उच्च न्यायालय ने चार लोगों की सज़ा रद्द करते हुए कहा कि अभियोजन यह साबित करने में नाकाम रहा कि दहेज के लिए महिला को प्रताड़ित किया गया.
नई दिल्ली: दिल्ली उच्च न्यायालय ने साल 1995 के नवंबर महीने में आत्महत्या कर चुकी एक महिला के तीन देवरों और एक ननद की सात साल की कैद की सजा रद्द करते हुए कहा कि हाल के समय में दहेज से जुड़े मामलों में ससुराल के सारे लोगों को आरोपी के तौर पर लपेट लेने की एक प्रवृत्ति बन गई है.
न्यायमूर्ति प्रतिभा रानी ने चार लोगों की सजा निरस्त करते हुए यह टिप्पणी दी. दरअसल, अपनी शादी के छह महीने बाद महिला के आत्महत्या करने के मामले में निचली अदालत ने आईपीसी की धारा 304बी के तहत दहेज हत्या के अपराध में इन चारों को सजा सुनाई थी.
उच्च न्यायालय ने उनकी दोषसिद्धि और सजा को रद्द करते हुए कहा कि अभियोजन यह साबित करने में नाकाम रहा कि दहेज के लिए महिला को प्रताड़ित किया गया.
इसने कहा कि हाल के समय में सुसराल के सारे लोगों को आरोपी के तौर पर लपेट लेने की एक प्रवृत्ति विकसित हो गई है और यह इस मामले में भी दिखता है.
अदालत ने कहा कि अभियोजन अपील दायर करने वालों द्वारा दहेज की मांग या मृतक महिला को सताए जाने के आरोप साबित करने में नाकाम रहा है. इन तमाम बातों को मद्देनजर रखते हुए अपील करने को बरी किया जाता है.
उच्च न्यायालय ने इस बात का जिक्र किया कि महिला का स्वभाव ऐसा था कि उसने अपनी शादी के करीब दो महीने बाद मायके में अपने भाई से झगड़ा होने पर कुछ हानिकारक टेबलेट खाकर आत्महत्या की कोशिश की थी.
अदालत ने कहा कि महिला के प्रति पति का प्यार, दहेज की मांग के बगैर शादी होना और दोनों परिवारों के बीच वित्तीय विसंगति सहित विभिन्न कारणों पर गौर करते हुए यह दहेज हत्या का मामला नहीं हो सकता.