भारत में हादसों का क्लास सिस्टम है. सैकड़ों बच्चे ऑक्सीजन की कमी से मर जाते हैं, सैकड़ों ट्रेन के डिब्बे पलटने से मर जाते हैं, बाढ़ में हज़ारों का मरना तो आम बात ही है.
अब जब 22 लाशों के साथ-साथ हमारा गुस्सा भी ठंडा होने लगा है. तो सोचा एक चिंगारी भड़का दूं. चिंगारियों ने इतिहास में कई महल गिराए हैं, कई मशालें जलाई हैं, कई रास्तों को रोशन किया है.
एक लेखक बस चिंगारियां ही दे सकता है समाज को, उन चिंगारियों का सफर, समाज तय करता है. हालांकि उस लेखक को हमेशा ये पता होता है, ये चिंगारियां उसका अपना घर भी जला भी सकती हैं. तो डरते-डरते एक और चिंगारी आप लोगों को सौंप रहा हूं.
चलिए एक काल्पनिक पात्र बनाते हैं. 11 साल का बच्चा कैसा रहेगा? या 25 साल की लड़की? या 35 साल का आदमी? शर्त बस एक है, जो कोई भी हो, आम होना चाहिए. आम यानि साधारण. आम यानी जो सबके सामने अपने हक की बात करने से कतराए.
जहां तक हो सके भीड़ के साथ चले. सुबह से लेकर शाम तक, अपने घर वालों की प्लेट पर खाना परोसने में मसरूफ हो. जिसके लिए छुट्टी पर जाने का मतलब शहर से गांव जाना हो. जिसके मुंह से अक्सर निकलता हो, ‘अरे वो तो बड़े लोग हैं.’
मतलब, जिसने जाने-अनजाने में अपने आप को छोटा मान लिया हो. आम आदमी जोकि हम माने या माने, हम सब हैं. क्योंकि हम 95 प्रतिशत भारत हैं. बाकी के पांच प्रतिशत की बात मैं बाद में करता हूं.
चलिए उस 35 साल वाले आदमी को जानने की कोशिश करते हैं. सिर्फ 3-4 घंटे की उसकी जिंदगी को समझने की कोशिश करते. 3-4 इसलिए कि ये इतने से समय के बाद सब कुछ बदलने वाला है…
35 साल का आशीष अपने बूढ़े मां-बाप, बीवी और दो बच्चों के साथ एक 2 बीएचके घर में अमीर मुंबई से दूर, एक गरीब सी मुंबई में रहता है. पिताजी ने अगर सही समय पर ये अपार्टमेंट नहीं खरीदा होता तो आज ये घर भी न होता. पर इसके पिताजी की स्ट्रगल की कहानी अलग है.
आज सिर्फ आशीष की बात करते हैं. आशीष की सैलरी 40,000 रुपये है. शायद किसी और शहर में ठीक-ठाक सैलरी हो सकती है पर मुंबई में इसमें गुजरा करना बड़ा मुश्किल है. पिताजी सरकारी नौकरी में थे, उनकी भी पेंशन आती है.
मान लीजिये 20,000 रुपये. पिताजी और माताजी की अब उम्र हो चुकी है. ये 20 हजार उनकी बीमारी में ही पानी हो जाते हैं.
आशीष का एक बेटा और बेटी है. बेटा सातवीं और बेटी चौथी कक्षा में है, उसकी ही तरह उसके बच्चे भी मराठी मीडियम में पढ़ रहे हैं. आशीष किसी भी अच्छे बाप की तरह अपने बच्चों की जरूरतें पूरी करने की कोशिश करता है. वैसे उसका बेटा अक्सर उस से नाराज रहता है. इस उम्र में शायद सारे बच्चे अपने मां-बाप से थोड़े नाराज ही रहते हैं.
आशीष की पत्नी भी उसके ही जैसे घर में पली-बढ़ी थी. बचपन में शायद उसने ‘दिल वाले दुल्हनिया ले जायेंगे’ देखी थी तो उसके सपने में भी ‘राज’ जैसा पति पाने की उम्मीदें थी लेकिन उसने जल्दी ही अपने सपनों से समझौता करके आशीष से शादी कर ली थी.
आशीष, ‘राज’ जैसी मर्सिडीज की गाड़ी तो नहीं था, पर बजाज का चेतक स्कूटर जरूर था. एक जगह से दूसरी जगह पंहुचा देता था. बारिश होती थी तो भीगना भी पड़ता था. सड़क पर पानी भरा हो तो रुक भी जाता था. पेट्रोल कम हो टेढ़ा करके किक मार दो. काम तो चल ही जाता था और काम आ भी जाता था. पर चेतक स्कूटर को दिखाकर आप अपने दोस्तों पर धौंस नहीं जमा सकते हो. बल्कि थोड़े से शर्मिंदा ही रहते हो.
आज आशीष हमेशा की तरह 5:30 से 6:00 के बीच उठा. थोडा परेशान था, 3 से 6 तारीख के बीच किश्त देनी थी, एक नहीं तीन लेकिन इस बार नल लीक कर रहा था जिससे पानी दिन-रात टपकता रहता था, गैस का सिलेंडर बीच में खत्म हो गया तो गैस सिलेंडर ब्लैक में लेना पड़ा जिसके चलते थोड़े ज्यादा पैसे लग गए थे.
प्लाईवुड की अलमारी का एक तरफ का दरवाजा गल चुका था और आधा झूल रहा था. इससे धुले हुए कपड़ों पे धूल जम जाती थी. इस बार की बारिश में घर की दीवारों पे इतनी सीलन आई थी कि बेडरूम की दीवार पहले हरी हुई फिर उस पर काले चकत्ते जम गए.
कमरे में घुसते ही सीलन की बदबू नाक में बैठ जाती थी. और ऊपर से अगले महीने दीवाली आने वाली थी. खर्चे पे खर्चे और आमदनी अठन्नी.
आशीष हमेशा की तरह सात बजे तक तैयार था. रास्ते में उसे 5,000 रुपये उठाने थे, जो उसने अपने किसी दोस्त को साल भर पहले दिए थे. कई दिनों से बोलने का मुंह नहीं पड़ रहा था. पर परसों उसने फोन कर दिया और 5,000 वापस मांग लिए.
दोस्त ने ऐसा नाटक किया कि वो तो कब से पैसे लेके तैयार बैठा है. दोस्त का भी वही हाल था, वो भी सुबह घर से निकलता और शाम को घर आता है. तो आशीष ने सुबह काम पे जाने से पहले 5,000 लेने का टाइम फिक्स किया था.
घर से निकलते हुए आशीष अपनी बीवी से नाराज था, क्योंकि वो लेट हो चुका था, उसे 7:00 बजे घर से निकल जाना चाहिए था, पर चाय के लिए घर में दूध खत्म था, दूध आते-आते, 20-25 मिनट की देरी हो चुकी थी.
अब आशीष को पता था, वो ऑफिस पहुंचने में लेट हो चुका था. पर फिर भी ये 5,000 बहुत जरूरी थे. जब तक आशीष अपने दोस्त के पास पंहुचा, उसने अपने दोस्त को भी लेट कर दिया था.
दोस्त ने मुह बना के 5,000 दिए और जल्दी में निकल गया. आशीष ने फोन निकल कर अपने एक सहकर्मी को फोन किया कि वो कम से कम 45 मिनट लेट हो जायेगा. ऑफिस में ‘जरा देख ले’.
45 मिनट की देरी, अब डेढ़ घंटे से दो घंटे में बदल चुकी थी. 9:00 से 9:15 के बीच, वो अक्सर अपने ऑफिस में होता था पर आज 10:26 पर एल्फिंस्टन स्टेशन के फुट ओवर ब्रिज पे खड़ा था, बारिश भी हो रही थी और वो भीड़ के बीच सोच रहा था कहां से और पैसे का जुगाड़ करे कि इस बार दीवाली के पहले घर की रंगाई हो जाए?
उसे पता नहीं कहां से धक्का आया. कुछ लोगों के चिल्लाने की आवाजें आई. और वो फंस चुका था. उसने हाथ-पैर मारने की कोशिश की पर उसे ऐसा लगा कि एक पहाड़ उस पर गिरा हो. उसे अपनी पसली टूटने का दर्द महसूस हुआ और फिर लगा उसके फेफड़े दब रहे हैं, उसकी नाक सांस ले रही पर उसके फेफड़े खुल नहीं रहे थे.
उसे अभी भी ये पता नहीं था कि वो अगले 1-2 मिनट में मर जायेगा. उसने फिर पूरा दम लगा कर हाथ-पैर मारे. पर, तभी और लोग, उस पर गिरे. अब वो लोगों के ढेर के नीचे दबा था. बाहर दिन था पर उसके आखों में अंधेरा छाने लगा था. आशीष का बैग उसके हाथ से छूट गया था जिसमे 5,000 रुपये थे. अजीब सी बात ये है कि मरने के दो-तीन सेकंड पहले आशीष को उन 5,000 रुपये की कोई फिकर नहीं थी.
आशीष मर गया, 5,000 का कोई पता नहीं है. नल में से अभी भी पानी रिस रहा है, दीवार पर अब भी काले चकत्ते हैं. अब किसी को उस कमरे में बदबू भी नहीं आती है, धूल की परत भी अलमारी के कपड़ों पर और गहरी हो गयी है.
आशीष के सारे घर वाले आजकल थोड़ा कम बोलते हैं. बस एक अच्छी बात है, आशीष को सारी किश्तों, सारे लीकों, सारे धब्बों, सारे उधारों और सारी सांसों से निजात मिल गई है.
आप आशीष हैं, मैं आशीष हूं, मेरी बीवी भी आशीष है और मेरा 3 साल का बेटा भी आशीष है. बस वो पांच प्रतिशत जिनका मैंने ऊपर जिक्र किया था वो आशीष नहीं है. वो अगर आशीष होते तो आज सरकार हिली हुई होती.
सोचो खबर आये कि भारत के गृह मंत्री (सिर्फ भाजपा के ही नहीं, पुराने कांग्रेस के भी) आज भगदड़ में मर गए. सोच के भी अजीब लगता है न? ये भारत के 5% लोग हादसों में कभी क्यों नहीं मरते हैं?
और अगर कभी मरते भी हैं तो इनके हादसे अलग होते हैं, ये हेलीकॉप्टर और प्लेन गिरने से मरते हैं. ये लोग अमीर और भव्य हादसों में मरते हैं. हम लोग आम हादसों में मरते हैं.
भारत में हादसों का क्लास सिस्टम है. सैकड़ों बच्चे ऑक्सीजन की कमी से मर जाते हैं, सैकड़ों ट्रेन के डिब्बे पलटने से मर जाते हैं, बाढ़ में हज़ारों का मरना तो आम बात है ही.
शायद अब वक्त आ गया कि हम कुछ नए शब्द ईजाद करें, ‘अमौत’ या ‘अमृत्यु’ कैसा रहेगा. जैसे, ‘अकुलीन’ वो होता जो निम्न श्रेणी या कुल में पैदा हुआ हो वैसे ही जो कि निम्न श्रेणी की मौत से मरे, उसे ‘अमौत’ कहना चाहिए.
कहीं से खबर आये 100 लोग मर गए तो सब पूछें ‘मौत थी कि अमौत थी’. जैसे ही जवाब ‘अमौत’ आये तो सब अपने-अपने काम पर चले जाएं. अमौतों पे न कोई शोक मने, न कोई सोचे. टाइम वेस्ट नहीं होना चाहिए, हम आखिर ‘न्यू इंडिया’ बना रहे हैं.
पॉजिटिव थॉट चल रहे हैं आजकल. भारत विश्व गुरु बनने जा रहा है. बस 2019 तक बीएड का कोर्स पूरा जायेगा, फिर संयुक्त राष्ट्र में हमारी नौकरी लग जाएगी और हम पूरे विश्व को पढ़ाना शुरू कर देंगे.
ये अमौतें, हमारे देश की तरक्की में रोड़ा बनी हुई हैं. हर वक्त होती रहती हैं. मेरी अपील है मीडिया से इन अमौतों के बारे में बात करना बंद करें. सवा सौ करोड़ लोगों में 10-20 करोड़ की अगर अमौत हो भी गई तो क्या फ़र्क पड़ता है.
सरकार अपना काम कर रही है, विश्व गुरु के कोर्स की सारी कुंजियां ले आई है, कोटा में भारत की कोचिंग क्लासेज भी चल रही हैं. कृपया करके इन ‘अमौतों’ को भारत के विकास में बाधा न बनायें.
और 95 प्रतिशत जनता से मेरी ये अपील है कि अपने घर वालों को बता दें, आपकी मौत होने पे गम न करें क्योंकि आपकी मौत, ‘अमौत’है. आप लोगों की जिदंगी, रेत पर लिखे हुए नामों की तरह है, अब ये आपकी किस्मत है कि अगली लहर कब आती है या अगली हवा कब चलती है.
मिटना तो आप सबको है ही. दुर्घटना को, प्लीज, दुर्घटना न कहें, ये देश सेवा है. हर अमौत, देश की जनसंख्या घटाने का महत्वपूर्ण काम कर रही है.
अगर अब भी आप को शक है कि ये वाली सरकार, उस वाली सरकार से बेहतर है, तो आपके दिमाग की अमौत पहले ही हो चुकी है. बचपन से सुनता आ रहा हूं, जिसको ‘राज’ करना आता है वही राज कर सकता है. लोग ये नहीं समझ रहे हैं कि प्रॉब्लम ‘राज’ शब्द में है. वो जो भी चुनकर आ रहा है, बस राज ही तो कर रहा है.
ये लोग तब तक राज करते रहेंगे जब तक हम इन्हें राज करवाते रहेंगे. अगर हमने अपनी सोच नहीं बदली तो हम लोग रोज, अमौत मरते रहेंगे.
मेरा एक सपना है, एक दिन भारत में ऐसा आये कि कोई भी इलेक्शन लड़ने को तैयार न हो. कहे की ‘यार बड़ा काम करना पड़ता है.’
‘एक पल भी यहां लोग सांस नहीं लेने देते हैं. हर वक्त जवाबदेही है, हर वक्त सर पर तलवार लटकती रहती है.’ एक दिन ऐसा हो राजनीति में जाने का मतलब ‘जिंदगी दूभर करना हो जाए’. लेकिन ऐसा कभी नहीं होगा क्योंकि न आपको अपनी अमौतों से फर्क पड़ता है न किसी और की.
इसलिए वापस आपको याद दिला हूं, ये पढ़ने के बाद, अपने-अपने घर वालों को बता दें, कि ना आपकी मौत पे शोक करें, न बुरा माने. क्योंकि आप चाहे माने या न माने, आपकी मौत, अमौत है…
(दाराब फ़ारूक़ी पटकथा लेखक हैं और फिल्म डेढ़ इश्किया की कहानी लिख चुके हैं.)