देश ‘थूक जिहाद’ नहीं, थूक विशेषज्ञों द्वारा तैयार किए पीकदान में धंसता जा रहा है

एक देश में इतना थूक कब आता है? तब, जब थूक विशेषज्ञ अपने आराध्य राम, जिन्होंने शबरी के झूठे बेर खाए थे, के नाम पर झूठ फैलाते हैं. जब एक भरा-पूरा समाज अपने मूल्यों से ख़ाली हो जाता है, उसकी शर्म खोखली और आदर्श बौने हो जाते हैं, तब जब उसकी हर छोटी-बड़ी नैतिकता की ख़त्म हो जाती है.

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गायिका लता मंगेशकर के अंतिम संस्कार पर उन्हें श्रद्धांजलि देते शाहरुख खान. (फोटोः पीटीआई)

एक देश में इतना थूक कब आता है? तब, जब थूक विशेषज्ञ अपने आराध्य राम, जिन्होंने शबरी के झूठे बेर खाए थे, के नाम पर झूठ फैलाते हैं. जब एक भरा-पूरा समाज अपने मूल्यों से ख़ाली हो जाता है, उसकी शर्म खोखली और आदर्श बौने हो जाते हैं, तब जब उसकी हर छोटी-बड़ी नैतिकता की ख़त्म हो जाती है.

गायिका लता मंगेशकर के अंतिम संस्कार पर उन्हें श्रद्धांजलि देते शाहरुख खान. (फोटोः पीटीआई)

‘थूक जिहाद’ के नाम पर एक धर्म-विशेष की फर्जी वीडियो का चलन आम हो चुका है.

कभी किसी बावर्ची के गरम रोटी पर हवा फूंकने पर ये झूठ फैलाया जाता है, तो कभी किसी व्यक्ति के दुआ पढ़ने के बाद फूंकने पर उसे मनगढ़ंत थूक से जोड़ दिया जाता है.

बीते इतवार भारतीय जनता पार्टी के छोटे बड़े नेताओं, ट्रोल्स और दक्षिणपंथी घृणा प्रचारक मीडिया ने अभिनेता शाहरुख खान का एक वीडियो वायरल कर दिया है, जिसके बाद कुछ ऐसे सवालों की बाढ़ आ गई: ‘शाहरुख ने भी थूक दिया. ऐसे कौन थूकता है किसी के मरने पर? ओह! वो तो मुसलमान है, तभी. यार, ये मुसलमान इतना क्यों थूकते हैं?’

क्यों थूकते हैं? कैसे थूकते हैं? क्या वैसे ही, जैसे तबलीगी जमात नर्सों पर थूक रही थी? जैसे सब्ज़ी वाले थूक रहे थे? जैसे होटलों में मुसलमान थूकते हैं?

अगर आप टीवी देखते होंगे, तो ये झूठ और ज़हर तो आप तक पहुंच ही गया होगा. असल वीडियो में शाहरुख खान फातिहा पढ़ रहे थे या शायद ‘इन्ना लिल्लाहि वा इन्ना इलाही रजिउन’ (अल्लाह दुनिया में भेजने वाला है, और वो ही वापस बुलाता है) कह रहे हैं, लेकिन बात शाहरुख की बेगुनाही की नहीं है, ये उन जैसों के लिए हमेशा शक पैदा करने वालों की बात है.

वरिष्ठ पत्रकार राहुल देव ने लिखा, ‘मुझे भी पहले समझ नहीं आया था कि शाहरुख़ ने झुककर क्या किया. नहीं मालूम था कि यह दुआ देने का तरीक़ा है. हो सकता है औरों को भी न पता हो. लेकिन अज्ञान से अपमानजनक टिप्पणियों पर पहुंच जाने के लिए घोर मूर्खता, असभ्यता और घृणित सोच चाहिए.’

हालांकि ये सवाल खुद में बड़ा है एक कि 22 करोड़ लोगों की इतनी पक्की मान्यता को राहुल देव जैसे बड़े पत्रकार भी नहीं जानते थे तो आप आम हिंदुओं से ये उम्मीद कर है नहीं सकते, लेकिन राहुल देव की दूसरी बात ज़्यादा महत्त्वपूर्ण है- आपका अज्ञान दूसरों को ज़लील करने की वजह नहीं बन सकता है.

ये मानना मुश्किल है कि लगातार फैक्ट चेक होने के बावजूद भाजपा के लोगों द्वारा ‘थूक जिहाद’ का कुत्सित प्रचार, उनकी अज्ञानता है.

‘सोची-समझी साज़िश और थूक का दलदल’

झूठे परिप्रेक्ष्य के साथ फॉरवर्ड किए गए वीडियो का उद्देश्य केवल एक धर्म-विशेष को जानबूझकर अपवित्र और असभ्य दिखाना ही नहीं है, उन्हें बहुसंख्यक समाज के प्रति घृणा से भरा हुआ दिखाने की साज़िश भी है.

वीडियो को इस झूठ के साथ चलाने वालों में ये विश्वास है कि आम लोग उनकी बात मान ही लेंगे क्योंकि अगर पूर्वाग्रहों और टीवी डिबेट से मिली जानकारी को न गिना जाए, तो मुसलमानों के बारे में सच में लोग बहुत कम जानते हैं.

मगर ये बात तो साफ़ है, कि इस तरह के झूठे वीडियो चलाने वाले ‘थूक’ शब्द से उत्पन्न हुई घिन को बख़ूबी समझते हैं. वे किसी भी चीज़ या विषय पर थूके जाने का खंडन करते पाए जाते हैं.

तो उनके द्वारा हमें बताया जाता है कि वही लोग थूकते हैं जो एक धर्म विशेष के होते हैं. जिनकी कभी दाढ़ी नोंची जाती है, कभी मस्जिद तोड़ी जाती है, तो कभी घर और दुकान आग और जेसीबी के सुपुर्द कर दिया जाता है. वो हिजाबी बच्चियां भी थूक रही हैं, जिनके कानों में ‘बेटी पढ़ाओ’ का जुमला पड़ा था. वो महिलाएं भी, जिन्हें थूक विशेषज्ञ बाज़ार में ऑनलाइन नुमाइश लगाकर बेचना चाहते है. थूक वो मां भी रही है, जिसका बेटा किसी यूनिवर्सिटी से गायब हो गया था. थूक वो बेटी भी रही है, जिसके बाप को भीड़ ने ज़िंदा नोच खाया.

ये तमाम लोग ‘थूक’ से नफ़रत के पीछे का सामाजिक भाव गहराई से जानते हैं. तो फिर सवाल उठता है कि इन थूक विशेषज्ञों को समाज में वहां यह प्रतीकात्मक थूक कैसे नहीं दिखाई पड़ती है, जहां यह सचमुच मौजूद है? इनकी पैनी नज़रें, धर्म विशेष का संदर्भ देखते ही हवा में अपने आप थूक का निर्माण कर ही लेती है. फैक्ट्स और रिपोर्ट्स आप तक पहुंचने नहीं वाले, तो इस थूक के बारे में कुछ बातें जान लीजिए.

सच तो ये है कि हम धीरे-धीरे थूक के दलदल में धंसते जा रहे हैं. बहुत कम समय बचा है, लगता है हम डूब जाएंगे. अब थूक हर तरफ़ है. हर मुंह में जैसे थूक का समंदर भर गया है. कभी यह थूक उन किसानों के मुंह से निकले खून के साथ मिल जाता है, जिनकी पसलियां मंत्री जी के बेटे ने अपनी मोटर के टायर से गेंहू समझकर पीस दी थी. कभी ये बेरोजगारों तो कभी गरीबों के आंसुओं में मिल जाता है. कभी सैकड़ों मील  पैदल चलकर घर जाते उन मजदूरों के क्षत-विक्षत शरीरों में, जो लॉकडाउन के दौरान पटरियों पर मारे गए.

यह कभी उस ईसाई महिला के गुस्से के साथ भी मिला था, जिसकी चर्च में उसके यीशु की मूर्ति थूक विशेषज्ञों ने तोड़ दी थी. इन थूक विशेषज्ञों की ख़ुशनसीबी है कि महामारी के दौरान अस्पताल के अंदर-बाहर जान गंवाने वाले लोग थूक इकठ्ठा करने के लिए सांसों की भीख मांगने में ही व्यस्त रह गए.

थूक विशेषज्ञों की एक के बाद एक पीढ़ी इतनी डरी हुई है कि उन्होंने दलितों को अछूत और अदृश्य बनाने पर जोर दिया, कहीं ऐसा न हो कि उनका थूक उनके पास आ जाए.

और फिर उन लोगों का भी थूक है जिनसे ये थूक विशेषज्ञ नफरत करते हैं. वो लेखक है, जिसकी किताब थूक विशेषज्ञों ने जला दी. वो पत्रकार है, जिसकी कलम थूक विशेषज्ञ तोड़ना चाहते हैं. वो छात्र है, जिसका बस्ता थूक विशेषज्ञों ने जला दिया. जिस कॉमिक आर्टिस्ट की मुस्कुराहट थूक विशेषज्ञों छीन ली. जिस फिल्मकार की फिल्में थूक विशेषज्ञों रोक दीं. जिस हीरो को थूक विशेषज्ञों ने जनता की नज़रों में विलेन बना दिया.

अधिकांश भारतीयों के अपना मुंह बंद रखने के उनके प्रयासों के बावजूद थूक ने हमें किसी सैलाब की तरह घेर लिया है- थूक इतना बढ़ गया है कि थूक विशेषज्ञों को ‘यूएपीए’ और ‘राजद्रोह नाम के ब्रांड वाले कवच और छातों की जरूरत पड़ रही है. इस थूक से अब थूक विशेषज्ञों के राजा के महल की दीवारों में सीलन उठने लगी है.

एक देश में इतना थूक, ख़ून और मवाद कब आता है? तब, जब थूक विशेषज्ञ अपने आराध्य राम, जिन्होंने शबरी के झूठे बेर खाए थे, के नाम पर झूठ फैलाते हैं. जब एक भरा-पूरा समाज अपने मूल्यों से ख़ाली हो जाता है, उसकी शर्म खोखली और आदर्श बौने हो जाते हैं, तब शायद वो मज़लूमों, पिछड़ों, और ग़रीबों के प्रतिरोध एवं पीड़ा की थूक का पीकदान बन जाता है. तब ये ‘थूक’ एक सामूहिक शर्मिंदगी की पुकार बन जाता है. विविधता से भरे समाज में एक साथ इतना थूक और मवाद शायद तब आता है, जब उसकी हर छोटी-बड़ी नैतिकता की मौत हो जाती है. इसे ‘थूक जिहाद’ कहो या कुछ और, इससे अब हमारा बचना बहुत मुश्किल है.

1930 के दशक में नाजी थूक विशेषज्ञों ने आम जर्मन बहुसंख्यकों को आतंकित करने- उनकी वफ़ादारी बनाए रखने- के लिए कंसंट्रेशन सेंटर जा रहे यहूदियों को लेकर ऐसा ही प्रोपेगंडा और ज़हर फैलाया था. आज इतिहास नाज़ियों पर थूकता है. निश्चित तौर पर यह एक सबक है जिससे हमारे थूक विशेषज्ञों को सीखने की जरूरत है.

(इस लेख को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें.)