हामिद अंसारी पर हमले: ज़रूरत चेहरा साफ करने की है, आईने नहीं

देश के लिए निराशा की बात है कि उसके पूर्व उपराष्ट्रपति तक को उसके धर्म के आधार पर देखा जाने लगा है और उनके कथनों से सबक लेने और आईने में हक़ीक़त की शक्ल देखने के बजाय उनसे ठकुरसुहाती की उम्मीद की जा रही है!

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पूर्व उपराष्ट्रपति हामिद अंसारी. (फोटो: द वायर)

देश के लिए निराशा की बात है कि उसके पूर्व उपराष्ट्रपति तक को उसके धर्म के आधार पर देखा जाने लगा है और उनके कथनों से सबक लेने और आईने में हक़ीक़त की शक्ल देखने के बजाय उनसे ठकुरसुहाती की उम्मीद की जा रही है!

पूर्व उपराष्ट्रपति हामिद अंसारी. (फोटो: द वायर)

दस वर्षों तक उपराष्ट्रपति रही किसी शख्सियत को लगता है कि देश में धार्मिक व सांप्रदायिक असहिष्णुता, साथ ही अल्पसंख्यकों की दुश्वारियां बढ़ती जा रहीं या नागरिक राष्ट्रवाद को सांस्कृतिक राष्ट्रवाद में बदला और राजनीति पर बहुसंख्यकों का एकाधिकार स्थापित किया जा रहा है, तो इसका समाधान सत्ताधीशों द्वारा अपने गिरेबान में झांकने, हालात बदलने और आपसी समझदारी व सद्भाव विकसित करने में लगने में है अथवा संबंधित शख्सियत पर चढ़ दौड़ने में?

कोई भी समझदार व्यक्ति इस सवाल के जवाब में सताधीशों से अपने गिरेबान में झांकने को ही कहेगा, लेकिन क्या किया जाए कि हमारे इन दिनों के सत्ताधीशों को इसका कतई कोई अभ्यास नहीं है, इसलिए वे चढ़ दौड़ने का विकल्प ही चुन लेते हैं. भले ही इससे उनकी नाना रूपधारी असहिष्णुता नए सिरे से बेपरदा होने और उक्त शख्सियत को ही सही सिद्ध करने लग जाती हो.

पूर्व उपराष्ट्रपति हामिद अंसारी द्वारा अमेरिका में बहुलवादी संविधान के संरक्षण के विषय पर आयोजित एक कार्यक्रम में नागरिक राष्ट्रवाद को सांस्कृतिक राष्ट्रवाद में बदलने को लेकर कही गई बातों के सिलसिले में सत्ताधीशों व उनकी समर्थक जमातों द्वारा उन पर किए गए हमले सत्ताधीशों के इसी अनभ्यास से जन्मे हैं.

इन हमलों के तहत उनके कथनों को विवादित बनाते हुए कहा जा रहा है कि देश की एकजुटता के लिहाज से उनको जायज नहीं करार दिया जा सकता. केंद्रीय मंत्री मुख्तार अब्बास नकवी उनके कथनों को ‘एक व्यक्ति की आलोचना के पागलपन का देश की आलोचना की साजिश में बदल जाना’ तक कहने से परहेज नहीं बरत रहे.

क्या अर्थ है इस सबका? क्या यही नहीं कि अब देश में जो हालात पैदा कर दिए गए हैं, उन्हें लेकर चुप्पी साध लेने या शुतुर्मुर्गों की तरह रेत में सिर गड़ाकर तूफान टल जाने का इंतजार करने लगने को ही जायज माना जाएगा और अभिव्यक्ति का कोई भी खतरा उठाने की निंदा की जाएगी? अगर हां, तो किसी भी हाल में इसका प्रतिरोध क्योंकर टाला या खत्म किया जा सकता है?

निस्संदेह हामिद अंसारी इसी प्रतिरोध के कारण पूर्व होने के बावजूद सत्ताधीशों को फूटी आंखों भी नहीं सुहा रहे. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने तो अगस्त, 2017 में उनके विदाई समारोह को भी विवादित बना डाला था. यह कहकर कि अब वे अपने संवैधानिक पद की बंदिशों से पूरी तरह मुक्त होकर अपने विचार व्यक्त कर सकेंगे.

तब इसका एक अर्थ यह भी लगाया गया था कि उनके तई हामिद अंसारी संविधान की परिधि का अतिक्रमण करने या उसके विरुद्ध जाने वाले अपने विचारों को संवैधानिक पद पर होने की मजबूरी में छिपाए रखते थे.

इसका पूरा सच यह था कि 2014 में देश में उनकी सरकार बनने के बाद अल्पसंख्यकों पर अत्याचार बढ़े और उन्हें ‘बहुसंख्यकों की तानाशाही’ के छाते के तले छिपाने की कोशिशें तेज हुईं तो हामिद अंसारी ने उनकी ओर से आंखें नहीं फेरीं और उनके विरुद्ध मुखर होने से नहीं चूके.

अपने कार्यकाल के आखिरी दिनों में उन्होंने देश में ‘स्वीकार्यता के माहौल’ को खतरे में बताते हुए यह भी कहा कि देश के मुस्लिमों में बेचैनी का एहसास और असुरक्षा की भावना है.

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की पहल पर 21 जून, 2015 को पहला अंतरराष्ट्रीय योग दिवस मनाया गया तो हामिद अंसारी की यह कहकर कड़ी आलोचना की गई कि उन्होंने राजपथ पर आयोजित उसके मुख्य समारोह में हिस्सा नहीं लिया और उपराष्ट्रपति आवास पर भी कोई योग कार्यक्रम आयोजित नहीं कराया.

यह तब था, जब उनके कार्यालय को उन्हें उक्त समारोह में शामिल होने का न्योता ही नहीं भेजा गया था. उपराष्ट्रपति के तौर पर अपने आखिरी दिन उन्होंने यह कहकर भी मोदी सरकार के राष्ट्रवाद का नाम लिए बिना उसको आईना दिखाया था कि मैं एक भारतीय हूं और मेरे लिए इतना काफी है. दिन-रात अपना राष्ट्रवाद दिखाने की बात फिजूल है, जो वास्तव में असुरक्षा की भावना को दर्शाती है.

मोदी सरकार ने उनके इनमें से किसी भी कथन को कभी सदाशयता से ग्रहण नहीं किया था और न ही अपनी रीति-नीति बदली थी. उल्टे उसके समर्थकों ने हर बार उन्हें खलनायक बनाने की कोशिश की थी.

यह बात तो खैर वह अपनी दूसरी पारी में भी नहीं ही समझ पाई है कि किसी भी सभ्य व लोकतांत्रिक देश में अल्पसंख्यकों के सुरक्षा के एहसास को सरकारी दावों से नहीं बल्कि जमीनी हकीकतों से आंका जाता है. ऐसा नहीं किया जाता तो वह एहसास प्रदर्शित होने के बावजूद लगभग वैसा ही एहसास नजर आता है, जो किसी निष्कवच नागरिक को तब जबरन मुसकुराते समय होता है, जब उसके आसपास का कोई मनबढ़ गुंडा उससे पूछता है कि उसके किसी कृत्य से उसे परेशानी तो नहीं है?

इन्हीं हकीकतों के मद्देनजर 2020 में पूर्व उपराष्ट्रपति के तौर पर शशि थरूर की बहुचर्चित पुस्तक द बैटल ऑफ बिलांगिंग का डिजिटल विमोचन करते हुए हामिद अंसारी ने कहा था कि भारत का समाज कोविड से पहले ही दो महामारियों- धार्मिक कट्टरता और आक्रामक राष्ट्रवाद का शिकार हो चुका है, जबकि इनके मुकाबले देशप्रेम ज्यादा सकारात्मक अवधारणा है.

बात कतई गलत नहीं थी, लेकिन तब भी उन पर ऐसे ही हमले किए गए थे जैसे अब किए जा रहे हैं.

इससे पहले 2018 में अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय में मोहम्मद अली जिन्ना का पोट्रेट लगाने संबंधी विवाद में वे विश्वविद्यालय के छात्रसंघ के पक्ष में खड़े हो गए थे, तब भी सत्ताधीशों की जमातों को मिर्ची ही लगी थी. तब भी, जब सईद नकवी की किताब बीइंग द अदर- द मुस्लिम इन इंडिया के विमोचन समारोह में सरदार बल्लभभाई पटेल के एक बयान के हवाले से अंसारी ने कह दिया था कि देश के बंटवारे के लिए उसके दोनों टुकड़ों के कट्टरपंथी बराबर के जिम्मेदार हैं.

इतनी मिसालों की रोशनी में यह समझना कठिन नहीं है कि सत्ताधीशों की पातें आज भी हामिद अंसारी से दुर्भावना क्यों रखती हैं और उनकी हर बात में मीन-मेख क्यों निकालने लग जाती हैं?

दरअसल, अपनी उन ग्रंथियों के कारण, जिनकी राजनीति के चक्कर में उन्होंने हमारे इस प्यारे देश में किसी भी सच का सच की तरह समझा जाना दूभर कर दिया है, वे उन्हें पूर्व उपराष्ट्रपति से ज्यादा पूर्व मुस्लिम उपराष्ट्रपति के तौर पर देखती और अपने प्रति अनुकूलता की अपेक्षा करती हैं. या फिर यह कि उन्हें उनका थोड़ा बहुत अंकुश तो मानना ही चाहिए. अंसारी उन्हें निराश कर देते हैं तो बेचारी न अपनी खीझ छिपा पाती हैं और न नाराजगी.

इस सिलसिले में देश के लिए निराशा की इससे भी बड़ी बात यह है कि उसके पूर्व उपराष्ट्रपति तक को उसके धर्म के आधार पर देखा जाने लगा है और उसके कथनों से सबक लेने व उसके आईने में हकीकत की शक्ल देखने के बजाय उससे ठकुरसुहाती की उम्मीद की जा रही है!

यह बात भुलाकर कि आजादी की लड़ाई के दौरान महात्मा गांधी के भगत सिंह से भी मतभेद थे, पंडित जवाहरलाल नेहरू से भी, सुभाषचंद्र बोस से भी और बाबासाहेब आंबेडकर से भी, लेकिन इनमें से किसी के भी बीच मनभेद कभी नहीं रहा. इनमें से किसी ने भी एक-दूसरे के विचारों या फैसलों से असहमति जताते हुए किसी के प्रति कोई दुर्भावना नहीं बरती.

लेकिन अफसोस कि पुराने इतिहास से लड़ाई छेड़कर नया इतिहास गढ़ने की धुन में मगन वर्तमान सत्ताधीश व उनकी पांतें अंसारी के प्रति अपनी दुर्भावनाओं से निजात पाने को कौन कहे, छिपाने की भी जरूरत नहीं समझतीं.

सत्ताधीश दावा करते नहीं थकते कि उनके राज में देश अपनी पिछली गलतियां सुधार रहा है, लेकिन अपनी उन कवायदों को सुधारने का कोई उपक्रम नहीं करते, जिनसे न सिर्फ भारत के संविधान बल्कि उसकी आत्मा और बहुलतावादी, उदार व धर्मनिरपेक्ष छवि तक को ठेस पहुंचती है.

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के ही शब्दों में कहें तो उनकी यह कारस्तानियां वैसी ही हैं जैसे कोई अपने चेहरे पर पड़ी धूल साफ करने के लिए चेहरे के बजाय उस आईने को साफ करने लगे, जिसमें वह नजर आ रही हो.

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं.)