पड़ताल बताती है कि पूर्वी उत्तर प्रदेश में कोविड से हुईं मौतें सरकारी आंकड़ों से अधिक थीं

सिटिज़न्स फॉर जस्टिस एंड पीस और स्वतंत्र विशेषज्ञों द्वारा एकत्र डेटा बताता है कि पूर्वी उत्तर प्रदेश के चार ज़िलों, ख़ासतौर पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के संसदीय क्षेत्र वाराणसी में 2019 के मुक़ाबले महामारी के दौरान मौत के आंकड़ों में 60% की बढ़ोतरी हुई.

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(प्रतीकात्मक फोटो: रॉयटर्स)

सिटिज़न्स फॉर जस्टिस एंड पीस और स्वतंत्र विशेषज्ञों द्वारा एकत्र डेटा बताता है कि पूर्वी उत्तर प्रदेश के चार ज़िलों, ख़ासतौर पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के संसदीय क्षेत्र वाराणसी में 2019 के मुक़ाबले महामारी के दौरान मौत के आंकड़ों में 60% की बढ़ोतरी हुई.

(प्रतीकात्मक फोटो: रॉयटर्स)

पूर्वी उत्तर प्रदेश के पूर्वांचल क्षेत्र, जिसमें प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का निर्वाचन क्षेत्र वाराणसी भी शामिल है, पर सिटिज़न्स फॉर जस्टिस एंड पीस और स्वतंत्र विशेषज्ञों द्वारा एकत्र किए गए मृतकों के आंकड़े और उनका विश्लेषण भयावह और चौंकाने वाली तस्वीर सामने लाता है. इसके अनुसार, राज्य में कोविड-19 महामारी से मरने वाले लोगों की संख्या आश्चर्यजनक रूप से काफी अधिक है.

जिन क्षेत्रों में सर्वेक्षण किया गया था, वहां जनवरी 2020 से अगस्त 2021 के दौरान मृत्यु दर में लगभग 60% का इजाफा देखा गया. यह बढ़ोतरी 2019 की अपेक्षित दर और यहां तक कि महामारी से पहले राज्य में मृत्यु दर के सरकारी आंकड़ों से कहीं अधिक है.

यदि इन क्षेत्रों की तरह ही पूरे प्रदेश में मृत्यु दर में इसी तेज़ी के साथ वृद्धि हुई है तो पूरे राज्य में महामारी के दौरान 14 लाख के आसपास लोगों की मौत संभव है, जो संभवतः राज्य सरकार द्वारा दिए कोविड-19 मृतकों के आंकड़े- 23,000 से लगभग 60 गुना अधिक है.

ऐसे में यह आंकड़े बताते हैं कि महामारी के दौरान उत्तर प्रदेश देश में सबसे ज़्यादा प्रभावित और महामारी से प्रभावित राज्य रहा है. इतना ही नहीं बल्कि यह आंकड़ा राज्य में मौतों को दर्ज करने में सबसे कमजोर साबित हुए राज्य के रूप में भी चिह्नित करता है.

उल्लेखनीय है कि इस राज्य में बीते 10 फरवरी को विधानसभा चुनाव के लिए मतदान शुरू हो चुका है.

विवरण

कोविड-19 महामारी ने पूरे भारत में भारी तबाही मचाई है. हालांकि, अधिकारिक आंकड़े इस दुख के बहुत छोटे अंश को ही प्रदर्शित करते हैं. अलग-अलग स्वतंत्र रिपोर्ट और अध्ययनों से पता चलता है कि भारत में कोविड-19 से हुई मौतों की संख्या को या तो बहुत ही कम बताया गया है, या उसे दर्ज ही नहीं किया गया है.

नागरिक पंजीकरण सांख्यिकी (Civil Registration Statistics या सीआरएस) और आंकड़े का इस्तेमाल करके अकादमिक अध्ययन के माध्यम से किए गए विभिन्न सर्वेक्षण बताते हैं कि भारत में महामारी से होने वाली मौतों की संख्या संभावित रूप से 30 लाख से अधिक है.

हालांकि, भारत के सबसे बड़े राज्य उत्तर प्रदेश में मौत से जुड़े आंकड़ों की संख्या बहुत ही कम करके दिखाई गई है. उत्तर प्रदेश में अधिकारिक रूप से कोविड-19 से मारे गए लोगों की संख्या लगभग 23,000 बताई गई है. आईआईटी कानपुर की एक रिपोर्ट राज्य सरकार का शुक्रिया करते हुए दावा करती है कि उसके द्वारा प्रभावी इंतजाम के चलते कोविड-19 के प्रकोप का राज्य पर बहुत ही सीमित असर पड़ा है.

दूसरी तरफ, खासतौर से कोविड-19 की दूसरी लहर के दौरान मई 2021 के आसपास मीडिया रिपोर्टस राज्य में हो रहीं व्यापक मौतों, गंगा में बहती लाशों और ऑक्सीजन की कमी से दम तोड़ते मरीजों की मौत की कहानियों से भरी हुई थी.

कोरोना की दूसरी लहर के दौरान मई 2021 में इलाहाबाद के एक गंगा घाट पर दफ़न शव. (फोटो: पीटीआई)

अधिकारिक दावे और ज़मीनी रिपोर्ट पूरी तरह से अलग-अलग कहानियां बयान करती नज़र आती हैं. ऐसे में, सच क्या है? हमने इसकी तह में जाने के लिए यूपी में कोविड-19 से हुई मौतों के दावों संबंधी सार्वजनिक आंकड़ों का इस्तेमाल करने का फैसला किया.

नवंबर-दिसंबर 2021 के दौरान सिटिज़न्स फॉर जस्टिस एंड पीस (उत्तर प्रदेश) की टीम ने 2017 से अगस्त 2021 के दौरान हुई मृत्यु के आंकड़े को एकत्रित करने का बीड़ा उठाया. यह आंकड़े पूर्वी उत्तर प्रदेश के पूर्वांचल क्षेत्र के गांवों और शहरी क्षेत्रों के स्थानीय कार्यालयों के द्वारा तैयार किए गए थे.

हम 129 क्षेत्रों से मौत के पूरे रिकॉर्ड हासिल करने में सफल रहे. इन 129 क्षेत्रों में बड़ा हिस्सा वाराणसी और गाजीपुर जिले का है. इन आंकड़ों का बुनियादी विश्लेषण और साथ ही उत्तर प्रदेश की मृत्यु दर पर सरकारी आंकड़ों के आधार पर पड़ताल करने से पता चलता है कि पिछले वर्षों की तुलना में 2020-2021 में मरने वाले लोगों की संख्या में भारी इजाफा हुआ है.

निश्चित तौर पर सभी मौतों के लिए कोविड-19 को ज़िम्मेदार नहीं ठहराया जा सकता है, लेकिन यह कहना उचित होगा कि महामारी ने मृत्यु दर में बढ़ोतरी में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है. समझते हैं कैसे.

आंकड़ों को एकत्रित करना

हम जिन क्षेत्रों में गए वहां टीम को मृत्यु रिकॉर्ड एकत्रित या हासिल करने के दौरान बहुत-सी चुनौतियों और मुश्किलों का सामना करना पड़ा. हमने चार जिलों- वाराणसी, गाजीपुर, जौनपुर और चंदौली के कई क्षेत्रों से आंकड़े जुटाने का प्रयास किया था पर अधिकांश आंकड़े वाराणसी और गाजीपुर जिले से ही हासिल हो सके.

आंकड़े जुटाने के दौरान हमारी टीम नगर निगम कार्यालय, ग्राम पंचायत कार्यालय और श्मशानों से लेकर कब्रिस्तानों तक गई और साथ ही गांव के मुखिया और सचिव के अलावा आशा कार्यकर्ताओं से भी मदद मांगी. बहुत से क्षेत्रों में आंकड़े नहीं मिल सके क्योंकि या तो मृत्यु का रिकॉर्ड रखा ही नहीं गया था या हमें नहीं दिया गया.

इन सब मुश्किलों के बावजूद हम अंततः 2017 से लेकर अगस्त 2021 तक के 147 ग्रामीण और शहरी इलाकों के आंशिक या पूर्ण मृत्यु रिकॉर्ड हासिल करने में सफल हुए. खासतौर से, वाराणसी जिले के ग्रामीण अधिकारी और आशा कार्यकर्ताओं के सहयोग से ही यह आंकड़े मिल सके.

आंकड़ों में रुझानों की स्थिति का आकलन करने के लिए हमने केवल 2017 में दर्ज हुई मौतों के पूर्ण रिकॉर्ड वाले क्षेत्रों की संख्या का इस्तेमाल किया. उन 17 क्षेत्रों का विश्लेषण नहीं किया गया, जिनका सभी वर्षों का रिकॉर्ड उपलब्ध नहीं था. इसके अलावा ऐसे क्षेत्र जिनकी जनसंख्या के सटीक आंकड़े नहीं थे, उनको भी छोड़ दिया गया.

इस तरह से जिन 129 क्षेत्रों का हमने विश्लेषण किया, उनमें से 79 ग्रामीण इलाके थे और 50 शहरी. इन 129 क्षेत्रों में से 104 वाराणसी जिले के अंतर्गत आते हैं, जबकि 23 गाजीपुर जिले का हिस्सा हैं और एक-एक जौनपुर और चंदौली का है.

जिन 129 क्षेत्रों का हमने विश्लेषण किया उनमें 2021 में तकरीबन 2.8 लाख की जनसंख्या थी. इसमें से लगभग 43,000 लोग शहरी इलाके के मोहल्लों में रहते थे जबकि बाकी आबादी ग्रामीण इलाके में रहती थी. इस तरह से सर्वेक्षण की गई जनसंख्या का तकरीबन 85% हिस्सा ग्रामीण था. कुल मिलाकर उत्तर प्रदेश की कमोबेश स्थिति ऐसी ही है: सरकारी आंकड़ों के मुताबिक यहां लगभग 76% जनसंख्या ग्रामीण क्षेत्रों में निवास करती है.

परिणाम

2017 से लेकर अगस्त 2021 के दौरान 129 क्षेत्रों में मरने वालों की संख्या नीचे की तालिका में दी गई है. 

हमने पाया कि महामारी से पहले के वर्षों में इन इलाकों में साल-दर-साल दर्ज की गई मौतों की संख्या में उल्लेखनीय बढ़ोतरी हुई थी. यकीनन, 2017 और 2018 के दौरान दर्ज की गई मौतों में 9% की बढ़ोतरी हुई थी और फिर 2018 और 2019 के बीच 23% की बढ़ोतरी दर्ज की गई.

यह इस कारण से भी संभव है कि बाद में बेहतर रिकॉर्ड-कीपिंग या सही तरीके से आंकड़ों को इकट्ठा करने की वजह से इस तरह का परिणाम सामने आया हो.

असल में तो कुछ स्थानीय अधिकारियों ने हमारी टीम के समक्ष इस बात को स्वीकार किया कि उन्होंने गांव में होने वाली सभी मौतों का रिकॉर्ड नहीं रखा है. उन्होंने बताया कि वे उसी मृत्यु का पंजीकरण करते हैं जो उनके पास मृत्यु प्रमाण-पत्र प्राप्त करने के लिए आते हैं.

उन्होंने यह भी बताया कि मृत्यु का प्रमाण-पत्र या मृतक व्यक्ति का नाम मृत्यु रजिस्टर में दर्ज करने की जरूरत आमतौर पर उसी परिवार को होती है जिसे पेंशन लाभ मिल रहा हो, या जीवन बीमा के लिए दावा पेश करना हो, संपत्ति ट्रांसफर करनी हो या फिर बैंक खातों से जुड़ी हुई जरूरतों को पूरा करना हो. ऐसे में ही संबंधियों को मृत्यु प्रमाण-पत्र की जरूरत पड़ती है.

ऐसा लगता है कि समय के साथ अधिक से अधिक परिवार स्थानीय अधिकारियों के समक्ष मृत्यु संबंधी जानकारी देने लगे हैं.

महामारी के दौरान हमने मृत्यु दर में भारी इजाफा देखा है. इस लिहाज से क्या यह समझा जाए कि और अधिक परिवारों को मृत्यु प्रमाण-पत्र की जरूरत को ध्यान में रखते हुए इस रिकॉर्ड-कीपिंग में सुधार हुआ होगा? क्या इसके जरिये 2019 और 2020 के दौरान और फिर 2020 और अगस्त 2021 के बीच मृत्यु दर में हुई वृद्धि की व्याख्या की जा सकती है? बारीकी से देखने पर पता चलता है कि यह बिल्कुल असंभव है. ऐसा क्यों? इसे जानने की कोशिश करते हैं.

हम अपने आंकड़ों के जरिये प्रत्येक समयावधि के लिए वार्षिक क्रूड डेथ रेट (सीडीआर) की गणना कर सकते हैं, यानी सर्वेक्षण की गई आबादी में प्रति वर्ष प्रति 1,000 आबादी पर होने वाली मौतों की संख्या को दर्ज किया जा सकता है.

यह संख्या नीचे की तालिका में दी गई है.

2019 नमूना पंजीकरण प्रणाली (एसआरएस) बुलेटिन में सरकारी अनुमानों के अनुसार, समग्र रूप से उत्तर प्रदेश के लिए वास्तविक सीडीआर 6.5 (ग्रामीण क्षेत्रों में 6.9 और शहरी क्षेत्रों में 5.3) है. ग्रामीण-शहरी मिश्रित आबादी के सर्वेक्षण के आधार पर हम उम्मीद करते है कि सर्वेक्षण किए गए क्षेत्रों में सीडीआर 6.7 के आसपास रहेगा. हम पाते हैं कि 2019 तक दर्ज जनसंख्या आंकड़ों में सीडीआर 6.4 था, जो राज्य सरकार की उम्मीद के काफी करीब रहा. इस संख्या को बढ़ाने के लिए रिपोर्ट दर्ज करने में और अधिक सुधार की गुंजाइश नहीं बचती.

गौरतलब है कि मृत्यु रिकॉर्ड के अनुसार 2017-2019 में यानी महामारी से पहले के वर्षों के दौरान सीडीआर बढ़ रहा था. निस्संदेह यह मृत्यु दर में वृद्धि का संकेत नहीं था बल्कि मृत्यु पंजीकरण की बेहतरी को दिखाता है.

यह महत्वपूर्ण है कि 2020 में इन क्षेत्रों में सीडीआर तकरीबन 15 से 20% ज़्यादा है जो 2019 के अनुमानित आंकड़ों या फिर वार्षिक एसआरएस के राज्यव्यापी अनुमानों की उम्मीदों से अधिक है. हम पाते हैं कि जनवरी-अगस्त 2021 के दौरान यह मृत्यु दर दोगुनी से भी अधिक हो गई थी जो आश्चर्यजनक रूप से चौंकाने वाला है.

यदि यह मान भी लिया जाए कि उत्तर प्रदेश में महामारी से पहले के वर्षों में एसआरएस को कम आंका गया, और यह भी मान लें कि महामारी के दौरान रिकॉर्ड-कीपिंग बहुत बेहतर तरीके से की गई (वास्तव में जो संभव नहीं है, खासतौर से लॉकडाउन के दौरान जब मृत्यु पंजीकरण में काफी मुश्किलें आ रही थी). इसके बावजूद महामारी के दौरान होने वाली मौतें उम्मीद से कहीं अधिक हैं.

दर्ज मौतों में इतनी ज़्यादा बढ़ोतरी समझ से परे है. दरअसल मौतों में हुई यह बढ़ोतरी यकीनी तौर पर दर्शाती है कि मरने वालों की संख्या, सरकार द्वारा बताई गई संख्या से कहीं अधिक है.

हम मृत्यु दर में इस उछाल को समझने के लिए ग्रामीण और शहरी क्षेत्रों को अलग-अलग करके और बेहतर जानकारी पाने की कोशिश कर सकते हैं. ग्रामीण और शहरी आंकड़ों का विश्लेषण और पड़ताल करते हुए हमें निम्न वार्षिक सीडीआर वैल्यू मिलती है.

सर्वेक्षण किए गए क्षेत्रों में हमने देखा कि 2020 के दौरान सीडीआर में वृद्धि मुख्यतः शहरी इलाकों में हुई मौतों के कारण से ज़्यादा है. लेकिन ऐसा मान लेना या दावा करना कि ग्रामीण इलाकों में मृत्यु दर में वृद्धि नहीं हुई, सही नहीं होगा. यहां यह ध्यान देने वाली बात है कि 2019 से 2020 के बीच मामूली ही सही पर यह स्पष्ट है कि गांव में भी मौतें होने की ख़बरें है. 

जनवरी-अगस्त 2021 के दौरान ग्रामीण और शहरी दोनों ही इलाकों से अचानक मरने वालों की संख्याओं में बढ़ोतरी हुई. बेशक, ग्रामीण क्षेत्रों में पहले आठ महीनों के दौरान 2019 के आंकड़ों की तुलना दोगुनी थी. और एआरएस अनुमानित ग्रामीण सीडीआर के आधार पर अपेक्षा से लगभग 80% अधिक था.

यह उछाल कोविड की दूसरी लहर के दौरान भी नजर आता है जहां राज्य के शिक्षकों और उत्तर प्रदेश के गांवों में वायरस के चलते हुई तबाही के मंजर को हिंदी प्रेस लगातार रिपोर्ट के माध्यम से सामने ला रही थी.

पूरे उत्तर प्रदेश में महामारी से हुई अतिरिक्त मौतों का अनुमान

यकीनी तौर पर यह नहीं कह सकते कि जो स्थिति पूर्वांचल के उन हिस्सों में थी जहां हम गए, वही स्थिति पूरे राज्य में सभी जगहों पर थी. लेकिन यह सवाल जरूर उठा सकते हैं कि यदि सर्वेक्षण वाले इलाके में जो मृत्यु-दर देखी गई, वही पूरे राज्य में रही हो तो यह प्रदेश में कोविड से हुई मौतों के बारे में क्या बताता है?

जनवरी 2020 से अगस्त 2021 तक यानी इन 20 महीनों के दौरान हुई मौतों का जो आंकड़ा सर्वेक्षण टीम ने इस क्षेत्र में जुटाया वहां अनुमान से कहीं 55 से 60% अधिक मौतें दर्ज हुई. जिसका अर्थ यह है कि यदि पूरे उत्तर प्रदेश में 20 महीनों की अवधि के दौरान 55 से 60% की वृद्धि होती है तो अतिरिक्त मौतों का आंकड़ा करीब 14 लाख का होगा.

इस आंकड़े को समझने के लिए ध्यान रखें कि एसआरएस और नागरिक पंजीकरण डाटा के आधार पर किसी एक सामान्य वर्ष में उत्तर प्रदेश में लगभग 15 लाख लोगों की मौतें होने का अनुमान रहता है. ऐसे में राज्य में महामारी से मरने वालों की यह अतिरिक्त संख्या लगभग पूरे एक साल में होने वाली मौतों के बराबर है.

इस चौंकाने वाले आंकड़े को लेकर एक और नजरिया है कि 2021 के अनुसार उत्तर प्रदेश की आबादी लगभग 23 करोड़ है. इसका अर्थ है कि यह 14 लाख लोग उत्तर प्रदेश की अनुमानित आबादी का लगभग 0.6% आबादी है. इसका मतलब यह है कि राज्य की 0.6% जनसंख्या महामारी के चलते वक़्त से पहले मौत के आगोश में चली गई.

इसकी तुलना भारत के दूसरे हिस्सों में फैली महामारी से कैसे की जाए?

यह बढ़ोतरी काफ़ी ज़्यादा है. आंध्र प्रदेश राज्य के पास बेहतरीन नागरिक पंजीकरण डेटा मौजूद है और इस प्रदेश ने भारत में सबसे अधिक महामारी से मरने वालों की सूचना दी है.

आंध्र प्रदेश में अनुमानित मृत्यु दर राज्य की जनसंख्या के 0.5% से कुछ अधिक रही है इसलिए हमारा सर्वेक्षण बताता है कि जब भी महामारी से मौत के तांडव की बात आएगी, तो उत्तर प्रदेश, आंध्र प्रदेश से कहीं अधिक भयावह स्थिति को दर्शाएगा. बल्कि यूं कहा जाए कि भारत में शायद सबसे ज़्यादा भयावह स्थिति का मंजर पेश करेगा.

परिणाम को कैसे समझें

जैसे ही हम नतीजे की तरफ बढ़े, उपलब्ध आंकड़ों ने हमारे डरों को सामने ला दिया- असल में कोविड-19 ने पूर्वांचल के हर शहर और गांव में मौत की भयानक छाप  छोड़ी थी.

आंकड़ों में जो विवरण है उसकी पुष्टि कई तरह के साक्ष्यों द्वारा की गई थी. सामाजिक विज्ञान की शोधकर्ता डॉक्टर मुनीज़ा खान, जिन्होंने इन आंकड़ों को संकलित किया है, बताती हैं, ‘हम इन चार जिलों में इतनी भारी तादाद में हुई मौतों की संख्या से हैरान हैं. आशा कार्यकर्ताओं और सरपंचों का कहना है कि उन्होंने ऐसा कोई घर नहीं देखा जहां कोविड-19 के कारण किसी की मौत न हुई हो.’

डॉक्टर मुनीज़ा याद करते हुए बताती हैं कि किस तरह पीड़ित परिवारों के सदस्य आदिकेशव घाट पर उमड़े थे, जहां कोविड-19 से मरने वालों के शवों को उनके अंतिम संस्कार के लिए भेजा गया था.

डॉक्टर खान बताती हैं कि घाट पूरी तरह मृतकों के परिवार वालों से भरा हुआ था जो अपने प्रियजनों को आख़िरी विदा के लिए वहां अपनी बारी का इंतज़ार कर रहे थे. जबकि अंतिम संस्कार करने वाले लोगों को दाह संस्कार के लिए लकड़ी हासिल करने के लिए संघर्ष करना पड़ रहा था.

वे बताती हैं, ‘अंततः लकड़ियां खत्म हो गईं. फिर क्या था, जो शव पूरी तरह से नहीं जल पाए थे, उन्हें ऐसे ही गंगा में फेंक दिया गया. फिर भी यहां लंबी कतारें लगी रहीं.’

अस्पताल और श्मशान ही नहीं, बल्कि कब्रिस्तान में भी लंबी कतारें लगी हुई थीं. यहां तक कि दूसरे अल्पसंख्यक समुदायों के यहां भी कुछ ऐसा ही वीभत्स मंजर देखा जा रहा था. कब्रिस्तानों में काम करने वाले लोग ओवरटाइम कर रहे थे. वे कब्र खोद रहे थे यहां तक कि जब जगह खत्म हो गई तब भी लोग बाहर खड़े इंतज़ार कर रहे थे.

बनारस के रामनगर इलाके में इसी तरह काम करने वाले एक शख्श ने सीजेपी की टीम को बताया, ‘मैं दिन भर कब्र खोदता रहा पर कब्रिस्तान के बाहर लगी कतार छोटी ही नहीं हो रही थी.’

(प्रतीकात्मक फोटो: पीटीआई)

यह भी उल्लेखनीय है कि मुसलमानों, ईसाइयों और अन्य अल्पसंख्यकों के लिए भारत भर में कई कब्रिस्तान हैं, जहां वे शवों को दफनाते हैं, पर शवों की संख्या इतनी अधिक थी कि नए शवों को दफनाने के लिए पुरानी कब्रों को भी खोदकर उनका इस्तेमाल करना पड़ा.

इस त्रासदी को राज्य की बदहाल स्वास्थ्य सेवा और कल्याणकारी बुनियादी ढांचे की गैरमौजूदगी ने और भी भयावह बना दिया. राहत कार्य के दौरान पहले ही सीजेपी टीम ने देखा था कि कैसे ग्रामीण क्षेत्रों में स्वास्थ्य सेवाएं नदारद रहती हैं. कई परिवार टीम के कार्यालय पर दवाइयां और ऑक्सीमीटर लेने के लिए आते थे. शहर और गांव दोनों ही जगह पर शिक्षा और तीनों समय मिलने वाला भोजन हर रोज की चुनौती बन चुका था.

डॉक्टर मुनीजा ने बताया कि एक बुज़ुर्ग ने उनसे कहा कि पिछले दो साल मेरे जीवन के सबसे दर्दनाक साल रहे हैं और वे इस समय को कभी याद भी नहीं करना चाहते.

निष्कर्ष

हमने अपने शोध और पड़ताल में पाया कि वाराणसी और उसके आसपास के इलाकों में महामारी के दौरान हुई मौतों की संख्या में आश्चर्यजनक रूप से बढ़ोतरी हुई है. यह उस ‘व्यवस्थित महामारी की अधिकारिक कहानी’ से बिल्कुल ही अलग है, जहां महामारी के प्रभाव को बहुत सीमित करके दिखाया गया है.

यहां तक कि, कुछ क्षेत्रों में लोगों ने हमें बताया कि प्रत्येक घर ने अपने परिवार से किसी न किसी को महामारी और स्वास्थ्य सेवाओं की बदहाली के कारण खोया है.

जहां 2021 में दूसरी लहर के दौरान मृत्यु दर में भारी वृद्धि हुई थी, संभवतः 2020 के दौरान भी काफी संख्या में मौतें हुईं. हालांकि 2020 में हुई अतिरिक्त मौतें शहरी क्षेत्रों तक ही ज़्यादा थी लेकिन जिन ग्रामीण क्षेत्रों का हमने सर्वेक्षण किया वहां पाया कि 2019 की तुलना में 2020 में इन क्षेत्रों में भी 20% अधिक मौतें हुईं.

शायद ही ऐसा कोई पुख्ता सबूत हो जो इस स्थिति के लिए रिकॉर्ड-कीपिंग को दर्शाता हो. इसके विपरीत देश के कई हिस्सों के आंकड़ों से पता चलता है कि 2020 के शुरुआती दौर में  मृत्यु पंजीकरण में गिरावट आई थी. इसका महत्वपूर्ण कारण राष्ट्रव्यापी लॉकडाउन का होना था.

हमारे सैंपल से पता चलता है कि जनवरी से अगस्त 2021 तक मरने वालों की संख्या 2019 के आंकड़ों और एसआरएस के अनुमान की तुलना में दो गुनी थी. इस जनसंख्या को आधार मानकर आठ महीने की अवधि में 2019 के रिकॉर्ड के अनुसार या एसआरएस में अनुमानित राज्य की मृत्यु दर के अनुसार 1,200 मौतों का अनुमान था, लेकिन हमने उस इलाके में 2,570 मौतों का आंकड़ा दर्ज किया.

हालांकि हमने जिस आबादी का सर्वेक्षण किया वह अधिकांशतः वाराणसी जिले के इर्द-गिर्द रहती है, पर हमारा आंकड़ा बताता है कि खासतौर से दूसरी लहर के दौरान उत्तर प्रदेश बहुत बुरी तरह से प्रभावित हुआ था.

यह अत्यंत जरूरी है कि राज्य के दूसरे हिस्सों का भी सर्वेक्षण हो ताकि कोविड-19 महामारी के प्रभाव का सही और सटीक आकलन किया जा सके और साथ ही राज्य में सरकार के द्वारा परदे के पीछे से जिस तरह का दुष्प्रचार चलाया जा रहा है उसकी असलियत को सामने लाया जाए ताकि लोगों को पता चल सके कि इस राज्य में कितने जीवन समय से पहले ही समाप्त हो गए.

इस रिपोर्ट को तैयार करने में मदद के लिए द वायर मुराद बानाजी का शुक्रिया अदा करता है.

इस लेख में इस्तेमाल किए गए आंकड़े और शोध व सर्वेक्षण की प्रविधि व कार्यप्रणाली पूरे विवरण सहित एक मुकम्मल रिपोर्ट के साथ सीजेपी की वेबसाइट पर उपलब्ध कराए जाएंगे.

(इस रिपोर्ट को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें.)