मैरिटल रेप: उच्च न्यायालय ने केंद्र सरकार को राय देने के लिए और समय देने से इनकार किया

दिल्ली हाईकोर्ट बलात्कार क़ानून के तहत पतियों को दी गई छूट को ख़त्म करने के अनुरोध वाली याचिकाएं सुन रहा है. सात फरवरी को इस संबंध में अपना रुख़ स्पष्ट करने के लिए केंद्र को दो हफ्ते का समय दिया गया था. अब और समय मांगे जाने के अनुरोध को अस्वीकार करते हुए कोर्ट ने अपना निर्णय सुरक्षित रख लिया है.

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(फाइल फोटो: पीटीआई)

दिल्ली हाईकोर्ट बलात्कार क़ानून के तहत पतियों को दी गई छूट को ख़त्म करने के अनुरोध वाली याचिकाएं सुन रहा है. सात फरवरी को इस संबंध में अपना रुख़ स्पष्ट करने के लिए केंद्र को दो हफ्ते का समय दिया गया था. अब और समय मांगे जाने के अनुरोध को अस्वीकार करते हुए कोर्ट ने अपना निर्णय सुरक्षित रख लिया है.

(फोटो: पीटीआई)

नई दिल्ली: दिल्ली उच्च न्यायालय ने वैवाहिक बलात्कार को अपराध घोषित करने के संबंध में अपना रुख स्पष्ट करने के लिए केंद्र को और समय देने से सोमवार को इनकार कर दिया. साथ ही, इस संबंध में विभिन्न याचिकाओं पर अपना फैसला सुरक्षित रख लिया.

केंद्र ने दलील दी कि उसने सभी राज्यों और केंद्रशासित प्रदेशों को इस मुद्दे पर उनकी राय के लिए पत्र भेजा है. केंद्र ने अदालत से अनुरोध किया कि जब तक उनकी राय नहीं मिल जाती, तब तक कार्यवाही स्थगित कर दी जाए.

जस्टिस राजीव शकधर और जस्टिस सी. हरि शंकर की पीठ ने कहा कि जारी सुनवाई को स्थगित करना संभव नहीं है, क्योंकि केंद्र की परामर्श प्रक्रिया कब पूरी होगी, इस संबंध में कोई निश्चित तारीख नहीं है. अदालत ने यह भी कहा कि वह विषय पर बहस को बंद रही है.

पीठ ने कहा, ‘तब, हम इसे बंद कर रहे हैं.’ न्यायालय ने कहा, ‘फैसला सुरक्षित रखा जाता है. मामले में निर्देश जारी करने के लिए (इसे) दो मार्च के लिए सूचीबद्ध किया जाए. इस बीच, विभिन्न पक्षों के वकील अपनी लिखित दलीलें जमा कर सकते हैं.’

हालांकि केंद्र सरकार को इस विषय पर अपना रुख स्पष्ट करने के लिए अपनी दलील पेश करनी है, लेकिन सॉलिसिटर जनरल तुषार मेहता ने कहा कि केंद्र सरकार का रुख राज्यों और अन्य हितधारकों से विचार-विमर्श के बाद ही सामने आ सकता है.

उन्होंने कहा कि इस मामले का सामाजिक एवं पारिवारिक जीवन पर दूरगामी प्रभाव पड़ेगा और केंद्र सरकार अपना रुख केवल विचार-विमर्श की प्रक्रिया के बाद ही स्पष्ट कर सकती है.

पीठ ने कहा, ‘अदालत इस मामले को इस तरह लटके नहीं रहने दे सकती. आप अपनी विमर्श प्रक्रिया जारी रखें. हम सुनेंगे और अपना फैसला सुरक्षित रखेंगे. लेकिन यदि आप यह कहते हैं कि अदालत को मामले को अंतहीन अवस्था के लिए स्थगित कर देना चाहिए तो ऐसा नहीं होगा.’

पीठ ने कहा, ‘यह एक ऐसा मामला है जिसे या तो न्यायपालिका या विधायिका के माध्यम से बंद किया जाएगा. जब तक हमारे समक्ष कोई चुनौती है, तब तक हमें सुनवाई जारी रखना होगा.’

जब अदालत ने मेहता से यह बताने के लिए कहा कि क्या ऐसा कभी हुआ है कि इस तरह की प्रकृति का मामला लंबे समय के लिए स्थगित कर दिया गया हो, तो उन्होंने अपने अनुभव के अनुसार कहा, ‘अभी तक नहीं’.

उन्होंने कहा कि बहुत कम चुनौतियां हैं जो सामाजिक और पारिवारिक संबंधों को प्रभावित करती हैं.

उन्होंने कहा, ‘आम तौर पर एक विधायी कानून को चुनौती दी जाती है और हम अपना एक रुख लेते हैं, लेकिन वे वाणिज्यिक या कराधान कानून होते हैं. ऐसे बहुत कम मामले होते हैं जब इस तरह के व्यापक परिणाम मिलते हैं. इसलिए, हमारा स्टैंड है कि हम केवल परामर्श के लिए अपना पक्ष रख सकेंगे.’

पीठ ने आगे कहा कि जब शीर्ष अदालत में आईपीसी की धारा 377 (अप्राकृतिक यौन संबंध) और व्यभिचार के मामले आए, तो अदालत ने सुनवाई जारी रखी.

जस्टिस शकधर ने कहा, ‘जितना अधिक मैं इसके बारे में सोचता हूं, उतना ही मुझे विश्वास होता जाता है कि आपको एक रुख अपनाना होगा और इसे बंद करना होगा. हम ज्ञान के अंतिम भंडार नहीं हैं. किसी को इस बारे में निर्णय लेने की जरूरत है.’

अदालत ने कहा कि निर्णायक कार्यपालिका को हां या न कहना होता है और उसे अपना रुख बदलने से कोई नहीं रोक सकता.

इस पर मेहता ने कहा, ‘हम हां या नहीं जरूर कहेंगे, लेकिन विचार विमर्श के बाद. मुझे निर्देश है कि हम अपना रुख विचार विमर्श के बाद ही स्पष्ट करेंगे. पहले दाखिल किए गए जवाबी हलफनामों को केंद्र के अंतिम हलफनामे के रूप में नहीं माना जाएगा और अंतिम हलफनामा परामर्श के बाद दाखिल किया जाएगा.’

अदालत भारत में बलात्कार कानून के तहत पतियों को दी गई छूट को खत्म करने के अनुरोध वाली याचिकाओं पर सुनवाई कर रही थी.

उच्च न्यायालय ने सात फरवरी को केंद्र को अपना पक्ष रखने के लिए दो सप्ताह का समय दिया था. केंद्र ने एक हलफनामा दाखिल कर अदालत से याचिकाओं पर सुनवाई टालने का आग्रह किया था. केंद्र ने कहा था कि राज्य सरकारों सहित विभिन्न पक्षों के साथ सार्थक परामर्श प्रक्रिया की आवश्यकता है.

ज्ञात हो कि इससे पहले भी इन याचिकाओं पर अदालत ने केंद्र सरकार से जवाब मांगा था, जिस पर केंद्र का कहना था कि वैवाहिक बलात्कार को दंडनीय अपराध नहीं बनाया जा सकता क्योंकि ऐसा करना विवाह की संस्था के लिए ख़तरनाक साबित होगा. यह एक ऐसा चलन बन सकता है, जो पतियों को प्रताड़ित करने का आसान जरिया बन सकता है.

केंद्र का कहना था कि बहुत सारे पश्चिमी देशों में मैरिटल रेप अपराध है लेकिन ज़रूरी नहीं है भारत में भी आंख मूंदकर इसका पालन किया जाए. केंद्र ने यह भी कहा कि मैरिटल रेप को अपराध घोषित करने से पहले देश की विभिन्न समस्याओं जैसे साक्षरता, महिलाओं की आर्थिक स्थिति, गरीबी आदि के बारे में भी सोचना होगा.

इससे पहले इसी मामले को सुनते हुए अदालत ने कहा था कि विवाहिता हो या नहीं, हर महिला को असहमति से बनाए जाने वाले यौन संबंध को न कहने का अधिकार है.

कोर्ट ने कहा था कि विवाहित और अविवाहित महिलाओं के सम्मान में अंतर नहीं किया जा सकता और कोई महिला विवाहित हो या न हो, उसे असहमति से बनाए जाने वाले यौन संबंध को ‘न’ कहने का अधिकार है.

अदालत का यह भी कहना था कि महत्वपूर्ण बात यह है कि एक महिला, महिला ही होती है और उसे किसी संबंध में अलग तरीके से नहीं तौला जा सकता, ‘यह कहना कि, अगर किसी महिला के साथ उसका पति जबरन यौन संबंध बनाता है तो वह महिला भारतीय दंड संहिता की धारा 375 (बलात्कार) का सहारा नहीं ले सकती और उसे अन्य फौजदारी या दीवानी कानून का सहारा लेना पड़ेगा, ठीक नहीं है.’

(समाचार एजेंसी भाषा से इनपुट के साथ)