जिस राष्ट्रवाद की आड़ लेकर भाजपा और उसके नेता अनेक नागरिकों को देशद्रोही क़रार देते हैं, उसी पार्टी के एक मुख्यमंत्री का मतदान से ऐन पहले उत्तर प्रदेश को केरल, बंगाल या कश्मीर बनने से रोकने के लिए प्रेरित करना न सिर्फ इन राज्यों के लोगों का अपमान है बल्कि पार्टी की संकुचित राष्ट्रवाद की परिभाषा पर भी सवाल उठाता है.
आदर्श चुनाव आचार संहिता की बात तो अब छोड़ ही दीजिए. वह कहती रहे कि चुनाव में भाग ले रहा कोई दल या उम्मीदवार ऐसी किसी गतिविधि में शामिल नहीं हो सकता, जिससे जातियों और धार्मिक या भाषायी समुदायों के बीच पहले से मौजूद मतभेद और गंभीर हो जाएं.
पांच राज्यों में हो रहे विधानसभा चुनावों के सिलसिले में इस संहिता को लेकर चुनाव आयोग के रवैये ने, कम से कम उत्तर प्रदेश में, ऐसा माहौल बना डाला है जिससे लगता है कि वह विपक्षी दलों के लिए कुछ और है, जबकि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी, गृहमंत्री अमित शाह व मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ समेत भारतीय जनता पार्टी के नेताओं के लिए कुछ और.
लेकिन, जैसे कहते हैं कि हर बुरे में कुछ अच्छा भी छिपा रहता है, चुनाव आयोग के इस रवैये से गत दस फरवरी को देश को तब थोड़ा ‘लाभ’ हासिल होता दिखा, जब आयोग का कोई अंकुश महसूस न कर रहे योगी आदित्यनाथ ने पश्चिमी उत्तर प्रदेश के 11 जिलों की 58 विधानसभा सीटों के पोलिंग बूथों की ओर जा रहे मतदाताओं को अनुचित रूप से प्रभावित करने के फेर में अपनी जमात के संकीर्ण राष्ट्रवाद की कलई भी उतार डाली.
यही राष्ट्रवाद है जिसकी आड़ लेकर उनकी पार्टी, उसके नेता व सरकारें न सिर्फ अनेक देशवासियों की देशभक्ति पर शक करतीं बल्कि उन्हें देशद्रोही आदि करार देकर प्रताड़ित करने और नाना प्रकार के भयों व अविश्वासों को घना करने में लगी रहती हैं!
यकीनन, यह विश्वास करने के कारण हैं कि योगी ने ऐसा किसी सदाशयता से नहीं, हर हाल में सत्ता में वापसी के अपने इरादे के तहत ही किया. हो सकता है, तत्काल समझ ही नहीं पाए हों कि अपने इरादों को यों कलई करना घृणा के उनके ‘राष्ट्रवादी’ खेल के अंतिम लज्जावसन भी छीन ले रहा है. अगर इस ‘राष्ट्रवाद’ के पास उनके जैसे ‘नायक’ हैं तो उसे किसी दुश्मन की भला क्या जरूरत?
सोचिए जरा, मतदाता पोलिंग बूथों की ओर जा रहे थे तो मुख्यमंत्री के तौर पर उनका स्वाभाविक कर्तव्य क्या था? यही तो कि वे उनसे सारे अंदेशों को दरकिनार कर निर्भय होकर मतदान करने की अपील करें. लेकिन उन्होंने वीडियो संदेश जारी कर कहा कि उन्हें कोई चिंता है तो बस यह कि उन्होंने जिन दंगाइयों व आतंकवादियों पर अंकुश लगा दिया है, वे सब मचल रहे हैं कि जरा, अपनी सरकार आने तो दीजिए.
यह प्रकारांतर से विपक्षी दलों के नेताओं व समर्थकों को दंगाई व आतंकवादी करार देना था, जिसकी किसी भी सभ्य लोकतंत्र में कतई इजाजत नहीं है. लेकिन योगी के निकट जैसे यह बहुत मामूली बात थी! इसलिए अगले ही पल आगे बढ़कर उन्होंने मतदाताओं से यह भी कह डाला कि ‘चूकें नहीं, सावधान रहें, वरना एक गलती से उत्तर प्रदेश को केरल, बंगाल या कश्मीर बनते देर नहीं लगेगी!
समझना कठिन नहीं है कि वे मतदाताओं को किन अर्थों में उत्तर प्रदेश को केरल, बंगाल या कश्मीर बनने से रोकने के लिए प्रेरित करना चाहते हैं? उनकी और उनकी पार्टी की यह चाह अब इतनी आम हो चुकी है और उससे जुड़े सवालों के इतनी बार जवाब दिए जा चुके हैं कि बार-बार उन्हीं पर बात करते रहना गैरजरूरी दोहराव लगता है.
इस कारण और कि व्यर्थ की श्रेष्ठताग्रंथि से पैदा हुई उनकी इस चाह ने जिस तरह केरल, बंगाल और कश्मीर के नागरिकों का अपमान किया है, उससे कई अपेक्षाकृत बड़े प्रश्न पैदा हुए है, जो न सिर्फ राष्ट्रीय एकता के हित में जवाब की मांग करते हैं बल्कि संकीर्ण भाजपाई राष्ट्रवाद को नए सिरे से प्रश्नांकित करते हैं.
इसलिए यहां योगी और भाजपा से पूछे जाने लायक सबसे सीधा सवाल यह है कि वे उत्तर प्रदेश को जिन केरल, बंगाल और कश्मीर जैसा नहीं बनने देना चाहते, क्या उन्हें अपने ‘एक भारत, श्रेष्ठ भारत’ का हिस्सा नहीं मानते और क्या यह देश की एकता व अखंडता से खेलने जैसा नहीं है?
क्या जब वे इन तीनों प्रदेशों में वोट मांगने जाएंगे तो अपने इस रवैये का बचाव कर पाएंगे? देश के तीन प्रदेशों का इतनी नफरत व हिकारत के साथ नाम लेकर और ‘रंग, रूप वेश भाषा चाहे अनेक हैं, हिंद देश के निवासी सब जन एक हैं’ की मूल भावना का खुला तिरस्कार कर वे आगे जब भी कश्मीर से कन्याकुमारी तक भारतमाता को एक या जम्मू-कश्मीर को भारत का अभिन्न अंग बताएंगे, क्या वह उनकी एक साथ हंसने व गाल फुलाने की कोशिशों जैसा नहीं लगेगा?
न लगता या कुछ कम लगता, अगर वे अपने संदेश में मतदाताओं को यह भी बताते कि भाजपा द्वारा द्वारा प्रायोजित धार्मिक व सांप्रदायिक घृणा, भेदभाव और पक्षपात को छोड़ दें तो केरल, बंगाल और कश्मीर किस मायने में उत्तर प्रदेश से कमतर हैं और नहीं हैं तो उनसे आगे बढ़ने के लिए उनके जैसा बनने से परहेज आवश्यक है या स्वस्थ प्रतिद्वंद्विता में उनसे आगे निकलना?
फिर क्या केरल के मुख्यमंत्री पिनाराई विजयन के उस जवाबी ट्वीट का योगी के पास कोई जवाब है, जिसमें विजयन ने लिखा है कि अगर उत्तर प्रदेश केरल जैसा हो जाता है, जिसका डर योगी आदित्यनाथ जी को है, तो वहां देश की सर्वश्रेष्ठ शिक्षा एवं स्वास्थ्य सुविधा, समाज कल्याण, उच्च जीवन स्तर और सौहार्दपूर्ण समाज को स्थापित किया जा सकेगा, जहां जाति और धर्म के नाम पर लोगों की हत्या नहीं होगी और उत्तर प्रदेश की जनता यही चाहती है?
होता तो वे अब तक विजयन पर भरपूर बरस चुके होते. क्योंकि उनके ट्वीट को उनके प्रबलतम प्रतिद्वंद्वी अखिलेश यादव ने भी रिट्वीट कर दिया है. दूसरी ओर मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी के नेता सीताराम येचुरी भी कह रहे हैं कि यह भारत की खुशकिस्मती होगी कि उसका हर राज्य केरल जैसा बन जाए. क्योंकि तब उसके हर नागरिक को सम्मान, अधिकार, हालात में बेहतरी, काम और सुकून मिल सकेगा.
लेकिन योगी केरल के तिरुवनंतपुरम से कांग्रेस के सांसद शशि थरूर को भी जवाब नहीं दे पा रहे हैं, जिनका कहना है कि उत्तर प्रदेश बहुत भाग्यशाली होगा, अगर उसे कश्मीर की सुंदरता, बंगाल की संस्कृति और केरल की शिक्षा मिल जाए, क्योंकि ये तीनों उत्तर प्रदेश के लिए चमत्कार करेंगी.
राष्ट्रीय लोकदल के नेता जयंत चैधरी के लिए भी उनके पास कोई तर्कसंगत जवाब नहीं है, जिन्होंने लिखा है कि उत्तर प्रदेश के मुकाबले जम्मू-कश्मीर की प्रति व्यक्ति आय दो गुनी के करीब है, बंगाल की तीन गुनी और केरल की सात गुनी.
दरअसल, ऐसे जवाबों के लिए वास्तव में अपनी जनता के उत्थान के लिए जमीन पर उतरकर सचमुच कड़ी मेहनत करनी पड़ती है. वीडियो संदेश जारी कर उसके थोथे प्रचार से बात नहीं बनती.
लेकिन योगी के पास कोई जवाब न होने से कहीं ज्यादा दुर्भाग्यपूर्ण यह है कि जिस चुनाव आयोग पर उन्हें चुनावों के दौरान ऐसे संदेशों से बचने की हिदायत देनी और न मानने पर कार्रवाई करनी थी, उसने तो इस ओर से आंखें मूंद ही रखी हैं, जिस केंद्र सरकार को उन्हें राष्ट्रीय एकता को, और नहीं तो कम से कम अपनी राष्ट्रवाद की अवधारणा को, आघात पहुंचाने की कोशिशों से बरजना था, वह भी अपना फर्ज नहीं ही निभा रही.
निभाए भी कैसे, जब पूरे कुएं में भांग पड़ी हुई है और प्रधानमंत्री तक को मतदान के पहले चरण की पूर्व संध्या पर भारतीय जनता पार्टी के विज्ञापन जैसा अपना साक्षात्कार प्रसारित करवाकर मतदाताओं को अनुचित ढंग से प्रभावित करने से परहेज नहीं है.
यहां यह भी गौरतलब है कि 2017 में गुजरात विधानसभा के चुनाव के वक्त ऐसे ही हालात में कुछ चैनलों ने कांग्रेस नेता राहुल गांधी का साक्षात्कार दिखा दिया था तो चुनाव आयोग ने उन पर कार्रवाई की बात कही थी, लेकिन प्रधानमंत्री का साक्षात्कार प्रसारित करने वाले चैनलों को लेकर वह मौन है.
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं.)