यह प्रदर्शन उस समय शुरू हुए, जब झारखंड सरकार ने हाईस्कूल और इंटरमीडिएट उत्तीर्ण उम्मीदवारों के चयन के लिए दो ज़िलों- बोकारो और धनबाद में क्षेत्रीय भाषाओं के रूप में मगही और भोजपुरी को शामिल किए जाने के लिए अधिसूचना जारी की थी. ये आंदोलन बड़े पैमाने पर इन्हीं ज़िलों में हो रहे हैं, जहां प्रदर्शनकारियों का कहना है कि यहां बहुत ही छोटी आबादी भोजपुरी और मगही बोलती है.
रांचीः झारखंड के कई हिस्सों में जिला स्तरीय नियुक्तियों के लिए सरकारी परीक्षा में भोजपुरी और मगही को शामिल किए जाने के विरोध में प्रदर्शन हो रहे हैं.
इंडियन एक्सप्रेस की रिपोर्ट के मुताबिक, ये आंदोलन बड़े पैमाने पर बोकारो और धनबाद में हो रहे हैं, जहां प्रदर्शनकारियों का कहना है कि इन इलाकों में बहुत ही छोटी आबादी भोजपुरी और मगही बोलती है.
हालांकि, अब यह प्रदर्शन गिरिडीह और रांची में भी फैल रहा है.
इस विरोध प्रदर्शन की अगुवाई मूलवासियों और आदिवासियों के संगठन ‘झारखंड भाषा संघर्ष समिति’ कर रहा है, जिसका दावा है कि वह अराजनीतिक संगठन है.
यह समिति इस मुद्दे पर पचास से अधिक सभाओं को संबोधित कर चुकी है, जिसमें बीते कुछ दिनों में बड़ी संख्या में भीड़ उमड़ी है.
इसके सदस्यों में से एक तीर्थनाथ आकाश का कहना है कि विरोध का उद्देश्य दो जिलों (बोकारो और धनबाद) में इन भाषाओं को शामिल करने के खिलाफ राज्य सरकार पर दबाव बनाना है.
प्रदर्शनकारियों ने भूमि अभिलेखों के प्रमाण को ध्यान में रखते हुए वर्तमान में जारी 1985 के बजाय 1932 को कट-ऑफ वर्ष रखने की मांग की है.
ये प्रदर्शन उस समय शुरू हुए जब झारखंड सरकार ने हाईस्कूल और इंटरमीडिएट उत्तीर्ण उम्मीदवारों के चयन के लिए दो जिलों में क्षेत्रीय भाषाओं के रूप में मगही और भोजपुरी को शामिल किए जाने के लिए 23 दिसंबर 2021 को अधिसूचना जारी की थी.
यह अधिसूचना जिलास्तरीय नियुक्तियों के लिए थी और राज्यव्यापी चयन प्रक्रिया पर लागू नहीं होती. फिलहाल किसी वैकेंसी का विज्ञापन नहीं दिया गया है.
सत्तारूढ़ झारखंड मुक्ति मोर्चा और कांग्रेस ने अभी तक इस मुद्दे से दूरी बनाकर रखी है. भाजपा ने भी इस पर स्पष्ट रूप से कुछ नहीं कहा.
इस बीच राज्य की डोमिसाइल नीति विवादित मामला बनी रही है.
रिपोर्ट के अनुसार, साल 2000 में झारखंड का गठन होने के बाद राज्य के पहले मुख्यमंत्री बाबूलाल मरांडी ने ‘झारखंडी’ शब्द को परिभाषित करना जरूरी समझा, ताकि इससे स्थानीय लोगों को सरकारी नौकरियों सहित लाभ पहुंचने में मदद मिल सके.
हालांकि, 2003 में इस मामले पर मरांडी ने इस्तीफा दे दिया. मौजूदा झारखंड मुक्ति मोर्चा सरकार ने एक कैबिनेट उपसमिति का गठन किया है, ताकि दोबारा यह परिभाषित किया जा सके कि किसे राज्य का मूल निवासी माना जाए.
पूर्व मुख्यमंत्री रघुबर दास की सरकार 2016 में एक अधिक ‘लचीली डोमिसाइल नीति’ लेकर आई थी, जिसमें पिछले 30 वर्षों के लिए एक श्रेणी के रूप में रोजगार शामिल था और इसमें अनिवार्य रूप से कट-ऑफ वर्ष 1985 रखा गया था.
आकाश ने कहा कि वे बीते छह से सात सालों में इस क्षेत्र में काम कर रहे हैं.
उन्होंने कहा, ‘हमने रघुबर दास की डोमिसाइल नीति का विरोध किया था और जब उन्होंने संथाल परगना और छोटानागपुर किरायेदारी अधिनियम में बदलाव का प्रयास किया था, तब भी विरोध जताया था. लोगों में गुस्सा था और कुछ निश्चित भाषाओं को शामिल किए जाने पर यह गुस्सा और बढ़ा क्योंकि इससे सरकारी नौकरियों से उन्हें हाथ धोना पड़ता.’
यह पूछने पर कि रैलियों में इतनी भीड़ कैसे आती है? इस पर उन्होंने कहा, ‘हम उन्हें बुलाते भी नहीं. वे हमें बुलाते हैं.’
आकाश ने कहा, ‘भाषा बहुत ही महत्वपूर्ण मुद्दा है. उदाहरण के लिए बोकारो, धनबाद में बहुत ही छोटी आबादी है, जो भोजपुरी और मगही बोलती है तो इन जिलों में इन भाषाओं को शामिल करने का कोई मतलब नहीं है. हम लातेहार, गढ़वा और पलामू क्षेत्रों में इन भाषाओं को शामिल करने का विरोध नहीं कर रहे, क्योंकि हम जानते हैं कि इन इलाकों में एक बड़ी आबादी ये भाषाएं बोलती हैं.’
रिपोर्ट के अनुसार, विपक्ष के एक धड़े का कहना है कि ये प्रदर्शन राज्य के शिक्षा मंत्री जगरनाथ महतो के उस हालिया बयान की वजह से शुरू हुए, जिसमें उन्होंने धनबाद और बोकारो इलाकों से इन भाषाओं को हटाने का समर्थन किया था.
गिरिडीह जिले के डुमरी निर्वाचन क्षेत्र से आने वाले शिक्षा मंत्री ने कहा था कि उन्होंने कैबिनेट से भी इन्हें क्षेत्रीय भाषाओं के रूप में हटाने को कहा था.
उन्होंने ट्वीट कर कहा, ‘झारखंड की सरकार झारखंडियों ने बनाई है और यहां उनकी बात सुनी जाएगी.’
इस पर भोजपुरी, मगही, मैथिली अंगिका मंच, जो राजद लोकतांत्रिक द्वारा समर्थित है, ने कहा था कि झारखंड राज्य के लिए भोजपुरी और मगही भाषा बोलने वाले कई लोगों का ‘बहुत बड़ा योगदान’ रहा है.
इसके अध्यक्ष कैलाश यादव ने कहा, ‘हम शिक्षा मंत्री से अनुरोध करते हैं कि बिहारियों को सम्मान की नजर से देखें और जनता के विचारों का ध्रुवीकरण न करें.’