बीटिंग रिट्रीट समारोह से ‘एबाइड विद मी’ को हटाने में कुछ भी हैरान करने वाला नहीं है

एक सार्वभौमिक और मानवतावादी प्रार्थना को हटाना वही संदेश देता है, जिसे 'न्यू इंडिया' सुनना चाहता है.

29 जनवरी 2022 को बीटिंग द रिट्रीट समारोह के दौरान विजय चौक. (फोटो: पीटीआई)

एक सार्वभौमिक और मानवतावादी प्रार्थना को हटाना वही संदेश देता है, जिसे ‘न्यू इंडिया’ सुनना चाहता है.

29 जनवरी 2022 को बीटिंग द रिट्रीट समारोह के दौरान विजय चौक. (फोटो: पीटीआई)

राजपथ पर बीटिंग रिट्रीट समारोह में बजाई जाने वाली धुनों की सूची में से ‘एबाइड विद मी’ को हटाने के फैसले से कई भारतीयों को धक्का लगा.

सोशल मीडिया का कहना है सशस्त्र बलों के युवा मार्चरों द्वारा बजाया जाने वाला बॉलीवुड के एक गाने ने इसकी जगह ली. इस बात की कल्पना करना ही अपने आप में हद से ज्यादा पीड़ाजनक है. इसका प्रत्यक्षदर्शी बनने की क्या बात की जाए. इस गाने की जगह बैंड द्वारा कवि प्रदीप द्वारा लिखित ‘ऐ मेरे वतन के लोगों’ गाना बजाया गया.

कवि प्रदीप संघ के चहेते देशभक्ति विशेषज्ञ हैं- उन्हें अटल बिहारी वाजपेयी सरकार के दौरान दादा साहेब फाल्के पुरस्कार से नवाजा गया था.

जैसा कि हम जानते हैं ‘एबाइड विद मी’ गांधीजी का प्रिय भजन था और बीटिंग रिट्रीट परेड की परंपरा की शुरुआत होने पर भारत सरकार ने इस भजन की धुन को सिर्फ महात्मा के सम्मान में ही इसमें नहीं जोड़ा था, बल्कि इसलिए भी जोड़ा था क्योंकि यह एक महान, पवित्र और रिट्रीट की भावना के पूरी तरह से अनुकूल भजन है.

ढलते सूरज की पृष्ठभूमि में समारोह के समापन की बेला में इस भजन की धुन हर बार श्रोता की आंखों को नम कर जाती है. गणतंत्र दिवस परेड के दौरान सैन्य साजो-सामानों की नुमाइश इसे एक आक्रामक और मर्दाने शक्ति प्रदर्शन का रूप दे देती हैं. इसके विपरीत बीटिंग रिट्रीट समारोह में एक सौम्यता होती है.

मैं किसी भी दूसरे व्यक्ति की तरह परंपरा का सम्मान करता हूं, लेकिन आज़ादी के 75 वर्षों के बाद अब समय आ गया है कि हम अपनी सैन्य शक्ति का का प्रदर्शन करना बंद करें, खासकर इसलिए भी कि इन हथियारों के बावजूद हम चीन को हमारे इलाके पर कब्जा जमाने से रोक पाने में कामयाब नहीं हुए हैं.

‘एबाइड विद मी’ से लाखों-करोड़ों भारतीय काफी परिचित रहे हैं. यह सरकार और भाजपा इसे एक ईसाई या बाइबिलिक भजन मान सकती है, लेकिन देशभर के हजारों (गैर-मिशनरी) स्कूलों में इसे गाया जाता है.

यह उपनिवेशवादी विरासत की देन भी नहीं है- गांधी ने काफी गहराई से बाइबिल का अध्ययन किया था और उनकी कई मान्यताएं ईसा मसीह के उपदेशों से प्रभावित थीं, जिन्हें वे ‘इतिहास के संभवतः सबसे सक्रिय सत्याग्रही और ‘मानवता के इतिहास के सबसे बड़े शिक्षकों में से एक’ कहते हैं.

उनकी नजरों में वे अहिंसा के समर्थक थे. यह सब उन्होंने एक धर्मपरायण हिंदू होते कहा. उन्होंने सभी धर्मों के सर्वोत्तम तत्वों को ग्रहण किया और उसके निचोड़ को भारतीय रूप में पेश किया. लेकिन संघ की नजरों में गांधी पाकिस्तान पर कुछ ज्यादा ही मेहरबान थे, और यह उनके हिसाब से उनका सबसे बड़ा अपराध है.

वे खुलकर उन्हें हटा नहीं सकते, लेकिन वे उनका कद कम करने और उनकी विरासत को नष्ट करने की कोशिश कर सकते हैं. लेकिन मिटाने का खेल बस इतने तक ही सीमित नहीं है. यह अतीत के साथ सारे संबंधों को तोड़ने और एक नए, मोदीमय भारत पर मुहर लगाने वाली कवायद है.

साथ ही इसमें यह कपट भरी समझ भी दिखती है कि अतीत अब वोट दिलाने वाला नहीं रह गया है. पुराने अभिजन, उनके मूल्य और दुनिया के प्रति उनका नजरिया, इस नए भारत में प्रासंगिक नहीं रह गए हैं.

‘एबाइड विद मी’ का इससे क्या खास रिश्ता है? वैसे भी यह शीर्ष से थोपा गया था, और इसमें जनता की कोई भूमिका नहीं थी. इसे हटाने के फैसले से नरेंद्र मोदी को कोई नुकसान नहीं होगा. और पिछले जमाने के शोर मचाने वाले लोगों के समूह की परवाह कौन करता है, जिनका काम आपस में ट्वीट करना, गुजरे हुए सुनहरे दौर को याद करके आहें भरना और उनके (मोदी के) अनुयायियों और आम जनता की खराब पसंद की शिकायत करते रहना ही है.

वैसे भी उनके मत से कुछ बनना-बिगड़ना नहीं है. बॉलीवुड या कोई भारतीय गाना हर भारतीय को अपील करेगा. चाहे वह ग्रामीण युवा हो या शहरी बुर्जुआवादी (जिनमें समृद्ध मध्यवर्ग भी शामिल है). और अगर यह गैर-फिल्मी गाना भी हो, तो भी जब तक यह गाना भारतीयों के बीच लोकप्रिय हो- उन भारतीयों को जो मोदी का समर्थन आधार हैं- यह बढ़िया है. वे उनके सबसे बड़े समर्थक हैं और इससे उन्हें खुशी मिलेगी.

उन्हें नोटबंदी का नुकसान उठाना पड़ा, बेरोजगारी बढ़ गई है और कोविड-19 ने उन्हें भी उतनी ही चोट पहुंचाई है, जितनी औरों को. लेकिन उन्हें इसकी कोई परवाह नहीं है. मोदी उनसे सीधे उनकी भाषा में बात करते हैं.

अगर ‘एबाइड विद मी’ समारोह का हिस्सा होता, तो न उन्हें इसकी जानकारी होती, न उन्हें इससे कोई फर्क पड़ता. लेकिन इसे हटाया जाना, उनके इस विश्वास को और पुख्ता करने वाला है कि मोदी सभी चीज को ‘भारतीय राष्ट्रवादी मूल्यों’ के सांचे में ढाल रहे हैं.

यही वह मुख्य संदेश है, जिसे बार-बार राष्ट्रीय भावनाओं की मंडी में बेचा जा रहा है- कि नया भारत पुराने, घिसे-पिटे और ‘विदेशी’ को हटा रहा है और इसे भारतीय रंग से रहा है. हम बस अनुमान लगा सकते हैं कि इस कदम को लेकर किस तरह के वॉट्सऐप संदेशों को फॉरवर्ड किया जा रहा होगा.

तो, भले ही हमारे जैसे लोग मोदी के रोज के कदमों को लेकर- वे एक दिन सेंट्रल विस्टा का विध्वंस कर देते हैं, दूसरे दिन अमर जवान ज्योति को उसकी जगह से हटा देते हैं और तीसरे दिन बीटिंग रिट्रीट समारोह में फेरबदल कर देते हैं- चाहे कितना ही हाय-तौबा मचाए, वे मजे के साथ हमारे विचारों को ठेंगे पर रखते हुए अपने काम में लगे रहते हैं और सीधे अपने समर्थकों से मुखातिब रहते हैं.

सवाल उठता है कि फिर इस समारोह को ही पूरी तरह से बंद क्यों नहीं कर दिया जाता, क्योंकि सेना से जुड़ी हुई कई अन्य चीजों की ही तरह यह भी एक उपनिवेशी अवशेष है? लेकिन ऐसा नहीं होगा, क्योंकि यह अपने लाखों- करोड़ों दर्शकों के सामने आने का एक और मौका है, जो प्रशंसा भरे भाव में अपने नेता को एक नए और शानदार परिधान में टेलीविजन पर देखेंगे और इस बीच टीवी एंकर उन्हें एक मास्टरस्ट्रोक के बारे में बताएगा और फैसले की महानता की उनकी धारणा को और पुख्ता करेगा.

तो, एक और परंपरा को खत्म कर दिया गया है, अतीत के साथ हमारी एक और कड़ी टूट गई है. ऐसा अभी अनेक बार होगा. हम शोक प्रकट कर सकते हैं, अपने हाथ मल सकते हैं, सोशल मीडिया पर अपनी नाराजगी का इजहार कर सकते हैं.

इस भजन से प्रेम करने वाले गांधी जी ने इस पर क्या कहा होता. वे शायद इस भजन की ही पंक्तियों के हवाले से कहते:

I fear no foe, with Thee at hand to bless
Ills have no weight, and tears no bitterness

ख़तर कहां किसी का अब साथ जब हो तुम मेरे
न दर्द है न रंज है, न आंसुओं में टीस है

(इस लेख को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें.)