उत्तर प्रदेश और मध्य प्रदेश के 13 ज़िलों में फैले बुंदेलखंड को पृथक राज्य बनाने की मांग क़रीब 65 वर्ष पुरानी है. नब्बे के दशक में इसने आंदोलन का रूप भी लिया, समय-समय पर नेताओं ने इसके सहारे वोट भी मांगे लेकिन अब यह मतदाताओं को प्रभावित कर सकने वाला मुद्दा नहीं रह गया है.
नई दिल्ली: चार फरवरी को संसद के लोकसभा सदन में उत्तर प्रदेश के हमीरपुर से सांसद कुंवर पुष्पेंद्र सिंह चंदेल ने एक निजी विधेयक के माध्यम से बुंदेलखंड को पृथक राज्य बनाने की मांग फिर से उठाई. उनका तर्क था कि बुंदेलखंडी संस्कृति की रक्षा के लिए बुंदेलखंड राज्य का गठन जरूरी है.
गौरतलब है कि यह मांग उस समय उठाई गई जब उत्तर प्रदेश में विधानसभा चुनावों की सरगर्मी चरम पर थी. बुंदेलखंड का दायरा मध्य प्रदेश और उत्तर प्रदेश के कुल 13 जिलों में फैला हुआ है. इनमें सात जिले (झांसी, बांदा, ललितपुर, हमीरपुर, जालौन, महोबा और चित्रकूट) उत्तर प्रदेश के हैं.
गाहे-बगाहे यह मांग पहले भी उठती रही है कि एमपी-यूपी के बीच विभाजित बुंदेलखंड क्षेत्र के सभी जिलों को मिलाकर अलग बुंदेलखंड प्रांत का गठन कर दिया जाए. अगर इस मांग के इतिहास में जाएं तो यह करीब 65 वर्ष पुरानी मांग है, क्योंकि 31 अक्टूबर 1956 से पहले बुंदेलखंड राज्य का अस्तित्व हुआ करता था.
बुंदेलखंड निर्माण मोर्चा के अध्यक्ष भानु सहाय द वायर से बातचीत में कहते हैं, ‘भारत की आजादी के बाद विलय प्रक्रिया के तहत बुंदेलखंड की 33 रियासतों के साथ भारत सरकार ने एक लिखित संधि की थी कि भाषाई आधार पर हमारा अलग राज्य होगा, जिसके तहत 12 मार्च 1948 को बुंदेलखंड राज्य अस्तित्व में आया. पहले मुख्यमंत्री कामता प्रसाद सक्सेना बने और राजधानी नौगांव को बनाया गया.’
लेकिन 31 अक्टूबर 1956 को राज्य पुनर्गठन आयोग की सिफारिश पर बुंदेलखंड राज्य को समाप्त करके उत्तर प्रदेश और मध्य प्रदेश के बीच विभाजित कर दिया गया.
भानु कहते हैं, ‘1955 की राज्य पुनर्गठन आयोग की प्रथम रिपोर्ट में भी बुंदेलखंड को अलग राज्य बनाए जाने की बात थी. उसके बावजूद इसे दो हिस्सों मे बांट दिया गया, जिसके विरोध में 1 नवंबर 1956 से ही यह आंदोलन शुरू हो गया कि हमारा राज्य हमें वापस दो.’
तब से ही पृथक बुंदेलखंड का मुद्दा लगातार सुर्खियों में आता रहा, लेकिन कभी ऐसा जनांदोलन नहीं बन सका जिसका दबाव केंद्र की सरकारों को झुका सके.
जानकारों के मुताबिक, इसी कड़ी में 1970 में वैद्यनाथ आयुर्वेद के मालिक विश्वनाथ शर्मा ने बुंदेलखंड एकीकरण समिति का गठन करके एक जन जागरण अभियान चलाने की कोशिश की थी. बाद में वे भाजपा में शामिल होकर सांसद बन गए. वर्तमान में उनके बेटे अनुराग शर्मा भी बुंदेलखंड क्षेत्र की झांसी लोकसभा सीट से भाजपा सांसद हैं.
1989 में शंकरलाल मेहरोत्रा ने बुंदेलखंड मुक्ति मोर्चा का गठन किया, जिसके नेतृत्व में पृथक बुंदेलखंड की मांग ने सही मायनों में केवल नब्बे के दशक में जोर पकड़ा था. मांग के समर्थन में 1994 में मध्य प्रदेश विधानसभा और 1995 में लोकसभा में पर्चे फेंके गए. इसी वर्ष शंकरलाल और उनके कुछ साथियों को केंद्र की तत्कालीन कांग्रेस सरकार ने गिरफ्तार कर लिया.
इसी दशक में, दिल्ली के जंतर-मंतर पर भी करीब महीने भर तक प्रदर्शन हुआ.
बुंदेलखंड मुक्ति मोर्चा के साथ ही शंकरलाल ने उत्तराखंड, झारखंड और छत्तीसगढ़ राज्य बनाने की मांग को लेकर संयुक्त मोर्चा का भी गठन किया था.
लेकिन, बुंदेलखंड निर्माण आंदोलन के तहत 1998 में झांसी में एक हिंसक घटना हुई. तब आंदोलन से जुड़े रहे लोग बताते हैं कि उक्त घटना में एक व्यक्ति की मौत भी हुई थी और एक बस को आग लगा दी गई थी, जिस पर कार्रवाई करते हुए केंद्र की तत्कालीन भाजपा सरकार ने शंकरलाल व उनके साथियों पर राष्ट्रीय सुरक्षा क़ानून (रासुका) लगाकर जेल में डाल दिया.
बाद में सन 2000 में बिहार से अलग होकर झारखंड, मध्य प्रदेश से अलग होकर छत्तीसगढ़ और उत्तर प्रदेश से अलग होकर उत्तराखंड राज्य अस्तित्व में आए. पर पृथक बुंदेलखंड का सपना अधूरा रह गया, जो आज तक अधूरा ही है. वर्ष 2001 में शंकरलाल का भी निधन हो गया, तब से पृथक बुंदेलखंड की मांग कभी भी वापस वैसा जोर नहीं पकड़ सकी.
इस बीच, 2013 में एक और नया राज्य तेलंगाना भी अस्तित्व में आ गया, लेकिन पृथक बुंदेलखंड हकीकत नहीं ही बन सका.
विश्वनाथ शर्मा के नेतृत्व में सत्तर के दशक में और शंकरलाल मेहरोत्रा के नेतृत्व में नब्बे के दशक में, दोनों ही मौकों पर पृथक बुंदेलखंड की मांग बुंदेलखंड की आर्थिक राजधानी समझे जाने वाले झांसी की जमीन से ही बुलंद हुई थी.
जो झांसी एक समय आंदोलन का केंद्र बिंदु रहा, आज उसी झांसी के मतदाता पृथक बुंदेलखंड की मांग के समर्थन में खड़े होते नजर नहीं आते हैं. द वायर ने झांसी के विभिन्न क्षेत्रों में रहने वाले अनेकों मतदाताओं से बात की थी, लेकिन किसी ने भी पृथक बुंदेलखंड राज्य के मुद्दे को उनके मतदान का आधार नहीं माना.
कई मतदाताओं ने यह तो स्वीकारा कि पृथक राज्य बनने की स्थिति में रोजगार एवं विकास के अवसरों में वृद्धि होगी, लेकिन साथ ही बताया कि वे जब वोट डालते हैं तो यह मुद्दा उनके लिए मायने नहीं रखता.
उत्तर प्रदेश के वरिष्ठ पत्रकार, जो शंकरलाल मेहरोत्रा के आंदोलन के गवाह और झांसी में अमर उजाला के संपादक रहे बंशीधर मिश्र कहते हैं, ‘शंकरलाल के गुजरने के बाद इस मुद्दे में दम नहीं बचा, वरना पृथक राज्य की जरूरत तो है क्योंकि छोटे राज्य को चलाना आसान होता है जिससे बुंदेलखंड के विकास को पंख लग सकते हैं. लेकिन, अब यह बात जनता के बीच नहीं पहुंच पा रही है. यह मांग जनांदोलन नहीं बन पा रही है. चंद लोग मांग करते हैं तो लोगों पर खास असर नहीं पड़ता. चुनावों में यह मुद्दा ही नहीं बनता है.’
वे आगे कहते हैं, ‘अब तक जितने भी नए राज्य बने उनमें किसी न किसी प्रदेश के दो हिस्से किए गए, जैसे- उत्तर प्रदेश से उत्तराखंड, मध्य प्रदेश से छत्तीसगढ़, बिहार से झारखंड औ आंध्र प्रदेश से तेलंगाना. लेकिन, बुंदेलखंड बनाने के लिए मध्य प्रदेश और उत्तर प्रदेश, दोनों राज्यों के कुछ-कुछ जिलों को तोड़कर एक तीसरा राज्य बनाना है. इसके लिए दोनों राज्यों की सहमति और केंद्र सरकार की संस्तुति जरूरी है.’
वे आगे जोड़ते हैं, ‘इस लिहाज से वर्तमान दौर पृथक बुंदेलखंड बनाने के लिए सबसे मुफीद है क्योंकि दोनों राज्यों और केंद्र में भी भाजपा की सरकार है. केंद्र चाहे तो आसानी से बुंदेलखंड बन सकता है, लेकिन अहम बात यह है कि जनता के लिए ही यह मुद्दा नहीं है.’
स्थानीय पत्रकार लक्ष्मीनारायण शर्मा का भी मानना है कि मांग के पक्ष में जो लोग आंदोलन चला रहे हैं, वे वैसा जनसमर्थन नहीं दिखा सके हैं, जिसकी जरूरत थी.
लक्ष्मीनारायण कहते हैं, ‘लोगों की सोच इस मसले पर यह है कि जब होना होगा, हो जाएगा. लोगों से पूछेंगे कि बुंदेलखंड बनना चाहिए तो वे ‘हां’ कहेंगे, लेकिन पृथक बुंदेलखंड के नाम पर एक जनसभा करा लीजिए तो 500 लोग भी नहीं जुटेंगे.’
इस संबंध में लक्ष्मीनारायण अभिनेता राजा बुंदेला का उदाहरण देते हैं जो बुंदेलखंड के रहने वाले हैं और फिलहाल भाजपा में हैं. बुंदेला ने बुंदेलखंड कांग्रेस नामक एक राजनीतिक दल भी बनाया था.
लक्ष्मीनारायण कहते हैं, ‘वे पृथक बुंदेलखंड मुद्दे के साथ झांसी सदर विधानसभा सीट से अपनी पार्टी से चुनाव लड़े, लेकिन 2,000 वोट भी नहीं मिले और अपनी जमानत जब्त करा बैठे. इसी तरह बुंदेलखंड क्रांति दल भी हमेशा इसी मुद्दे पर चुनाव लड़ता है, पूर्व में बुंदेलखंड मुक्ति मोर्चा ने भी चुनाव लड़ा, लेकिन सबका वोट शेयर 1,000 से 3,000 के बीच रहता है. हकीकत यही है कि इस मसले पर चुनाव लड़ने वाले को जनता वोट भी नहीं देती, वोट देती तो सरकार जरूर कोई कदम उठाती.’
हालांकि, इस संबंध में यहां जिक्र करना जरूरी हो जाता है कि उत्तर प्रदेश में बसपा की मायावती सरकार के पिछले कार्यकाल (2007-12) के अंतिम दिनों में बुंदेलखंड को अलग राज्य बनाने का एक प्रस्ताव जरूर आया था.
मायावती ने तब उत्तर प्रदेश को चार राज्यों में विभाजित करने की रूपरेखा तैयार की थी, जिसमें एक राज्य बुंदेलखंड भी प्रस्तावित था. लेकिन वह प्रस्ताव केवल एक ऐसा राजनीतिक कदम माना गया जो मायावती ने अपने राजनीतिक हितों को साधने के लिए उठाया था.
भानु सहाय भी उस प्रस्ताव को अपूर्ण मानते हैं. वे कहते हैं कि उस प्रस्ताव में चारों राज्यों की सीमाओं तक का उल्लेख नहीं था.
शंकरलाल मेहरोत्रा के आंदोलन को कवर करने वाले वरिष्ठ पत्रकार प्रेम कुमार गौतम बताते हैं, ‘नब्बे के दशक में शंकरलाल की अगुवाई में यह जरूर चुनावी मुद्दा रहा. उन्होंने सही ढंग और इस दिशा में ईमानदारी से काम करते हुए मध्य प्रदेश व उत्तर प्रदेश, दोनों ही राज्यों के लोगों को जोड़कर पदयात्राएं कीं और दोनों राज्यों के बीच समन्वय बनाया.’
वे आगे कहते हैं, ‘पर अब जनता को फर्क नहीं पड़ता. अगर यह मुद्दा निर्णायक होता तो राजा बुंदेला इतनी बुरी तरह नहीं हारते. मतदाताओं को केवल जातिगत मुद्दा ही प्रभावी नज़र आता है. वर्तमान चुनावों को ही देख लीजिए, नेता अपनी-अपनी जातियों की उपेक्षा होने का हवाला देकर दल बदल रहे हैं. लेकिन बुंदेलखंड के 19 विधायकों में से पृथक बुंदेलखंड की मांग के समर्थन में किसी ने पार्टी नहीं छोड़ी.’
बता दें कि 2017 में इन सभी 19 सीटों पर भाजपा ने जीत दर्ज की थी.
बुंदेलखंड मुक्ति मोर्चा के वर्तमान अध्यक्ष हरिमोहन विश्वकर्मा ने भी शंकरलाल मेहरोत्रा के साथ रासुका के तहत करीब तीन महीने जेल में बिताए थे.
वे भी इस तथ्य को स्वीकारते हैं कि शंकरलाल मेहरोत्रा के बाद आंदोलन कमजोर हुआ और इसकी वजह बताते हुए वे कहते हैं, ‘पहला कि बुंदेलखंड मुक्ति मोर्चा के पास साधन-संसाधनों का अभाव है. दूसरा, बुंदेलखंड के लोगों की पहली प्राथमिकता अपना पेट पालना है. वे पश्चिमी उत्तर प्रदेश के किसानों की तरह समृद्ध नहीं हैं कि महीनों तक घर-परिवार छोड़कर आंदोलन कर सकते हैं या जेल जा सकते हैं. यहां के लोग प्रवासी हैं जो रोजगार के लिए पलायन कर जाते हैं. जब आंदोलन के लिए लोग ही उपलब्ध नहीं होंगे तो भीड़ कैसे दिखेगी?’
पूर्व में आंदोलन का केंद्र रहे झांसी में लोगों की पृथक बुंदेलखंड में रुचि न होने को लेकर वे कहते हैं, ‘मूल बुंदेलखंडी ग्रामीण क्षेत्रों या छोटे इलाकों में बसता है, जबकि झांसी के हालात किसी मेट्रो शहर की तरह हो गए हैं जहां अलग-अलग क्षेत्रों के लोग काम की तलाश में आकर बस गए हैं. झांसी में खिचड़ी संस्कृति हो गई है, वे लोग बुंदेलखंड की आत्मा से नहीं जुड़े हैं.’
हरिमोहन की बातों से भानु सहाय भी इत्तेफाक रखते हैं और कहते हैं, ‘शंकरलाल भैया आर्थिक सक्षम व्यक्ति थे इसलिए उनके संपर्क अच्छे थे तो उन्हें फंड मिल जाता था, लेकिन हमें किसी ने फंड नहीं दिया. वे भीड़ जुटाते थे तो नेताओं की तरह ही लोगों को बसों में भरकर ले जाते थे, क्योंकि बुंदेलखंड के लोग इतने आर्थिक सक्षम नहीं कि स्वयं आंदोलन स्थल पहुंच जाएं.’
झांसी के संबंध में भी भानु, हरिमोहन की ही बात दोहराते हैं कि वहां मूल बुंदेलखंडी नहीं, बाहरियों का बसेरा है.
वे साथ में इस बात का भी जवाब देते हैं कि आखिर बुंदेलखंड का मतदाता पृथक बुंदेलखंड की मांग पर एकजुट होकर वोट क्यों नहीं डालता? क्यों बुंदेलखंड के स्थानीय राजनीतिक दल, जैसे कि बुंदेलखंड क्रांति दल, बुंदेलखंड विकास दल और बुंदेलखंड कांग्रेस को बुंदेलखंडी मतदाता का समर्थन नहीं मिलता है?
भानु कहते हैं, ‘उत्तर प्रदेश में 403 विधानसभा हैं लेकिन बुंदेलखंड में केवल 19, इसलिए बुंदेलखंड की आवाज को कोई भी राजनीतिक दल तवज्जो नहीं देता है. फिर मतदाता भी सोचता है कि अगर मैंने बुंदेलखंडी दलों को वोट भी दे दिया तो भी असर तो कुछ होगा नहीं क्योंकि 19 विधायक क्या कर लेंगे और संभव है कि जीतकर वे दलबदल करके मुख्य दलों में शामिल हो जाएं. इसलिए मतदाता सत्ता की हवा में बह जाते हैं. राजस्थान में बसपा के विधायकों के साथ यही तो हुआ कि सातों कांग्रेसी हो गए.’
वहीं, वे पृथक बुंदेलखंड की मांग के कमजोर होने का एक और कारण गिनाते हैं. वे बताते हैं, ‘शुरू में आंदोलन जब तेज हुआ था तो एक माहौल बन गया था कि अटल बिहारी वाजपेयी भी अपनी बात रख रहे हैं, अन्य नेता भी बयान दे रहे हैं तो लोगों को लग रहा था कि कुछ होने वाला है. लेकिन फिर लोगों को लगने लगा कि बड़े-बड़े दावे करने वाले लोग उन्हें झूठे सपने दिखाकर आंदोलन से भाग रहे हैं तो लोगों का मोह भंग होने लगा.’
वे ‘झूठे सपने दिखाकर भागने वालों’ के कुछ नाम भी गिनाते हुए कहते हैं, ‘सबसे पहले विश्वनाथ शर्मा ने ऐसा किया. बुंदेलखंड एकीकरण मोर्चा बनाया, फिर भाजपा में जाकर सांसद बने और कहा कि अब हर संसद सत्र में बुंदेलखंड की मांग गूंजेगी लेकिन सब भुला दिया. फिर गंगाचरण राजपूत ‘बुंदेलखंड का सपूत’ नारा देकर भाजपा से सांसद बने और उन्होंने भी सब भुला दिया.’
उन्होंने आगे जोड़ा, ‘फिर नंबर आता है, बादशाह सिंह का. जैसे ही वे भी बसपा में मंत्री बने, उन्होंने भी यही किया. उसके बाद कांग्रेस के प्रदीप जैन ने भी यही किया, केंद्रीय मंत्री बनते ही बुंदेलखंड को भुला दिया. फिर उमा भारती ने भी यही किया और आज भानु प्रताप वर्मा केंद्रीय मंत्री है, वे भी ऐसा कर रहे हैं.’
अगर बात उमा भारती की करें, तो जानकारों का कहना है कि उन्होंने एक बार नहीं, बल्कि दो बार पृथक बुंदेलखंड के नाम पर लोगों को छला.
पहला वाकया प्रेम कुमार गौतम बताते हैं, ‘उमा भारती ने नब्बे के दशक में एक सभा में कहा था कि हमारी सरकार बनी तो हम बुंदेलखंड प्रांत बनाएंगे, लेकिन सरकार बनने के बाद उन्होंने स्वयं यह कहकर अड़ंगा लगाया कि मध्य प्रदेश के लोग नहीं चाहते हैं. जबकि, मध्य प्रदेश और उत्तर प्रदेश के सांसदों ने तब संसद में सामूहिक रूप से लिखकर दिया था कि हम दोनों प्रांतों के लोग तैयार हैं.’
उमा भारती की इस ‘वादाखिलाफी’ से जुड़ा दूसरा वाकया भानु सहाय बताते हैं, ‘2014 में जब उमा भारती झांसी से लोकसभा चुनाव लड़ने आईं तो हमारी उम्मीदों को पंख लग गए क्योंकि उन्होंने तब भगवान राम को साक्षी मानकर ये वादा किया था कि अगले तीन सालों में बुंदेलखंड राज्य बनाया जाएगा. इसी कड़ी में डॉ. आंबेडकर की प्रतिमा के सामने भी खड़े होकर उन्होंने कहा था कि तीन सालों में बुंदेलखंड बनाकर दलित भाइयों को हम तोहफा देने जा रहे हैं ताकि उन्हें काम की तलाश में बाहर न जाना पड़े.’
वे आगे बताते हैं, ‘उमा भारती के चुनाव प्रचार के लिए जब राजनाथ सिंह यहां आए तो वे भी कह गए कि उमा बहन इतनी समर्थ हैं कि अपने वादे पूरे करा लेंगी, लेकिन फिर भी मैं स्वयं ये वादा कर रहा हूं कि उनके सारे वादे पूरे होंगे. यहां तक कि प्रधानमंत्री मोदी ने भी वचन दिया कि उमा भारती के सपने साकार करेंगे. लेकिन, तीन साल वाले उस लोकलुभावन वादे को आज आठ साल होने को आए.’
अभिनेता और भाजपा नेता राजा बुंदेला, जिन्होंने एक समय पृथक बुंदेलखंड की मांग को लेकर आवाज बुलंद की थी, ने भी यही बात दोहराई कि बुंदेलखंडवासियों की गरीबी एक बड़ा कारण है जिसके चलते पृथक राज्य की मांग जनांदोलन में तब्दील होकर जोर नहीं पकड़ पाती है.
दूसरा कारण भी उन्होंने वही गिनाया कि बुंदेलखंड के पास महज 19 विधानसभा सीटें हैं, जबकि पश्चिमी उत्तर प्रदेश की बात करें तो 136 सीटें हैं. बुंदेला कहते हैं, ‘कहां 19 और कहां 136? बस इसलिए बुंदेलखंड को तवज्जो नहीं मिलती.’
साथ ही, उन्होंने एक अन्य कारण यह भी गिनाया कि पृथक बुंदेलखंड की मांग को बुलंद करने के लिए ऐसा कोई नेतृत्व मौजूद नहीं है जिसका त्याग और कुर्बानी देखकर लोग उसके पीछे खड़े हो जाएं. सिर्फ जात-पात का नेतृत्व यहां मौजूद है.
जब उनसे पूछा गया कि उन्होंने भी तो स्वयं बुंदेलखंड की राजनीति में कदम रखा था, फिर अपने कदम वापस खींचकर भाजपा में क्यों शामिल हो गए, तब उन्होंने कहा, ‘मैं मुंबई, अपना अभिनय करिअर सब छोड़कर अलग बुंदेलखंड का सपना लेकर यहां लौटा था और सब दांव पर लगा दिया, उसके बाद लगा कि अब आगे और नहीं टिक पाऊंगा. राजनीति में लक्ष्य हासिल करने के लिए अकूत दौलत चाहिए.’
जब उनसे पूछा गया कि अब तो वे उस भाजपा का हिस्सा हैं जिसकी केंद्र में भी सरकार है और मध्य प्रदेश व उत्तर प्रदेश में भी, फिर बुंदेलखंड राज्य निर्माण कहां अटका हुआ है, तब उनका कहना था कि राज्यसभा में भाजपा का बहुमत न होने के चलते ऐसा संभव नहीं हो पा रहा है.
प्रेम कुमार गौतम का कहना है कि राष्ट्रवाद के दौर में कुछ ऐसे लोग भी मौजूद हैं जो छोटे राज्यों के निर्माण की बात पर तर्क देते हैं कि ऐसा करना भारत को आजादी से पहले के दौर में ले जाना होगा, जिन छोटी-छोटी रियासतों को जोड़कर भारत संघ बना था, छोटे राज्यों की कल्पना भारत को वापस उस रियासतकाल में ले जाएगी. आज बुंदेलखंड बनेगा, तो कल पूर्वांचल और फिर बिहार में मिथिलांचल.
उनके मुताबिक, ऐसी मानसिकता भी पृथक बुंदेलखंड की मांग को जोर नहीं पकड़ने देती है.