत हिस्सा युद्धों और टकराव की भेंट चढ़ गया. सीरिया का 66.9 प्रतिशत, ईराक का 57.6 प्रतिशत, अफगानिस्तान का 52.1 प्रतिशत, कोलंबिया का 36.9 प्रतिशत, दक्षिण सूडान का 36.2 प्रतिशत, उत्तर कोरिया का 32.4 प्रतिशत सकल घरेलू उत्पाद अशांति की भेंट चढ़ रहा है. बाज़ार और अहंकार मिलकर मानव समाज और सभ्यता को गुलाम बनाए हुए हैं. क्या हिंसा इतनी आनंददायी होती है?
युद्ध का आर्थिक बोझ–किस देश पर कितना?
इक्कीसवीं सदी को शुरू हुए 17 साल बीत चुके हैं. इस अवधि में दुनिया में 54 युद्ध, आंतरिक टकराव और घरेलू युद्ध चलते रहे हैं. अब भी कई चल ही रहे हैं. युद्ध से हथियारों के व्यापारियों को सबसे ज्यादा लाभ होता है और आजकल की सियासत भी लोगों में डर और भय बनाये रख कर ही शासन करना चाहती है. सो योजनाबद्ध तरीके से युद्धों की परिस्थिति निर्मित की जाती है.
पता नहीं क्यों अमेरिका युद्ध में सबसे ज्यादा आनंद पाता है! युद्ध की मानसिकता के कारण संसाधनों का बड़ा हिस्सा हथियारों की खरीद के लिए खर्च होता है, फिर स्वास्थ्य का संकट होता है, उत्पादन प्रभावित होता है, बच्चों और महिलाओं की तस्करी होती है, समाज में तनाव बना रहता है; इन सभी की एक कीमत होती है. इसी कीमत को जोड़कर युद्धों की आर्थिक लागत का आंकलन किया जाता है.
अमेरिका के लिए यौद्धिक हिंसा की कीमत होती है 16049.83 करोड़ डॉलर. फिर चीन को 7126.47 करोड़ डॉलर का आर्थिक भार पड़ता है. रूस पर 5177.58 करोड़ डॉलर, भारत पर 7419.06 करोड़ डॉलर, ब्राजील पर 4022.80 करोड़ डॉलर, सउदी अरब पर 3633.47 करोड़ डॉलर, ईराक पर 2803.24 करोड़ डॉलर, मैक्सिको पर 2644.46 करोड़ डॉलर का आर्थिक बोझ पड़ता है. यह राशि हमारे शिक्षा-स्वास्थ्य-सामाजिक सुरक्षा के कुल खर्चे से ज्यादा होती है.
युद्ध हमारे चरित्र का हिस्सा बन रहा है!
क्या आपको शहर के खिलौनों की दुकान से इराक, अफगानिस्तान, सीरिया में चल रहे युद्धों की स्थिति और प्रभाव का अंदाजा लगता है? जरा जाईये और एक बार गौर से देखिये कि वहां आपके बच्चे के लिए तोपें, बंदूकें, आधुनिक हथियार, सैनिकों की भांति-भांति की पौशाकें पहने खिलौने और गोले बरसाने वाले टैंक उपलब्ध हैं. ये केवल उपलब्ध ही नहीं हैं, खिलौनों में इनका अनुपात सबसे ज्यादा है.
आधुनिक विकास और युद्धों का सबसे बड़ा प्रभाव यही है कि बाज़ार ने नीतियों और राज्य के जरिये हिंसा को एक ऐसा खेल बना दिया है, जिसे छोटे-छोटे बच्चे भी खेल रहे हैं. उन्हें हिंसा इसलिए सिखाई जाती है, ताकि वे उपनिवेशवाद और आर्थिक मुनाफे की हिंसा पर कभी सवाल खड़े न कर सकें. जब आज बच्चे खिलौने से अपने दोस्त को ठायं करके मारकर खुश होते हैं, तो आने वाले कल में वे असली हथियार से किसी को मरते देख कर संवेदित क्यों होंगे?
आज हमारे सामने सबसे बड़ी चुनौती यह है कि हम यह मानते हैं कि मैं तो हिंसा नहीं कर रहा हूं? मैं किसी की हत्या नहीं कर रहा हूं, तो मेरी हिंसा में क्या भूमिका हुई? हम यह महसूस नहीं कर पा रहे हैं कि हिंसा का माहौल बनाने और किसी के भी साथ हिंसा पर चुप रहने का मतलब भी हिंसा में शामिल होना ही है!
धर्म और सीमा रेखा की कहानियों के जरिये भावनाओं को हिंसा के लिए तैयार किया जाता है ताकि जब स्कूल, स्वास्थ्य और खेती का बजट छीन कर हथियारों की खरीदी के लिए दिया जाए, तब अपन चुप रहें. जो इस पर सवाल उठाये उसे देशद्रोही और दुश्मन का प्रतिनिधि करार दिया जाए. यह कैसी देशभक्ति है, जिसमें लाखों बच्चों का बीमारी से मारना जायज़ मान लिया जाता है!
(लेखक सामाजिक शोधकर्ता और अशोका फेलो हैं.)