मीडिया का काम सवाल पूछना है, न कि सत्ता से गलबहियां करना

मोदी की पहचान एक ‘संवाद में माहिर’ नेता की है, लेकिन कुर्सी पर बैठने के बाद से अब तक उन्होंने एक भी प्रेस कांफ्रेंस नहीं की है. किसी लोकतंत्र के प्रधानमंत्री द्वारा प्रेस कांफ्रेंस करना मीडिया पर किया जाने वाला एहसान नहीं है, बल्कि सरकार की ज़िम्मेदारी है.

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मोदी की पहचान एक ‘संवाद में माहिर’ नेता की है, लेकिन कुर्सी पर बैठने के बाद से अब तक उन्होंने एक भी प्रेस कांफ्रेंस नहीं की है. किसी लोकतंत्र के प्रधानमंत्री द्वारा प्रेस कांफ्रेंस करना मीडिया पर किया जाने वाला एहसान नहीं है, बल्कि सरकार की ज़िम्मेदारी है.

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(फाइल फोटो: पीटीआई)

लोकतंत्र के चौथे खंभे के सदस्यों से सत्ता में बैठे लोगों के साथ यारी गांठने की उम्मीद नहीं की जाती. उनसे ये उम्मीद भी नहीं की जाती कि वे प्रधानमंत्री को ये दिलासा देते रहें कि ‘ऑल इज वेल’ यानी सब कुछ अच्छा है. लेकिन, फिर भी कई मीडियाकर्मियों के इस रास्ते पर चलने की संभावना हमेशा बनी रहती है.

मोदी से दोस्ताना ताल्लुक रखने वाले कुछ पत्रकारों ने पिछले कुछ समय से यह दलील देनी शुरू की है कि ‘उदारवादी’ मीडिया प्रधानमंत्री को व्यक्तिगत तौर पर निशाना बनाता है. एक बेहद केंद्रीकृत, प्रधानमंत्री के इर्द-गिर्द सिमटे शासन में ऐसा होना लाजिमी है. इसमें कुछ भी असामान्य नहीं है.

मीडिया का अस्तित्व ही सवाल पूछने और सत्ता में बैठे लोगों की जवाबदेही तय करने के लिए है. पत्रकारिता में इसके अलावा सब कुछ सिर्फ जन-संपर्क की कवायद है. सरकार अपनी उपलब्धियों का ढिंढोरा पीटने के लिए पूरे पन्ने का विज्ञापन देने के लिए तो आजाद है ही.

लेकिन, ऐसा लगता है कि अब हम एक नए भारत में रह रहे हैं, जहां महज साढ़े तीन वर्षों में प्रेस और सरकार के दायित्व और मायने में इतने आश्यर्चजनक रफ्तार से बदलाव आया है कि लोकतंत्र में चौथे खंभे की जरूरत पर खुद मीडिया द्वारा ही सवाल उठाए जा रहे हैं.

जरा निम्नलिखित तथ्यों पर गौर कीजिए. मोदी की पहचान एक ‘संवाद में माहिर’ नेता की है, लेकिन 26 मई, 2014 को कुर्सी पर बैठने के बाद से अब तक उन्होंने एक भी प्रेस कांफ्रेंस नहीं की है. किसी लोकतंत्र के प्रधानमंत्री द्वारा प्रेस कांफ्रेंस करना स्वतंत्र मीडिया पर (जिसे वर्तमान सरकार सिकुलर्स और प्रेसिट्यूट्स कहकर पुकारती है) किया जाने वाला एहसान नहीं है, बल्कि यह सरकार की सबसे बड़ी जिम्मेदारी है.

सत्ता से सवाल पूछना स्वतंत्र प्रेस का अधिकार है. सोशल मीडिया के जरिए मोदी का सम्मानित बुजुर्ग जैसा इकतरफा संवाद और रेडियो पर प्रसारित होने वाला उनका निजी एकालाप, वास्तव में लोकतंत्र और एक स्वतंत्र प्रेस की भूमिका के प्रति निकृष्ट अवमानना के भाव को प्रकट करता है. इसे हद से हद सवालों से बचने की रणनीति कहा जा सकता है.

यहां तक कि अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने भी, मुख्यधारा के मीडिया के प्रति जिनकी नफरत के बारे में सबको पता है, व्हाइट हाउस (अमेरिकी राष्ट्रपति निवास) में नियमित प्रेस कांफ्रेंस की परंपरा को समाप्त नहीं किया है.

लोकतांत्रिक दुनिया में मोदी एकमात्र ऐसे नेता हैं, जिन्होंने आधिकारिक तौर पर सवाल पूछे जाने की प्रथा को अंगूठा दिखा दिया है. उन्होंने प्रधानमंत्री कार्यालय में प्रेस सलाहकार तक की नियुक्ति नहीं की है, जबकि इसका रिवाज-सा रहा है.

उनसे पहले भाजपा के प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी ने भी इसका पालन किया था. इस पद पर किसी को बैठाए जाने से प्रेस को मोदी के उनके अनेक वादों के बारे में सवाल पूछने में आसानी होती.

मोदी ने विदेशी दौरों के वक्त प्रधानमंत्री के हवाई जहाज में पत्रकारों को साथ ले जाने की परंपरा को भी खत्म कर दिया. दक्षिणपंथी भक्तों ने इस फैसले का दिल खोलकर स्वागत किया और इसे पत्रकारों को मिलने वाली ‘खैरात’ को बंद करने वाला कदम करार दिया. लेकिन, उन्हें तथ्यों की सही जानकारी नहीं थी, क्योंकि विभिन्न मीडिया घरानों का प्रतिनिधित्व करने वाले पत्रकार विदेशों में अपने ठहरने का खर्च खुद उठाते थे.

वे सिर्फ प्रधानमंत्री के जंबो एयरक्राफ्ट पर उनके साथ मुफ्त में यात्रा किया करते थे, जिसमें जरूरत से ज्यादा खाली जगह होती है और प्रधानमंत्री भी करदाता के पैसे से ही इसमें सफर करते हैं. प्रधानमंत्री के सहयात्री होने से संवाददाताओं और संपादकों को प्रधानमंत्री से सवाल पूछने का मौका मिलता था.

यहां तक कि मोदी के पूर्ववर्ती मनमोहन सिंह भी, मोदी जिनका मजाक ‘मौनमोहन सिंह’ कहकर उड़ाया करते थे, यात्रा से लौटते हुए हवाई जहाज में पत्रकारों के साथ प्रेस कांफ्रेंस किया करते थे. इसमें वे पत्रकारों के सवालों का जवाब दिया करते थे. ये सवाल पहले से तय या चुने हुए नहीं होते थे.

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नई दिल्ली स्थित भाजपा कार्यालय में दिवाली मिलन समारोह के दौरान पत्रकारों से मिलते प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और भाजपा अध्यक्ष अमित शाह (फाइल फोटो). साभार : बीजेपी डॉट ओआरजी

मनमोहन सिंह ने कार्यालय में रहते हुए कम से कम तीन बड़ी प्रेस कांफ्रेंस की (2004, 2006, 2010), जिसमें कोई भी शिरकत कर सकता था. यह लुटियन के इलाके में पत्रकारों का विशेषाधिकार वाला प्रवेश नहीं था, जिसके बारे में भक्तजन बात करते नहीं थकते हैं. इसकी जगह यह पत्रकारों के लिए वह था जिसमें वे राष्ट्रीय हित के मसलों पर प्रधानमंत्री से सीधे अहम सवाल पूछ सकते थे.

अमेरिकी राष्ट्रपति भी विदेश दौरों के दौरान अपने साथ मीडिया के दल को लेकर जाते हैं और जरूरी सवाल पूछने के इस मौके को पत्रकारों के लिहाज से काफी सामान्य सी चीज माना जाता है.

यह बात किसी से छिपी नहीं है कि मोदी को आजाद प्रेस बिल्कुल नहीं सुहाता है. और उनका यह स्वभाव आज का नहीं है. इसका इतिहास 2002 के गुजरात दंगों से ही शुरू होता है.

अपनी बात कहने के लिए सोशल मीडिया का इस्तेमाल करके उन्होंने संवाद के परंपरागत माध्यमों को दरगुजर करने की कोशिश की है. लेकिन, जो बात गुजरात के मुख्यमंत्री के तौर पर चल गई हो, जरूरी नहीं है कि वही भारत के प्रधानमंत्री के लिए भी लागू हो.

एक्टिविस्टों की तरफ से लगातार यह शिकायत आ रही है कि आरटीआई एक्ट सूचना का अधिकार कानून को प्रभावहीन बना दिया गया है और इसके तहत जमा किए जाने वाले आवेदन पत्थर की दीवार से टकरा कर लौट आ रहे हैं.

मीडिया को दूर रखने की मोदी की आदत उनके कैबिनेट तक भी रिस कर पहुंच गई है. उनके कैबिनेट वाले भी या तो अपनी बारी आए बगैर नहीं बोलते या बिल्कुल ही बोलने से डरते हैं.

पिछले साल नवंबर में दायर की गई एक आरटीआई याचिका से यह बात सामने आई कि केंद्र सरकार ने मोदी की तस्वीर वाले विज्ञापनों पर 1,100 करोड़ रुपये खर्च किए हैं. यह जानकारी सूचना और प्रसारण मंत्रालय की तरफ से मुहैया कराई गई थी और इसमें होर्डिंगों, पोस्टरों, पुस्तिकाओं और प्रिंट विज्ञापनों को शामिल नहीं किया गया था.

अब जबकि उनके कार्यकाल में महज 18 महीने बचे हुए हैं और आने वाले महीनों में कई विधानसभा चुनाव कतार लगाकर खड़े हैं, हम ‘ब्रांड मोदी’ पर सरकारी खर्च के कम से कम तिगुना होने की उम्मीद कर सकते हैं.

भले मीडिया को अपना विरोधी मानकर दूर धकेल दिया गया है, लेकिन चारण गानेवालों (चियरलीडरों) पर खूब नजर-ए-इनायत की गई है. मोदी ने पिछले साल रिलायंस इंडस्ट्रीज के स्वामित्व वाले सीएनएन-18 को एक इंटरव्यू दिया था, जहां उनसे दोस्ताना सवाल पूछे गए.

उन्होंने खूब विस्तार में इनका जवाब दिया, जो काफी उबाऊ था. एंकर अपने सामने बैठे व्यक्ति के आभामंडल से इतना अभिभूत था कि मोदी ने उसकी मदद करते हुए खुद सवाल भी पूछना शुरू कर दिया.

दिलचस्प ये है कि इसी दिन रिलायंस जियो को लांच किया गया था और अखबारों के पहले पन्ने पर मोदी रिलायंस समूह के ब्रांड एम्बेसडर बनकर, वह भी ब्रांड के रंग का ही जैकेट पहनकर, प्रकट हुए थे. (हालांकि, बाद में सरकार ने यह दावा किया कि कंपनी ने प्रधानमंत्री का फोटोग्राफ का इस्तेमाल करने की इजाजत नहीं ली थी.)

उसी शाम यह इंटरव्यू भी प्रसारित किया गया, जिसमें मोदी ठीक वही जैकेट पहने हुए दिखाई दिए, जो एक तरह से ब्रांड के विज्ञापन का आभास दे रहा था.

जबकि अमेरिकी मीडिया ने एकजुट होकर ट्रंप की जवाबदेही तय करने का फैसला किया है, भारतीय मीडिया का एक धड़ा, जिसे खूब बख्शीश और मुआवजों से लाद दिया गया है, मोदी का भोंपू बनकर उभरा है.

इसलिए द वायर ने वित्त मंत्रालय में शायद विदेशी पोस्टिंग की दलाली करने के मामले में, जिन संपादकों के नामों को उजागर किया था, वे आज भी अपने पदों पर शान से बने हुए हैं. किसी भी दूसरे समय में यह बर्खास्त किए जाने लायक अपराध माना जाता और संपादक का कॅरियर समाप्त हो गया होता. दूसरे चैनल भी सरकारी ढोलक बजाने में लगे हुए हैं.

हाल ही में हालात इतने बिगड़ गए कि इंडिया टीवी के हेमंत शर्मा को, जिसके बेटे की शादी में नरेंद्र मोदी और अमित शाह दोनों शामिल हुए थे, चैनल द्वारा रास्ता नाप लेने के लिए कहना पड़ा.

ऐसा सीबीआई की तरफ से यह संकेत मिलने के बाद किया गया कि वह मेडिकल सीट घोटाले में उनसे पूछताछ कर सकती है. भाजपा के करीबी माने जाने वाले रजत शर्मा, जो इस चैनल के मालिक और संपादक हैं, ने कहा कि ‘वे और उनका चैनल भ्रष्टाचार को लेकर जीरो टॉलरेंस की नीति रखते हैं.’

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प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का साक्षात्कार लेते सीएनएन-न्यूज18 के राहुल जोशी. (फोटो साभार: narendramodi.in)

सरकार के खराब प्रदर्शन और यहां तक कि अमित शाह की संपत्ति के बारे में खबरों को बड़े मीडिया घरानों द्वारा चुपचाप गिरा दिया जाता है और इसकी वजह तक नहीं बताई जाती. हाल ही में ऐसा तब देखने में आया जब शाह ने गुजरात से राज्यसभा का पर्चा भरा था. (और उनके हलफनामे से उनकी संपत्ति में भारी वृद्धि की बात उजागर हुई थी.)

सरकार के मंत्री नियमित तौर पर प्रोपगेंडा वेबसाइटों पर आने वाली फर्जी खबरों को ट्वीट और री-ट्वीट कर रहे हैं. ये वेबसाइट मोदी सरकार के सत्ता में आने के बाद कुकुरमुत्ते की तरह उग आए हैं.

सूत्रों का कहना है कि इन साइटों की फंडिंग सरकार के कॉरपोरेट मददगारों के तरफ से हो रही है और इसमें पारदर्शिता नाम की कोई चीज नहीं है. इनके हैंडलों को प्रायः खुद प्रधानमंत्री और केंद्रीय मंत्री फॉलो कर रहे हैं.

एक वरिष्ठ मंत्री का कहना है, ‘यह हमारे आईटी सेल से जुड़े पुराने ट्रॉलों के लिए एक अच्छा उद्योग बन कर उभरा है. हमने उन्हें केंद्रीय मंत्रियों के सोशल मीडिया एकाउंटों का प्रबंधन करने की नौकरी दी है या प्रोपगेंडा वेबसाइटों में उन्हें रोजगार दिया है. इनकी खबरें सीधे हमारे व्हाट्एप्प ग्रुप्स को भेजी जाती हैं. हमारे संदेश को आगे बढ़ाने में ये आश्चर्यजनक भूमिका निभा रहे हैं.’

मोदी के पक्ष में खड़े पत्रकारों को कई-कई स्तंभ, राज्यसभा सीटें और अच्छी कंपनियों की बोर्ड सदस्यता दी गई है. उदाहरण के लिए, राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद के वर्तमान प्रेस सलाहकार को इससे पहले वित्त मंत्रालय द्वारा इंडिया टोबैको कंपनी के बोर्ड में स्वतंत्र निदेशक के तौर पर मनोनीत किया गया था.

या फिर स्वपनदास गुप्ता का उदाहरण देखिए, जिन्हें बतौर लेखक राज्यसभा में मनोनीत किया गया है. राज्यसभा में जाने से पहले दासगुप्ता को वित्त मंत्रालय ने लार्सन एंड टूब्रो के बोर्ड में मनोनीत किया था.

ऐसे में जब कि पत्रकार अपने आकाओं की तरफ से बोलने के लिए किसी भी स्तर तक जाने के लिए तैयार हैं, मैं ओपन मैगजीन में द हिंदू के भूतपूर्व ओपिनियन एडिटर (संपादकीय संपादक) के एक लेख को देखकर हैरत में पड़ गई थी, जिन्होंने ‘मोदी से नफरत करने वाले मीडिया कर्मियों (मोदी हेटर्स इन मीडिया)’ के प्रति अपना क्षोभ प्रकट किया था. क्या वाकई? क्या मोदी से सवाल पूछना गुनाह है, जैसा कि वह लेख आभास देता दिख रहा रहा है?

मीडिया में हमारे जैसे सभी लोग अपने कर्तव्यों को निभाने में नाकाम रहेंगे अगर हम यह फैसला कर लें कि मोदी सवालों से परे एक कोई सुपरमैन हैं.और वास्तव में खुद को उस बैंड-बाजा वाले में नहीं बदल देना चाहिए, जो यह कपटी तर्क देते हैं कि मोदी को ‘निशाना’ नहीं बनाना चाहिए.

एक ऐसे सरकार के लिए जो ज्यादातर समय वन मैन शो नजर आती है, मीडिया को किसी और से नहीं, सिर्फ मोदी को सवालों के कठघरे में खड़ा करना चाहिए.

(स्वाति चतुर्वेदी स्वतंत्र पत्रकार हैं और उन्होंने ‘आई एम अ ट्रोल: इनसाइड द सीक्रेट डिजिटल आर्मी ऑफ द बीजेपी’ किताब लिखी है.)