हिजाब विवाद: क्या मसला असल में धर्मनिरपेक्षता का है या महज़ उपद्रव की साज़िश

कर्नाटक में जो भगवाधारी युवकों-युवतियों की हिंसक और नफ़रतबुझी भीड़ दिख रही है, उसे क्षणिक मानकर निश्चिंत हो जाना ख़तरनाक है. जो इन्हें इकट्ठा कर रहे हैं, वे इन्हें बस एक मौक़े के लिए इस्तेमाल नहीं करेंगे.

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हिजाब विवाद के बीच भगवा शॉल पहनकर जुलूस निकालते कर्नाटक के कुछ छात्र. (साभार: स्क्रीनग्रैब)

कर्नाटक में जो भगवाधारी युवकों-युवतियों की हिंसक और नफ़रतबुझी भीड़ दिख रही है, उसे क्षणिक मानकर निश्चिंत हो जाना ख़तरनाक है. जो इन्हें इकट्ठा कर रहे हैं, वे इन्हें बस एक मौक़े के लिए इस्तेमाल नहीं करेंगे.

हिजाब विवाद के बीच भगवा शॉल पहनकर जुलूस निकालते कर्नाटक के कुछ छात्र. (साभार: स्क्रीनग्रैब)

आपने इस साल के गणतंत्र दिवस के अवसर पर दिल्ली की सरकारी परेड में जिस झांकी को पहला इनाम मिला उसे देखा है या नहीं? वह भारत के शिक्षा मंत्रालय की झांकी थी. थी बड़ी विचित्र और कुछ ऐसी कि देखने पर भी मुंह छिपाने का जी चाहे लेकिन वह आज की सरकार की शिक्षा और संस्कृति की समझ की नुमाइश है, इसलिए उसे गंभीरता से न लेना कठिन है.

वह भारतीय शिक्षा की वेद से मेटावर्स तक की यात्रा की झलक थी. पुरुष ऋषि ध्यान लगाए हुए और उनके नीचे कुछ युवा उछल-कूद करते हुए. उनका नेता एक घुटे, मुंडे सिर का शिखाधारी नौजवान, जिसने भगवा वस्त्र धारण कर रखा है. वह कुछ कर रहा है जिसे राष्ट्रवादी कारणों से सरकार हमें नृत्य की मुद्रा मानने को बाध्य करेगी.

भगवा और शिखाधारी यह पुरुष क्या सामान्य भारतीय युवा वर्ग या छात्र वर्ग का नेता है या प्रतिनिधि? क्या हो सकता है? क्या होना चाहिए? क्या हमें पता नहीं कि इस भगवा वस्त्र के नीचे एक यज्ञोपवीत भी होगा?

आखिर किस दिमाग ने इस झांकी, जो हर लिहाज से हास्यास्पद थी, की कल्पना की होगी? किस नौकरशाह ने इसे स्वीकृत किया होगा? क्या यह दृश्य शिक्षा जगत में समानता, सौहार्द और न्याय या कुल मिलाकर आधुनिकता का प्रतीक हो सकता था? किसी भी कोण से?

लेकिन इसे शिक्षा की भारतीय यात्रा मान लेने में किसी को उज्र नहीं हुआ. अगर हुआ तो किसी ने व्यक्त नहीं किया.

इसे याद रखना ज़रूरी है अगर हम कर्नाटक में जो कुछ हो रहा है उसके पाखंड को ठीक से समझना चाहते हैं. क्योंकि कर्नाटक में हिजाब के साथ छात्राओं को कक्षा में इजाजत न देने के लिए समानता, धर्मनिरपेक्षता के तर्क दिए जा रहे हैं. लेकिन कर्नाटक में हिजाब के बहाने शासक दल की तरफ से जो कुछ भी किया जा रहा है उससे पूरे भारत और हर भारतीय को चिंतित होना चाहिए.

वह अब मध्य प्रदेश, उत्तर प्रदेश, हैदराबाद में फैल गया है. कमल हासन ने आशंका व्यक्त की है कि कहीं यह कर्नाटक से होकर पड़ोसी तमिलनाडु में न प्रवेश कर जाए.

हमें पूरे मसले को भी धैर्य से समझना चाहिए. इस पर हमारा नज़रिया सिर्फ मानवीय और संवैधानिक ही हो सकता है या यूं कहें होना चाहिए.

हालांकि एक महीने से भी ज़्यादा से यह ‘विवाद’ चल रहा है और इस पर अब तक काफी कुछ लिखा और कहा जा चुका है, फिर भी दोबारा सब कुछ दोहराना ज़रूरी है. यह समझना कि आखिर इसे विवाद क्यों बना दिया गया.

दिसंबर के महीने में उडुपी के एक कॉलेज में कुछ मुसलमान छात्राएं हिजाब के साथ पहुंचीं. उन्हें हिजाब के साथ क्लास में बैठने से मना कर दिया गया. उन्हें कहा गया कि वे हिजाब उतारकर ही क्लास कर सकती हैं.

छात्राओं ने हिजाब पर इसरार किया. कॉलेज प्रशासन अड़ गया. उन छात्राओं ने भी बिना हिजाब के क्लास में जाने से इनकार कर दिया. इस गतिरोध की खबर तेजी से बाहर की दुनिया में फैल गई. अगर प्रशासन समझदार होता तो यह मसला ही नहीं बनता. लेकिन उसने हिजाब को छात्राओं की यूनिफॉर्म के हिसाब से असंगत बताया.

छात्राओं का कहना है कि उनकी यूनिफॉर्म बाकी छात्राओं की तरह ही है, सिर्फ वे अपने सिर को ढंक रही हैं और उस आवरण का रंग भी यूनिफॉर्म से अलग नहीं है. लेकिन प्रशासन ने उन्हें क्लास में प्रवेश नहीं दिया.

यह सब कुछ कॉलेज के अध्यापकों और प्राचार्य तक सीमित रहना चाहिए था. अध्यापक होने के नाते मेरे लिए यह समझना मुश्किल है कि क्यों कॉलेज के प्राचार्य और अध्यापकों ने इतना अड़ियल रवैया अपनाया.

क्या किसी दूसरे छात्र ने हिजाब से किसी तरह की परेशानी की शिकायत की थी? क्या किसी की एकाग्रता भंग हो रही थी? क्या परिसर में किसी तरह की असमानता या विभेद पैदा हो रहा था? क्या उसके चलते वैमनस्य फैल रहा था? क्या हिजाब से अध्यापक को पढ़ाने में बाधा पड़ रही थी? अगर ऐसा न था तो क्यों कॉलेज प्रशासन ने हिजाब को लेकर एक संकट पैदा किया?

शायद मामला यही नहीं था. छात्राओं ने खुलकर इसकी शिकायत की है कि उन्हें सलाम करने से रोका जाता था और उर्दू या उनकी स्थानीय बोली बोलने से भी रोका जाता था. क्या इससे यह निष्कर्ष निकलना कठिन है कि हिजाब पर पाबंदी का कारण सांप्रदायिक था?

जो तर्क हिजाब के विरोध में दिया गया, वही उर्दू या सलाम के खिलाफ दिया जा सकता है. वह यह कि ये परिसर में असमानता और वैभिन्न्य पैदा करते हैं.

मामला जब कॉलेज की प्रबंधन समिति के अध्यक्ष के पास गया तो उन्होंने हिजाब को धार्मिक चिह्न बतलाया और कहा कि यह परिसर के धर्मनिरपेक्ष चरित्र से असंगत है. यह पूछने पर कि फिर परिसर में क्यों सरस्वती पूजा होती है, उन्होंने कहा कि वह धार्मिक नहीं सांस्कृतिक और भारतीय है. उसकी तुलना हिजाब से करना उचित नहीं.

इसका तात्पर्य क्या है? क्या जो मूर्तिपूजा नहीं करते, और वे सिर्फ मुसलमान नहीं हैं, हिंदुओं में भी ऐसे आस्तिक हैं, उनके लिए सरस्वती पूजा उतनी ही सहज है जितनी उसके उपासकों के लिए? लेकिन उन्होंने तो कभी इसका विरोध नहीं किया? बाकी छात्र ‘वंदेमातरम’ कहें या ‘भारत माता की जय’ किसी ने ऐतराज तो नहीं किया?

छात्राएं हिजाब को अपनी पहचान से अभिन्न बतला रही हैं. वह धार्मिक है. लेकिन हम सब जानते हैं, और यह बहुतों ने लिखा है कि हिजाब धारण करने के अनेक कारण हो सकते हैं.

वह धार्मिक अभ्यास हो सकता है जो परिवार से ग्रहण किया गया हो. वह बाहर निकल पाने के लिए एक तरीका हो सकता है. वह सामाजिक अनुकूलन भी है. अलग-अलग मुसलमान लड़कियों या औरतों के लिए इसके कारण अलग-अलग हैं. कोई इसे मात्र अपनी पहचान पर बल देने के लिए धारण कर सकती है हालांकि वह पांचों वक्त नमाज़ न पढ़ती हो.

हर मुसलमान औरत या लड़की इसे नहीं पहनती. एक ही घर में एक को इसका पालन करते हुए और बाकी को बिना हिजाब देखा जा सकता है. यानी यह इतना सरल मामला नहीं है. लेकिन अभी इसे मात्र धर्म की बहस बना दिया गया है.

इसी तर्क पर कि यह इस्लाम से अभिन्न है, कर्नाटक की अदालत में शिक्षा संस्थानों में इसे धारण करने की इजाजत के सवाल पर बहस चल रही है. अदालत में एक न्यायाधीश की पीठ को यह प्रश्न कि यह इस्लाम का अनिवार्य और अभिन्न अंग है या नहीं इतना बड़ा लगा कि उन्होंने इसे सुनकर निर्णय लेने में अक्षमता जतलाई और अब तीन न्यायाधीशों की पीठ इसकी सुनवाई कर रही है.

इस मामले को धर्म की बहस बना देने के खतरे से गौतम भाटिया ने सावधान किया है. यह कैसे तय होगा कि मस्जिद इस्लाम से अभिन्न है या नहीं या सामूहिक नमाज़ अनिवार्य है या नहीं? कुरान के किस संस्करण से और किसकी व्याख्या से? उसी प्रकार जैसे राम हिंदू आस्था से अभिन्न हैं या नहीं यह कैसे तय कर लिया गया?

हम जानते हैं कि यह बहुत कुछ न्यायाधीश और बहस के समय के वातावरण पर निर्भर है, जैसे सर्वोच्च न्यायालय ने बाबरी मस्जिद की ज़मीन पर हिंदू पक्ष का मालिकाना हक उनकी इच्छा की प्रबलता के तर्क से सिद्ध किया और उचित ठहराया, यह मानने के बाद कि वह एक ज़िंदा मस्जिद की ज़मीन थी जिसे आपराधिक तरीके से विवादग्रस्त किया गया और फिर ध्वस्त किया गया. उसी तरह यह कह दिया गया कि मस्जिद इस्लाम के लिए अनिवार्य नहीं है.

हिजाब को धार्मिक अनिवार्यता साबित करने पर ही कबूल किया जाएगा, यह त्रुटिपूर्ण तरीका है जैसा गौतम भाटिया ने लिखा है. असल प्रश्न है मेरा शिक्षा का अधिकार. और मेरे चुनाव का अधिकार.

मैं किसी जगह कितने इत्मीनान से पढ़ सकती हूं और वह इत्मीनान मुझे कैसे मिलेगा, यह मैं तय करूंगी. अगर मैं बिना हिजाब के क्लास में इत्मीनान से नहीं बैठ सकती तो आप यह यह नहीं कह सकते कि फिर मत पढ़ो. या मुझे आप अलग कमरे में नहीं बैठने को बाध्य नहीं करेंगे.
यह सीमा भी तय नहीं की जा सकती कि चूड़ी, बिंदी या रक्षाबंधन तो स्वीकार्य हैं लेकिन हिजाब नहीं.

कुछ को सामाजिक परिपाटी कहकर स्वीकार करना और अन्य को धार्मिक कहकर नकार देना गलत है. और फिर हमारा तर्क क्या है? क्या धार्मिक प्रतीक विवाद, भेद, असमानता, उत्तेजना पैदा करते हैं? क्या हम विशुद्ध धर्मनिरपेक्ष सार्वजनिकता के पक्षधर हैं जैसे फ्रांस? या हम यह कहना चाहते हैं कि हिंदू प्रतीकों के अलावा सारे चिह्न विभाजनकारी हैं?

एक कक्षा जिसमें बिंदी, चूड़ी, हिजाब, तिलक, टोपी, किप्पा, पगड़ी पहने छात्र-छात्रा एक साथ बैठे हों तो क्या असमानता और विभेद और विद्वेष पैदा होगा या एक दूसरे के प्रति उत्सुकता और समझदारी पैदा होगी? क्यों एक विशेष पहचान के प्रति संदेह और द्वेष पैदा किया जा रहा है?

ये सारे सवाल ऐसे हैं जिन पर हमें, शिक्षा संस्थानों को व्यापक बहस करनी चाहिए. अगर एक जिम्मेदार सरकार हो तो वह भी समाज में समझ कायम करने की कोशिश करेगी. लेकिन यहां क्या किया गया?

मंत्रियों ने उत्तेजनापूर्ण बयान दिए और फिर कुछ ‘हिंदू’ संगठनों ने हिंदू छात्र-छात्राओं में भगवा गमछे और पगड़ी बांटना शुरू किया. इन संगठनों के नेताओं ने हिंदू युवकों को भगवा पहनकर मुसलमान छात्राओं का विरोध करने को उकसाया.

फिर सैकड़ों भगवाधारी छात्र जगह-जगह, कई शहरों में जय श्रीराम के नारे लगाते हुए, मुसलमान छात्राओं की तरफ हमलावर तरीके से बढ़ते और उन्हें घेरते दिखलाई पड़े. उन्होंने शैक्षणिक संस्थानों पर पत्थरबाजी की. यह भगवा आक्रमण बढ़ता चला गया है. इसके सबूत हैं कि भीड़ इकट्ठा की जा रही है और उसे मुसलमान छात्राओं के खिलाफ हिंसा के लिए भड़काया जा रहा है.

क्या ये छात्र हिजाब से भड़ककर सड़क पर उतर आए हैं? हमें मालूम है कि यह सच नहीं है. जिस छात्रा मुस्कान को घेरा गया था, वह भी कह रही है कि नारे लगाने वाले और आक्रामक युवा प्रायः बाहर के थे. यानी हिंसक भीड़ को संगठित किया जा रहा है.

इस तरह एक हिंसक माहौल बनाया गया और सरकार ने, जो यूं तो सख्त होने का दावा करती है, इस हिंसा को इतना बढ़ने दिया कि बाद में कह सके कि हिजाब के चलते यह हिंसा फैल गई है. यह सबके सामने साफ है कि यह हिंसा ‘हिंदू’ संगठन कर रहे हैं जिनका कोई लेना-देना हिजाब से नहीं है.

कर्नाटक के मांड्या के एक कॉलेज में जय श्रीराम का नारा लगाते हुए पीछा करती भीड़ का जवाब देती छात्रा. (फोटो साभारः ट्विटर)

क्या हिंदू लड़कियों को हिजाब पहनने को मजबूर किया जा रहा है? फिर वे हिजाब के खिलाफ क्यों हिंसा कर रहे हैं? क्या वे परिसर को धर्मनिरपेक्ष बनाए रखने के लिए हिंसा कर रहे हैं? फिर वे भगवा क्यों धारण कर रहे हैं और परिसर में भगवा ध्वज क्यों लहरा रहे हैं?

यह सिर्फ हास्यास्पद नहीं है कि हिंदू लड़कियां धमकी दे रही हैं कि अगर मुसलमान छात्राओं ने हिजाब नहीं छोड़ा तो वे भी साड़ी पहनकर और कुमकुम लगाकर आएंगी. इस विकृति की तरफ उन्हें कौन ले जा रहा है? क्या मुसलमान छात्राओं ने उनके खिलाफ कुछ भी कहा है? वे अपने बारे में बात कर रही हैं. फिर हिंदू लड़कियां उन्हें क्यों धमकी दे रही हैं?

कर्नाटक में जो भगवाधारी युवकों और युवतियों की हिंसक और नफरतबुझी भीड़ दिख रही है, उसे क्षणिक मानकर निश्चिंत हो जाना खतरनाक है. जो इन्हें इकट्ठा कर रहे हैं, वे इन्हें बस एक मौके के लिए इस्तेमाल नहीं करेंगे.

आप वे वीडियो देखें जिनमें ‘हिंदू’ नेता इन युवकों को बाकायदा भगवा गमछा बांट रहे हैं, इन्हें अलग-अलग संस्थानों को निशाना बनाने को उकसा रहे हैं, इन्हें कह रहे हैं कि ये अपने थैलों में भगवा छिपाकर रखें और अंदर जाकर निर्देश मिलते ही पहन लें, यानी उपद्रव की साजिश खुलेआम, ढिठाई के साथ की जा रही है. हिंदू युवकों और युवतियों को अपराधी, हिंसक बनाया जा रहा है. यह मज़ाक नहीं है.

क्या यह सब कुछ सिर्फ इसी समय के लिए है? यह युवा हिंसक भीड़ कर्नाटक, उत्तर प्रदेश, असम, मध्य प्रदेश,राजस्थान, गुजरात, बिहार, हर जगह तैयार की जा रही है.

क्या हिंदू समाज अपने संख्याबल और दूसरों से घृणा के नशे में इतना धुत्त है कि उसे नहीं दिख रहा कि उसके बच्चे आदमखोर बनाए जा रहे हैं? क्या कोई लू शुन हिंदू समाज में नहीं बचा जो कहे कि अपने बच्चों को आदमी के खून, गोश्त की आदत से बचाओ?

(लेखक दिल्ली विश्वविद्यालय में पढ़ाते हैं.)