यूपी: इस चुनाव से क्या चाहते हैं इलाहाबाद के अल्पसंख्यक

इलाहाबाद के दक्षिणी और पश्चिमी विधानसभा क्षेत्र में अल्पसंख्यक आबादी अधिक है जो अमूमन निर्णायक भूमिका में रहती है. यहां युवाओं से लेकर महिलाओं तक का यही कहना है कि इस बार लड़ाई इज़्ज़त से ज़िंदा रहने और भय से मुक्ति की है.

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इलाहाबाद पश्चिम क्षेत्र का नूरुल्लाह रोड. (फोटो: द वायर)

इलाहाबाद के दक्षिणी और पश्चिमी विधानसभा क्षेत्र में अल्पसंख्यक आबादी अधिक है जो अमूमन निर्णायक भूमिका में रहती है. यहां युवाओं से लेकर महिलाओं तक का यही कहना है कि इस बार लड़ाई इज़्ज़त से ज़िंदा रहने और भय से मुक्ति की है.

इलाहाबाद पश्चिम क्षेत्र का नूरुल्लाह रोड. (फोटो: द वायर)

इलाहाबाद: उत्तर प्रदेश के इलाहाबाद में मुसलमान आबादी के बीच जाकर बात करिए तो उनके लिए भय और नफरत इस चुनाव में सबसे बड़ा मुद्दा है. वह नौजवान हो या कारोबारी या सरकारी नौकर, महिला हो या पुरुष, सभी इस बात को प्रमुखता से रखते हैं. वहीं, छोटे कारोबारियों का कहना है कि उनका धंधा चौपट हुआ है और महंगाई ने कमर तोड़ दी है.

शहर की दो सीटों- शहर दक्षिणी और शहर पश्चिमी पर मुस्लिम आबादी बड़ी संख्या में है और चुनाव में निर्णायक भूमिका अदा करती है, वहीं ग्रामीण इलाके हंडिया विधानसभा में उनकी संख्या काफी कम है.

इस बार चुनाव में उनके लिए प्रमुख मुद्दे क्या हैं यह जानने के लिए इन तीन सीटों पर लोगों से बात की. यहां 27 फरवरी को मतदान है.

हंडिया विधानसभा सीट पर बड़ौत से इमामगंज जाने वाली सड़क पर दोबहां बाजार के पास गौसिया में तमाम मुस्लिम नौजवान सपा के प्रत्याशी के आने का इंतजार कर रहे थे. इन नौजवानों से मुद्दे पूछने पर वह कहते हैं कि सारे मुद्दे एक तरफ लेकिन इस बार सम्मान से जिंदा रहने की लड़ाई है.

निवर्तमान विधायक के कार्यकाल से वे असंतुष्ट हैं लेकिन फिर भी उसके पक्ष में ही खड़े हैं. यहां से पिछले चुनाव में बसपा से जीते हाकिम लाल बिंद इस बार सपा से प्रत्याशी हैं. पूछने पर असलम बताते हैं कि वह कॉमर्स के पढ़ाई कर रहे हैं.

विधायक के बारे में कहते हैं कि उन्होंने कोई काम नहीं किया. यहां तक कि बगल के गांव गहरपुर में उनके ही बिरादरी के बिंद समुदाय के लोग हैं जहां 2 साल पहले कमर तक पानी भर गया था लेकिन विधायक जी बुलाने पर भी नहीं पहुंचे. इसके बावजूद योगीराज के भय के माहौल से मुक्ति इनके लिए प्राथमिक मुद्दा है.

बातचीत के पहले मस्जिद की तस्वीर उतारने पर उन्हें लगा था कि मैं कोई सरकारी आदमी हूं और शायद सड़क किनारे बनी मस्जिद को लेकर कहीं से गिराने का आदेश आ गया है, जिसके लिए फोटो उतार रहा हूं. असलम और उनके कई साथी तस्वीर खिंचाने को तैयार नहीं होते.

इमामगंज बाजार में कुछ बड़े बुजुर्गों से भी बात हुई वह भी गौसिया के नौजवानों की बात का समर्थन करते दिखे.

शहर दक्षिणी में करती की एक चाय दुकान पर कई लोग मिलते हैं. इस चुनाव में उनके मुद्दे क्या हैं पूछते ही तौहीद साहब बोल पड़ते हैं, ‘आप ही बताइए मुस्लिम बहुल इलाके में क्या मुद्दा हो सकता है?’

फिर खुद ही कहते हैं, ‘सिक्योरिटी, इज्जत से जी पाना सबसे बड़ा मुद्दा है. परिवार के साथ निकलें, औरतें नकाब में हैं तो कोई फिकरा न कसे.

ताहिर साहब कहते हैं कि राजनीति में धर्म को नहीं लाना चाहिए. भाजपा की सियासत देश के हित में नहीं है.

वहीं जाकिर साहब कहते हैं कि धर्म के आधार पर पार्टी नहीं होनी चाहिए. जब पूछा कि यहां तो छोटी- छोटी जातियों की पार्टियां है तो फिर ऐसी मुसलमानों की पार्टी क्यों नहीं होनी चाहिए, इस पर जाकिर साहब कहते हैं, ‘ठीक है आप अंसारी, खान या पसमांदा की पार्टी बना लीजिए लेकिन धर्म आधारित पार्टी बनाएंगे तो भाजपा को खारिज कैसे करेंगे?’

ताहिर साहब का मानना है कि भाजपा केवल हिंदू मुस्लिम ही करके नहीं आई, लोगों को बड़े-बड़े झूठे सपने दिखा कर बरगलाया भी और अब उसे पूरा करने की स्थिति में नहीं है. इसलिए तमाम हिंदू जातियां उनसे अलग हो गई हैं.’

शहर दक्षिणी में चाय की दुकान पर तौहीद, जाकिर, ताहिर, आबदी भाई. (फोटो: केके पांडेय)

बातचीत के क्रम में चाय की दुकान चलाने वाले अफरोज कहते हैं, ‘महंगाई भयानक बढ़ गई है. शाम को मेरी दुकान पर भीड़ लगी रहती थी अब पेट पल जाए किसी तरह यही बहुत है.’ यहीं बैठे धर्मेंद्र मौर्य माली का काम करते हैं और घनश्याम भी छोटा-मोटा कारोबार करते हैं यह दोनों अफरोज की बात का समर्थन करते हैं. घनश्याम का जोर शिक्षा और स्वास्थ्य सुविधा बेहतर और निशुल्क करने पर है.

बातचीत के क्रम में मुस्लिम साथियों की एक शिकायत जरूर उभर आती है कि शहर के दक्षिणी और पश्चिमी सीट पर मुस्लिम मतदाताओं की बड़ी मौजूदगी के बावजूद कोई सीट मुस्लिम समुदाय को नहीं दी गई. लेकिन वह कहते हैं, ‘इससे वोट देने पर कोई फर्क नहीं पड़ेगा.हम बढ़-चढ़कर मतदान करेंगे.’

शहर के एक मॉल में लगा प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का कट-आउट. (फोटो: द वायर)

शहर दक्षिणी में ही 60 फीट रोड के पास रहने वाली सरकारी स्कूल की अध्यापिका ने जोर देकर कहा कि उनका नाम न लिखा जाए. पहनावे के सवाल पर उन्होंने कहा, ‘मैं कभी-कभी नकाब पहनना चाहती हूं लेकिन शहर से दूर एक गांव के स्कूल में पढ़ाने जाती हूं. नकाब इसलिए नहीं पहनती कि उससे मेरी धार्मिक पहचान न उजागर हो जाए.और कभी भी किसी भी किस्म की घटना हो सकती है.’

उनका कहना है कि उनके लिए इस चुनाव में सुरक्षा और सम्मान ही प्रमुख मुद्दा है.

शहर पश्चिमी के निम्न मध्यवर्गीय मोहल्ले रसूलपुर में एक प्राइवेट स्कूल की अध्यापिका हिना फिरदौस कहती हैं कि महंगाई कम हो और काम धंधा चले. उनके पति और देवर छोटे-मोटे व्यवसाय करते हैं. वे कहती हैं, ‘भाजपा सरकार आई तो मुसलमानों को जीने नहीं देगी. सीएए, एनआरसी लागू करेगी. इस सरकार को कैसे भी हो जाना चाहिए.’

(लेखक समकालीन जनमत मासिक पत्रिका के संपादक हैं.)

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